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Showing posts from January 4, 2010

लो क सं घ र्ष !: फास्ट ट्रैक कोर्ट पर विचरण का एक दृश्य

फास्ट ट्रैक कोर्ट पर अपराधिक वादों का विचारण सम्पूर्ण विधि व्यवस्था के लिए चुनौती पूर्ण कार्य है प्रति माह माननीय न्यायधीश महोदय को 14 वादों का निर्णय करने के ठेके के साथ नियुक्त मिली है या यूँ समझो कि ऍफ़ . टी . सी न्यायधीश को 14 वाद का निस्तारण प्रति माह करना आवश्यक है । जिसके कारण विचारण में पेशकार गवाह की गवाही लिख रहे होते हैं उसी समय अहलमद भी गवाही लिख रहे होते हैं , न्यायधीश महोदय भी गवाही लिख रहे होते हैं । जब कि नियम यह है एक समय में एक ही वाद का विचारण हो सकता है इसके विपरीत एक समय में एक ही न्यायलय में 6 - 6 मुकदमो का विचारण हो रहा होता है . स्टेनो गवाही के उपरांत होने वाले जजमेंट को टाइप कर रहे होते हैं न्यायलयों में होने वाले जज मेंट भी स्टेनो टाइप कर डालते हैं । बचाव पक्ष के अधिवक्ता के समक्ष सजा के पक्ष को सुनकर सजा लिखी जाती है । इस तरह पूरी प्रक्रिया विधि के अनुरूप न होकर व अपराधिक वादों को निर्णीत करने का

घर से भागी हुई एक लड़की का ख़त

प्रिय मित्रों,   श्री योगेश छिब्बर ने एक कहानी लिखी है जो कुछ यों शुरु होती है -   पापा :   आपके पिता होने में न सुंदरता है , न कोमलता , न कोई मीठा गीत। आपकी बेटी होना अपमान है , अपराध है , पाप है ; आप मेरे स्त्री होने की सुंदरता पर हावी नहीं हो सकते। इसीलिए मैं आपको अपनी बाक़ी ज़िंदगी में से घटा देना चाहती हूँ।   मैं चाहती हूँ आप शून्य हो जाएँ , मेरे वजूद में से बाहर हों , ताकि मैं खूबसूरत और मुकम्मल हो सकूँ।   श्री योगेश छिब्बर की पूरी कहानी यहां प्रकाशित हुई है व इस कहानी पर प्रतिक्रिया भी ।   जहां तक , इस कहानी का संबंध है , मैं इसे पसन्द नहीं कर पा रहा हूं। फर्क दृष्टिकोण का है। मुझे यह समझ नहीं आ रहा कि आखिर योगेश छिब्बर पाठकों को इस कहानी के माध्यम से संदेश क्या देना चाह रहे हैं। जो संदेश मुझे इस कहानी से मिलता प्रतीत हो रहा है वही यदि इस कहानी का वास्तविक संदेश है तो मुझे यह संदेश न तो जनहित में लगता है और न ही स्वीकार्य ही है।