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Showing posts from June 1, 2010

लो क सं घ र्ष !: बुलबुल-ए-बे-बाल व पर - अंतिम भाग

बुलबुल-ए-बे-बाल व पर -1 बुलबुल-ए-बे-बाल व पर -2 (पंखहीन बुलबुल) फिर सिराजुद्दीन बहादुर शाह जफ़र को एक मामूली मुल्ज़िम की हैसियत से ज़िला वतन कर दिया। वह 1862ई0 में (रंगून में) अपने वतन से दूर इस आलम-ए-फ़ानी को तर्क कर गए। सच तो यह है कि दिल्ली के आखि़री ताजदार ज़फ़र बेचारे, बेकस, बेदोस्त ओ यार और वाक़ई बेपरो बाल थे। लेकिन वे अपनी तमाम बेचारगियों और कमजोरियों के बावजूद हिन्दुस्तान में हिन्दू, मुस्लिम, इत्तेफाक़ और आजादी की अलामत रहे थे। इस राज़ से अंग्रेज सरकार भी बखूबी वाक़िफ़ थी कि ज़फ़र का कोई असर बाकी न छोड़ने के लिए हर मुमकिन कोशिश थी। खुद बा एतबार मुसलमानों से उनके खिलाफ प्रोपे्रगण्डा करवाया। बाज़ असहाब जानते बूझते अपने मफ़ादात की खातिर और बाज लोग बादिले नाख़्वास्ता (न चाहते हुए) बस अपनी कौम को तलवार के मुँह से बचाने की खातिर इस प्रोपेगण्डे में शामिल हो गए जैसा कि सर सैय्यद शामिल हुए थे और अपनी मारूफ़ तसनीफ़ (प्रसिद्ध रचना) असवाबे बग़ावत ए हिन्द में कलम बन्द फरमाया था- ‘‘दिल्ली के माज़ूल बादशाह (अपदस्थ राजा) का यह हाल था कि अगर उससे कहा जाता कि पाकिस्तान में जिन्नों का बादशाह आप

एक बन्दर मैट्रो के अन्दर॥

एक बन्दर मैट्रो के अन्दर॥ किया खूब हंगामा॥ जितने यात्री बैठे थे अन्दर॥ करने लगे खुद ड्रामा॥ करने लगे खुद ड्रामा॥ सी। आई। अस । अफ को बुलवाए॥ तोंदी वाले अफसर दादा को॥ बन्दर मामा बहुत दौडाए॥ एक जवान गड्ढे में दिर गया। दूजे का फटा पजामा॥ एक बन्दर मैट्रो के अन्दर॥ किया खूब हंगामा॥ जितने यात्री बैठे थे अन्दर॥ करने लगे खुद ड्रामा॥ चलती मैट्रो में जनता संग॥ अफसर हुए हताश॥ नटखट बन्दर के करतूते से॥ सहने लगे उपहास॥ मजबूरी में अफसर बोला॥ अब तो मान जाओ हे नाना..

लो क सं घ र्ष !: ब्लॉग उत्सव 2010

सम्मानीय चिट्ठाकार बन्धुओं, सादर प्रणाम, आज दिनांक 31.05.2010 को परिकल्पना ब्लोगोत्सव-2010 के अंतर्गत बीसवें दिन के कार्यक्रम का लिंक - ब्लोगोत्सव की आखिरी परिचर्चा : क्या आत्मा अमर है ? http://www.parikalpnaa.com/ 2010/05/blog-post_31.html स ुमन सिन्हा की कविता : तुम्हारे नाम http://utsav.parikalpnaa. com/2010/05/blog-post_4302. html मैं पुनर्जन्म नही मानता : कर्नल अजय कुमार http://www.parikalpnaa.com/ 2010/05/blog-post_607.html बसंत आर्य की लघुकथा : खिडकियाँ http://utsav.parikalpnaa.com/ 2010/05/blog-post_31.html कई उदहारण भी हैं .... जिससे यह प्रमाणित होता हैं कि पुनर्जन्म है : नवीन कुमार http://www.parikalpnaa.com/ 2010/05/blog-post_4928.html दिविक रमेश की दो http://utsav.parikalpnaa.com/ 2010/05/blog-post_943.html मेरे विचार से पुनर्जन्म होता है : वंदना श्रीवास्तव http://www.parikalpnaa.com/ 2010/05/blog-post_7060.html रजिया मिर्ज़ा का संस्मरण : सलाम एक