♦ मृणाल पांडे उत्कट सामाजिक तथा राजनीतिक आलोड़नों से भरपूर उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के भारतीय लेखक-लेखिकाओं की जिंदगी कई बार उनके साहित्य से अधिक दिलचस्प लगने लगती है और वह है भी। लेकिन किसी भी लेखक या लेखिका का मूल्यांकन करते हुए उसके जीवन को साहित्य से अलग करके उसके कुल अवदान का अधकचरा ऐतिहासिक-मनोवैज्ञानिक विवेचन कई तरह के खतरे न्योतता है। पुरुषों के प्रसंग में ऐसा थोथापन बहुत कम दिखता है। अलबत्ता महिला लेखन की बात छिड़ते ही जिद-सी ठान ली जाती है कि उसमें अपने अस्तित्व या देह को लेकर व्यक्त प्रश्नाकुलता और यौन रिश्तों की साफगोई के साथ की गयी पड़ताल है। खुले मन से पढ़ा जाए, तो अनेक लेखिकाओं का आत्मकथात्मक लेखन हमें गहरे से विचलित कर सकता है। पर उसके साथ आलोचकीय न्याय तभी हो सकता है, जब समालोचक इस पूर्वग्रह से मुक्त हों कि स्त्री सामान्य पुरुष की तुलना में सिर्फ एक उपभोग्य शरीर या बहुत करके श्रद्धा, करुणा या विश्वास रजत नभ पगतल में बहने वाला पीयूष वीयूष सरीखा छायावादी अमूर्तन ही ठहरती है। स्त्री का आत्मचिन्तन तो अकल्पनीय है। हिंदी पट्टी का एक विलक्षण गुण है कि जिन चीजों को हमारा बुद्