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Showing posts from November 9, 2009

चित्रों ने खोली ज़ुबान, मर्दों के बारे में क्या सोचती हैं औरतें

चित्रों ने खोली ज़ुबान, मर्दों के बारे में क्यार सोचती हैं औरतें ♦ चण्डीदत्त शुक्ल कौन-सा पुरुष होगा, जो न जानना चाहे कि स्त्रियां उसके बारे में क्या सोचती हैं? ये पता करने का मौक़ा जयपुर में मिला, तो मैं भी छह घंटे सफ़र कर दिल्ली से वहां पहुंच ही गया। मौक़ा था, टूम 10 संस्था की ओर से सात महिला कलाकारों की संयुक्त प्रदर्शनी के आयोजन का। और विषय, द मेल! मर्द, मरदूद, साथी, प्रेमी, पति, पिता, भाई और शोषक… पुरुष के कितने ही चेहरे देखे हैं स्त्रियों ने। कौन-सी कलाकार के मन में पुरुष की कौन-सी शक्ल बसी है, ये देखने की (परखने की नहीं… क्योंकि उतनी अक्ल मुझमें नहीं है!) लालसा ही वहां तक खींच ले गयी। जयपुरवालों का बड़ा कल्चरल सेंटर है, जवाहर कला केंद्र। हमेशा की तरह अंदर जाते ही नज़र आये कॉफी हाउस में बैठे कुछ कहते, कुछ सुनते, कुछ खाते-पीते लोग। सुकृति आर्ट गैलरी में कलाकारों की कृतियां डिस्प्ले की गयी थीं। उदघाटन की रस्म भंवरी देवी ने अदा की। पर ये रस्म अदायगी नहीं थी। पुरुष को समझने की कोशिश करते चित्रों की मुंहदिखाई की रस्म भंवरी से बेहतर कौन निभाता। वैसे भी, उन्होंने पुरुष की सत्त

लो क सं घ र्ष !: वंदे मातरम् विवाद और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ

वंदे मातरम् के विवाद पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने तरह - तरह के बयान पूरे देश में जारी किए है और अपने को राष्ट्र भक्त साबित करने का प्रयास किया है और शब्दों की बाजीगरी के अलावा कुछ नही है । राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का राष्ट्रीय झंडे में ही विश्वाश नही है । 4 जुलाई 1946 को आर एस एस प्रमुख म अस गोलवलकर ने कहा कि " हमारी महान संस्कृति का परिपूर्ण परिचय देने वाला प्रतीक स्वरूप हमारा भगवा ध्वज है जो हमारे लिए परमेश्वर स्वरूप है । इसीलिए परम वन्दनीय ध्वज को हमने अपने गुरु स्थान में रखना उचित समझा है यह हमारा द्रण विश्वाश है कि अंत में इसी ध्वज के समक्ष हमारा सारा नतमस्तक होगा " । 14 अगस्त 1947 को आर . एस . एस के मुख पत्र आरगेनाइजर ने लिखा कि " वे लोग जो किस्मत के दांव से सत्ता तक पहुंचे हैं वे भले ही हमारे हाथों में तिरंगे को थमा दें , लेकिन हिन्दुओं द्वारा न इसे कभी सम्मान

निज भाषा उन्नति अहै ----डा श्याम गुप्त की कविता ...

सारांश यहाँ आगे पढ़ें के आगे ओ भारत के दुर्वल मानव , दलित आत्मा के पुतले | मानस सुत रे अंगरेजों के , अंगरेजी के कठपुतले | पढ़कर चार विदेशी अक्षर , तुम अपने को भूल चले | पतन देख कर तेरे मन का , मेरे मन में शूल चले | देख बाह्य सौन्दर्य , विदेशी - भाषा के गुणगाते हो | उसे उच्चभाषाकहने में, बिल्कुल नहीं लजाते हो | जीभ नहीं गल गिरती है , हा ! कैसे उसे चलाते हो | आर महा आर्श्चय , देश द्रोही - क्यों नहीं कहाते हो ! तड़प रही है बिकल आत्मा , भारत की , कहती निज जन से | हमें गुलाम बनाने वाले , अरे ! छुड़ाओ इस बंधन से | यह भाषा , इसकी सभ्यता , समझो भारत का घुन है | इसे देख मेरी मानवता , कहती यों अपना सिर धुन है | अंगरेजी कुत्सित छायाएं , जो भारत से नहीं हटेंगी | समझें आने वाली पीढी , कभी न हमको माफ़ करेंगी | अरे ! मूढ़ , मति अंध , राष्ट्र द्रोही - न अंत में जाओ भूल | ' निज भाषा उन्नति अहै - सब उन्नति कौ मूल ' ||