घर से चले थे घर का पता साथ लेके हम ! चल पड़े थे काफिले संग दूर तलख हम ! मिलते भी रहें राही बदल बदल के राह मै , रुकते भी गये अपने काफिले के संग हम ! अपनी अपनी मंजिल पर मुसाफिर ठहर गये , और दूर तलख सब किनारों मै खो गये ! मंजिल पर अब अकेले से हो गये थे हम ! राहें थी अलग -अलग कहीं खो गये थे हम ! फिर हाथ पकड़ कर किसी ने थाम तो लिया , पता तो था अलग सा पर आराम सा लगा ! अब दिल की खवाइशों को सुकूं सा मिला ! जैसे किसी नदी को सागर का पता मिला ! अब अपनी राह पर फिर चल पड़े हैं हम ! अब तो सफ़र तन्हां ही तय करने लगे है हम ! क्युकी हम जान गये साथ न कोई आया था ! और जानतें हैं की साथ न अब कोई जायेगा !