दो त्योहार होली एवं ईदे मीलाद अभी अभी गुजर गये, दुख का त्योहार मुहर्रम कुछ समय पूर्व खत्म हुआ, हमारा दावा तो यही है, और सही भी है, कि यह सब बुराई पर अच्छाई की विजय एवं सामाजिक सदभावना बढ़ाने वाले हैं, परन्तु समाज में हम प्रत्येक अवसर पर क्या देख रहे हैं? दंगे, हुड़दंग, हत्यायें, आगजनी, कुरान, गीता, बाइबिल हमें अच्छी शिक्षायें देती हैं। शायर कहता है- मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना। हम अपने इस विश्वास पर आग्रह करते हैं कि आज हम भौतिक रूप से बराबर आगे बढ़ते चले जा रहे हैं लेकिन मानवता विलुप्त होती जा रही है। बिना मानवता के प्रगति पर विनाश के बादल मंडराते रहेंगे, यदि कोई गांव विकास में पूरी तरह संतृप्त हो जाय, धन दौलत से सब भरे पुरे हो, सारी सुख सुविधायें उपलब्ध हो मगर सभी एक दूसरी को चैन से न रहने दें, लड़ते-भिड़ते रहें एक दूसरे की हत्यायें करें, माल लूटते रहें तो गांव का वैभव कितने दिन बांकी रह सकेगा। यही हाल देश का होगा, अराजक तत्व, आतंकवादी प्रगति को दुरगति में बदल देंगे। किसी संस्कृत भाषा के दार्शनिक ने पाप-पुण्य की कैसी अच्छी परिभाषा प्रस्तुत की थी। परोपकाराय पुन्याय पापाय परपीड़नम।