बुलबुल-ए-बे-बाल व पर -1 बुलबुल-ए-बे-बाल व पर -2 (पंखहीन बुलबुल) फिर सिराजुद्दीन बहादुर शाह जफ़र को एक मामूली मुल्ज़िम की हैसियत से ज़िला वतन कर दिया। वह 1862ई0 में (रंगून में) अपने वतन से दूर इस आलम-ए-फ़ानी को तर्क कर गए। सच तो यह है कि दिल्ली के आखि़री ताजदार ज़फ़र बेचारे, बेकस, बेदोस्त ओ यार और वाक़ई बेपरो बाल थे। लेकिन वे अपनी तमाम बेचारगियों और कमजोरियों के बावजूद हिन्दुस्तान में हिन्दू, मुस्लिम, इत्तेफाक़ और आजादी की अलामत रहे थे। इस राज़ से अंग्रेज सरकार भी बखूबी वाक़िफ़ थी कि ज़फ़र का कोई असर बाकी न छोड़ने के लिए हर मुमकिन कोशिश थी। खुद बा एतबार मुसलमानों से उनके खिलाफ प्रोपे्रगण्डा करवाया। बाज़ असहाब जानते बूझते अपने मफ़ादात की खातिर और बाज लोग बादिले नाख़्वास्ता (न चाहते हुए) बस अपनी कौम को तलवार के मुँह से बचाने की खातिर इस प्रोपेगण्डे में शामिल हो गए जैसा कि सर सैय्यद शामिल हुए थे और अपनी मारूफ़ तसनीफ़ (प्रसिद्ध रचना) असवाबे बग़ावत ए हिन्द में कलम बन्द फरमाया था- ‘‘दिल्ली के माज़ूल बादशाह (अपदस्थ राजा) का यह हाल था कि अगर उससे कहा जाता कि पाकिस्तान में जिन्नों का बादशाह आप