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Showing posts from September 11, 2009

भारतीय राजनीति में वंशवाद का दंश

सलीम अख्तर सिद्दीक़ी आन्ध््रा प्रदेश के मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी के निधन के बाद से ही उनके पुत्र को मुख्यमंत्री बनाने की बात की जा रही है। आखिर ऐसा क्यों है कि किसी लोकप्रिया नेता की मौत के बाद उसकी गद्दी को उसके परिवार को देने की कवायद की जाती है ? जवाहरला नेहरु, शेख अब्दुल्ला, करुणानिधि, एनटीआर, एमजीआर, बीजू पटनायक, लालूप्रसाद यादव, चौधरी चरण सिंह, अजीत सिंह, मुफ्ती मौहम्मद सईद और मुलायम सिंह यादव ने यही किया है और कर रहे हैं। बसपा सुप्रीमो मायावती के हालांकि कोई औलाद नहीं है, लेकिन यह तय है कि उनकी विरासत को भी उनका कोई भाई या भतीजा ही संभालेगा। इन पार्टियों के मुखिया अपने परिवार के अलावा कुछ नहीं सोचते हैं। वे सोचे भी क्यों, जब जनता ही उनको राजा समझने लगती है। कमोबेश देश की सभी तथाकथित लोकतान्त्रिक राजनैतिक पार्टियां में वंशवाद का दंश लगा हुआ है। समझ में नहीं आता कि ये नेता अपनी पार्टी का नाम भी परिवार के किसी सदस्य के नाम पर ऐसे ही क्यों नहीं रख लेते, जैसे दुकानों के रखे जाते हैं। मसलन, 'नेहरु परिवार पार्टी', 'मुलायम सिंह एंड संस पार्टी', 'शेख अब्दुल्ला एंड स

कर देना भैया माफ़...

लेखक के तन में बसा शब्दों का भण्डार॥ उठे लेखनी जब जबतब देता उपहार॥ तब देता उपहार शब्द को हार पिन्हाता॥ उसके लिखे कवित्र को जब का प्राणी गाता॥ शब्द सुरीले सजा कर रखता शब्दों का मेल॥ कभी कभी ले बिछड़ जाय तो होता बड़ा झमेल॥ होता नया झमेल जसवंत का पत्ता साफ़॥ लिखने में कोई त्रुटी हुयी हो कर देना ॥ भैया माफ़...

लो क सं घ र्ष !: स्मृति शेष: घुपती हृदय में बल्लम सी जिसकी बात, उसे गपला ले गयी कलमुँही रात-01

वह खोड़ली कलमुँही (6 अगस्त 09) रात थी, जब प्रमोद उपाध्याय जी ज़िन्दगी की फटी जेब से चवन्नी की तरह खो गये। प्रमोद जी इतने निश्छल मन थे कि कोई दुश्मन भी कह दे उनसे कि चल प्रमोद.... एक-एक पैग लगा लें, तो चल पड़े उसके साथ। उनकी ज़बान की साफ़गोई के आगे आइना भी पानी भरे। अपने छोटे से देवास में मालवी, हिन्दी के जादुई जानकार। भोले इतने कि एक बच्चा भी गपला ले, फिर सुना है मौत तो लोमड़ी की भी नानी होती है न, गपला ले गयी। प्रमोद जी को जो जानने वाले जानते हैं कि वह अपनी बात कहने के प्रति कितने जिम़्मेदार थे, अगर उन्हें कहना है और किसी मंच पर सभी हिटलर के नातेदार विराजमान हैं, तब भी वह कहे बिना न रहते। कहने का अंदाज और शब्दों की नोक ऐसी होती कि सामने वाले के हृदय में बल्लम-सी घुप जाती। जैसा सोचते वैसा बोलते और लिखते। न बाहर झूठ-साँच, न भीतर कीच-काच। उन्होंने नवगीत, ग़ज़ल, दोहे सभी विधा की रचनाओं में मालवी का ख़ूबसूरत प्रयोग किया है। रचनाओं के विषय चयन और उनका निर्वहन ग़ज़ब का है, उन्हें पढ़ते हुए लगता-जैसे मालवा के बारे में पढ़ नहीं रहे हैं बल्कि मालवा को सांस लेते। निंदाई-गुड़ाई करते, हल-बक्खर हाँकते, दाल-बाफला