शेखर गुप्ता कुछ माह पहले ही मैंने अपने कॉलम में लिखा था कि पाकिस्तान का सत्ता तंत्र समय-समय पर गफलत में आ जाता है। उनके यहां कुछ ऐसे हालात बन जाते हैं कि सहसा वे अपनी ‘जीत’ को लेकर आश्वस्त हो जाते हैं। लेकिन उत्साह में वे खुद से यह पूछना भूल जाते हैं कि उनकी इस जीत के मायने क्या हैं और यह स्थिति कब तक बनी रहेगी। फिलवक्त पाकिस्तान ऐसे ही दौर से गुजर रहा है। उसे लगता है कि दुनिया भर के अमन-चैन की चाबी उसी के हाथों में है और ओबामा और डेविड कैमरून का राजनीतिक भविष्य भी उसे ही तय करना है। ये एक ऐसे मुल्क के लिए बदले हुए हालात हैं, जिसे अभी तक बदहाल माना जा रहा था। लेकिन इस बार नई बात यह है कि पहले उसे हमेशा लगता था कि उसने यह ‘जीत’ भारत के विरुद्ध हासिल की है, जबकि इस दफे उसे लगता है कि उसने पूरी दुनिया को हरा दिया है। ओबामा की कमजोरी के चलते ही पाक आज खुद को सबसे ताकतवर महसूस करता है। लेकिन ऐसी ही स्थितियों में पाकिस्तान गंभीर भूलें भी करता है। बीते हफ्ते इस्लामाबाद में जो हुआ, वह इसी का नतीजा था। खास तौर पर एसएम कृष्णा के साथ संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस में शाह महमूद कुरैशी का दंभ भरा रवैया।