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Showing posts from October 17, 2010

राजस्थान की प्राथमिक शिक्षा से मातृभाषा गायब क्यों?

-डॉ. सत्यनारायण सोनी सही मायने में तो मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाए जाने पर ही नि:शुल्क एवं अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम को लागू माना जाएगा। नि:शुल्क एवं अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम 1 अप्रैल 2010 से देशभर में लागू हो चुका है। राजस्थान सरकार ने भी राज्य में इस अधिनियम को लागू करने के लिए अपनी प्रतिबद्धता जाहिर की है और राजस्थान प्रारम्भिक शिक्षा परिषद् के माध्यम से राज्य सरकार ने शिक्षाविदों, शिक्षक संघों, जनप्रतिनिधियों, स्वयंसेवी संस्थाओं के सुझाव आमंत्रित किए हैं। इससे पहले राज्य सरकार ने देश की स्कूली शिक्षा में अव्वल स्थान रखने वाले तमिलनाडु की तर्ज पर राज्य में बच्चों को शिक्षा देने की योजना भी बनाई। इसके लिए शिक्षा विभाग की टीम ने गत मई माह में बाकायदा तमिलनाडु का दौरा भी किया। यहां यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि तमिलनाडु में प्राथमिक शिक्षा का जो माध्यम है, क्या सरकार उसे भी राजस्थान में लागू करेगी? सही मायने में तो मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाए जाने पर ही इस अधिनियम को लागू माना जाएगा। आज कहने को तो प्रतिवर्ष प्रवेशोत्सव भी मनाया जाता है, मगर स्कूल

क्या वाकई जयपुर के लिए 12.5 हजार करोड़ लागत की मेट्रो रेल जरूरी है?

यह रकम इतनी बड़ी है कि शहर के पांच लाख परिवारों को एक-एक मारुति कार दी जा सकती है। इस भारी भरकम खर्च पर सवाल उठाते हुए राजस्थान के पूर्व वित्त मंत्री मानिकचंद सुराणा ने जयपुर मेट्रो परियोजना को अव्यावहारिक करार दिया है। सुराणा का कहना है कि जयपुर मेट्रो रेल के बजाय राज्य के बाकी सभी 165 छोटे शहरों में 70-70 करोड़ रु. के विकास कार्य कर इनका कायाकल्प किया जा सकता है। उनका तर्क है कि मेट्रो के पहले चरण में मानसरोवर से चांदपोल के बीच 2 लाख और दूसरे चरण में सीतापुरा-अंबाबाड़ी रूट पर 4 लाख यात्रियों को आधार मानकर परियोजना शुरू की जा रही है जबकि इन रूट पर चल रही लो-फ्लोर बसों में रोजाना औसतन 10-12 हजार यात्री ही सफर करते हैं। ऐसे में यहां मेट्रो के लिए 6 लाख यात्री कहां से आएंगे? मेट्रो के प्रस्तावित रूटों पर यहां सिर्फ 12 करोड़ रुपये खर्च कर 46 नई लो फ्लोर बसें लगाई जा सकती हैं, जिससे आवागमन की समस्या काफी हद तक सुलझ जाएगी। सुराणा का आरोप है कि राजस्थान सरकार ने अपनी नाकामियां छिपाने के लिए मेट्रो का ख्वाब दिखाया है। शहर में हाल में शुरू की गई लो-फ्लोर बसों का इस्तेमाल करने वाली आबादी को

राष्ट्रबंडल खेल

कोंपल श्रीवास्तव ..15 अक्टूबर 2010... कॉमनवेल्थ गेम्स का आज आखिरी दिन था। क्या चकाचौंध थी, आतिशबाज़ी से सज़ा आसमान, स्टेडियम में हज़ारों थिरकते कदम, भारत का झंडा लिए हमारे खिलाड़ी जिन्होंने कमाल करते हुए पूरे 100 पदको का रिकॉर्ड कायम किया...एआर रहमान का जोशीला गाना और रौशनी से नहायी पूरी दिल्ली...पूरा शहर शेरा के पोस्टरों से सजा हुआ था...शेरा की टीशर्ट पहने बच्चे बड़े,शेरा की टोपी, शेरा का बैग, शेरा गुब्बारों पर शेरा मेट्रो की दीवारों पर, दिल्ली के बीआरटी कॉरिडोर में दौड़ती बसों पर...शेरा ही शेरा...भला हो इन कॉमनवेल्थ गेम्स का दिल्ली की तो शक्ल ही बदल गई है। पूरी दिल्ली मेट्रों से जुड़ गयी है, चौड़ी चिकनी सड़कों पर सरपट दौड़ती गाड़ियां, एक से दूसरे फ्लाएऔवर पर ट्रैफिक बिना गाड़ी चलाने का मज़ा। सफायी ऐसी की सिंगापुर को पछाड़ दे...बेहतरीन स्टेडियम, पांच सितारा होटल, गेम्स विलेज के आलीशान फ्लैट भई वाह...दिल्ली में रहने पर फख्र हो रहा है। माफ कर दीजिए शीलाजी, कलमाडी साहब...हम देख नहीं पाए आपका कमाल और बहुत बुरा भला कहा आपको। आपने तो जादू कर दिया, कहा जा रहा है कि इस आयोजन के बाद पर्यटकों क