Skip to main content

Posts

Showing posts from August 4, 2010

भाजपा का असली एनकाउंटर

आशुतोष भाजपा की दो समस्याएं हैं। एक, वह लंबे समय तक विपक्ष में रही है, इसलिए उसके तेवर हमेशा ही विपक्षी पार्टी वाले ही रहते हैं। वह भूल जाती है कि केंद्र में उसकी सरकार छह साल रह चुकी है। दो, उसकी विचारधारा आरएसएस की विचारधारा है। इस वजह से जब भी उस पर कोई राजनीतिक हमला होता है तो उसे वह अपने मूल, यानी विचारधारा पर हमला मान लेती है और वह एक राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टी होने के नाते अपने और आरएसएस के बीच के फर्क को मिटा देती है। उसके नेता यह भूल जाते हैं कि जब वे सत्ता में आएंगे तो संविधान, लोकतंत्र और संवैधानिक संस्थाओं की रक्षा करना उनका धर्म होगा। सोहराबुद्दीन मामले में भाजपा की यह कमजोरी एक बार फिर खुल कर सामने आई है। कठघरे में भाजपा के तीन बड़े नेता हैं। अमित शाह जेल में हैं और राजस्थान के पूर्व गृहमंत्री गुलाब चंद कटारिया और ओम माथुर पर शक है। नरंेद्र मोदी से भी पूछताछ की तैयारी है। ऐसे मंे भाजपा का तिलमिलाना स्वाभाविक है। और यह भी कि वह सीबीआई के दुरुपयोग का आरोप कांग्रेस पर मढ़े। लेकिन इसकी आड़ में सुप्रीम कोर्ट पर चढ़ाई हो, यह ठीक नहीं है। पार्टी प्रवक्ता राजीव प्रताप रूडी ने बिना

संस्‍कृतप्रशिक्षणकक्ष्‍या -अष्‍टम: अभ्‍यास:

प्रिय बन्‍धु संस्‍कृतप्रशिक्षणकक्ष्‍या - अष्‍टम: अभ्‍यास: संस्‍कृतप्रशिक्षणकक्ष्‍या -अष्‍टम: अभ्‍यास: सहयोग के लिये धन्‍यवाद

मुस्कुरा के निकल गये...

लगा के दाग दामन में॥ मुस्करा के निकल गए॥ हमें छोड़ कर अकेले॥ गम ये दर्दे पिला गए॥ किस्मत में यही लिखा था॥ ओढ़ ली सफ़ेद साडी॥ अब रही न मै अकेली॥ गोद भी नहीं है खाली ॥ जाते जाते अपनी निशानी॥ पेट में छुपा गए॥ लगा के दाग दामन में॥ मुस्करा के निकल गए॥ हमें छोड़ कर अकेले॥ गम ये दर्दे पिला गये॥ पल रहा है पेट में ॥ तीन महीने का लल्ला। वे अगर ज़िंदा यूं होते॥ घर में मचा देते हो हल्ला॥ ऐसी घडी में छोड़ कर॥ हाथो से मेरे फिसल गये॥ लगा के दाग दामन में॥ मुस्करा के निकल गए॥ हमें छोड़ कर अकेले॥ गम ये दर्दे पिला गये॥ ससुराल के लोगो ने॥ कहर खूब पर्पाया है। बूढ़े माँ बाप ने तब॥ हाथ आगे बढाया है॥ तुमतो मुझसे दूर हुए॥ क्यों रिश्ता पकड़ा गये॥ लगा के दाग दामन में॥ मुस्करा के निकल गये॥ हमें छोड़ कर अकेले॥ गम ये दर्दे पिला गए॥ रोके से रुकते नहीं ॥ आँखों से ये आंसू॥ थामेगा अब कौन इसे॥ फड़कता है बाजू॥ मै ढूढती तुम्हे हूँ॥ तुम वादा कर के भुला गये॥ लगा के दाग दामन में॥ मुस्करा के निकल गए॥ हमें छोड़ कर अकेले॥ गम ये दर्दे पिला गए॥

डा श्याम गुप्त की गज़ल...कितने दूर हैं....

पास भी है किन्तु कितने दूर है । आपकी चाहों से भी अब दूर हैं | आप चाहें या नहीं चाहें हमें , आप इस प्यासी नज़र के नूर हैं | आप को है भूल जाने का सुरूर , हम भी इस दिल से मगर मज़बूर हैं | चाह कर भी हम मना पाए नहीं , आपसे समझे यह कि हम मगरूर हैं | आपको ही सिर्फ यह शिकवा नहीं , हम भी शिकवे-गिलों से भरपूर हैं | आप मानें या न मानें 'श्याम हम, आपके ख्यालों में ही मशरूर हैं || -------- डा. श्याम गुप्त

इस वाहियात आदमी के कुंठित मर्दाना वमन पर थूको

राष्‍ट्रीय सहारा से जुड़ी वरिष्‍ठ पत्रकार। महिला मुद्दों पर लगातार लेखन। सहारा के सभी फीचर पन्‍नों – संडे उमंग, मूवी मसाला, जेन एक्स, आधी दुनिया का संपादन। manisha.sahara@ gmail.com पर उनसे संपर्क किया जा सकता है। ♦ मनीषा ‘लेखिकाओं को छिनाल’  बताकर विभूतिनारायण ने अपने सारे किये-कराये पर खुद ही तेजाब डाल दिया। क्या पता ये बैंक ऑफ-द-माइंड पड़े सड़ांध मार रहे उनके घिनौने विचार हों या अपनी गुस्ताखियों का पुलिंदा खुलने से भयभीत बचाव में की गयी बयानबाजी। मैं राय से यह जरूर जानना चाहूंगी कि अगर यही ‘टर्म’ पुरुष के लिए मैं इस्तेमाल करना चाहूं तो कैसे और क्या होगा? यह घटिया शब्द किसी सभ्य व्यक्ति की जुबान पर तब भी नहीं आ सकता, जब वह क्रोधित हो या बदले की भावना से किसी ‘खास’ को गरिया रहा हो। इस तरह की तमाम स्त्रियोचित गालियां पुरुषों की कुंठाओं का प्रतिफल हैं, जिनका इस्तेमाल वे शेखी बघारने के लिए कितना ही करते फिरें पर सच्चाई यही है कि ढलान पर जाती मर्दानगी और शिथिलता उनके दिमाग को इस कदर कब्जिया लेती है कि सोचने-समझने की क्षमता ही वे खो बैठते हैं। औरतों के जननांगों पर अपना निशाना साधने वालों