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Showing posts from August 17, 2009
सभी सबुद्ध जनों को मेरा प्रणाम, दरअसल आज अपनी रचना के बहाने मैं इस वृहद् मंच के सहयोग की आशा लिये, एक बात बाँटना चाह रहा हूँ, मित्रो एक छोटी अशासकीय संस्था है 'सुकून' जो नई दिल्ली के कुछ छात्रों द्वारा शुरू की गयी हैं जिसने अपनी लक्ष्य साधना अपने शब्दों में कहूँ तो देश की सामजिक एक आर्थिक सबलता को कसौटी पर रख कर शुरू की हैं.उनके कार्य और उद्देश्य ने मुझे भी खासा प्रभावित किया और मैं भी इस संस्था के साथ जुड़कर संकल्प यात्रा में लग गया. मित्रो हमारी संस्था का उद्देश्य लोगो में 'स्वयंसेवा' का भाव जगाना हैं,मेरा खुद भी यही मानना हैं की विकास फिर भले वो किसी भी स्तर का हो प्रादेशिक,राष्ट्रीय या फिर अंतर्राष्ट्रीय अपनी सबसे बड़ी मांग रखता हैं स्वयं सेवा या कहे जागरूकता. क्यूंकि कोई भी इन्सान जितनी श्रेष्ठता से स्वयं की मदद कर सकता हैं,दूसरा कोई उसके लिए नहीं कर सकता, हमारा लक्ष्य भी यही हैं ,की सभी व्यक्ति अपने कर्तव्यो के प्रति जागरूक हो,और इस संकल्प यज्ञ में अपनी आहुति दे,और उन्हें सिर्फ एक काम दिया जाये की वे समाज की सबसे छोटी इकाई पर अति महत्वपूर्ण इकाई जो की उनकी एकात्म

लो क सं घ र्ष !: निर्जीव बीज यदि है तो...

निर्जीव बीज यदि है तो - अंकुर कैसे उग आता ? लघु या विशाल संबोधन यह समझ नही मैं पाता ॥ हो समष्टि , स्वर्ग , पाताल या दिग - दिगन्त के पट में । है एक शक्ति तो निश्चित , अनवरत प्रवासी घट में ॥ प्रतिपल जीवन समझाता , है डोर किसी के कर में । रोदन या हास वही तो , देता प्रत्येक अधर में ॥ डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल ' राही '

ग़ज़ल

मैं तेरे दिल को सुकून दूँगा तेरे दिल नज़र को करार दूँगा बस अपने दिल में जगह दे मुझको मैं तेरी दुनिया संवार दूँगा कोई नज़र में बसा ले मुझको नही नही यह मुझे गवारा तेरी अमानत है यह प्यार मेरा तुझे यह इख्तियार दूँगा खुश परस्तों से राबता क्या गरज बन्दों से वास्ता क्या जो मेरे सुख दुःख को अपना समझे उसी को अपना प्यार दूँगा हज़ार मेरी वफ़ा से दामन बचाओ लेकिन मुझे यकीन है तुम्हारे दिल में भी किसी दिन वफ़ा का जज्बा उभार दूँगा तुम्हारी यह जान यह इज्ज़त हकीकतन है मेरी बदौलत जहाँ में खातिर फिरो गे ठोकर मई जब नज़र से उतार दूँगा "अलीम" ज़माना कदम कदम पर हज़ार कांटे बिछाएं फिर भी यह मेरा वादा है ज़िन्दगी से की रूप तेरा निखार दूँगा

गौरैया नही दिखाई है॥

छोटी चिडिया आँगन में आकर॥ चावल के किनके चुगती थी॥ चारो तरफ़ फुदक फुदक के॥ ची ची ची ची करती ही॥ उस समय आँगन में मेरे ॥ अद्भुत शोभा होती थी॥ पता नही क्या कारन है अब॥ शायद चावल में नही मिठाई है॥ कई महीने बीत गए ॥ गौरैया नही दिखाई है॥