भावनाओं से संचालित और ध्रुवीकृत व्यवस्था में दंगों की राजनीति भी सापेक्ष तरीके से चलती है। इसीलिए गुजरात दंगों के बारे में होने वाली किसी टेलीविजन बहस में 1984 के सिख-विरोधी दंगों का पक्ष भी रखा जाता है। ऐसा न करने पर आप पर पक्षपाती होने का आरोप लग सकता है। यह लगभग वैसा ही है मानो विरोधी पक्ष यह कहे कि ‘दंगों से निपटने में हमारा रिकॉर्ड आपसे बेहतर है क्योंकि ‘हमारे दंगों’ में अपेक्षाकृत कम लोग मारे गए।’ यह देखकर लगता है मानो हिंसा जैसे भयावह कृत्य का अपराधबोध किसी ऐसे ही दूसरे कृत्य से जोड़ने से मिट जाएगा। हमें दंगे की भेंट चढ़ने वाली हरेक जिंदगी को देश पर एक दाग की तरह देखना चाहिए, लेकिन यह बात टीवी बहस के गरमागरम माहौल में गुम होकर रह जाती है। फिलहाल गुजरात और असम के दंगों के बीच ऐसी ही तुलना हो रही है। हाल के हफ्तों में अनेक मंचों से इस तरह के सवाल उठे कि ‘आखिर मीडिया ने असम की हिंसा को उतनी ही तीव्रता से कवर क्यों नहीं किया, जैसा गुजरात को किया गया था?’ एक लिहाज से चौबीसों घंटे चलने वाले खबरिया चैनलों के दौर में यह सवाल जायज भी है, लेकिन इसमें कहीं न कहीं यह कुटिल संदेश भी छि