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Showing posts from June 23, 2010

पित्तृ दिवस पर : स्मृति गीत / शोक गीत --संजीव 'सलिल'

पित्तृ  दिवस पर : स्मृति गीत / शोक गीत संजीव 'सलिल' * याद आ रही पिता तुम्हारी याद आ रही पिता तुम्हारी... * तुम सा कहाँ मनोबल पाऊँ? जीवन का सब विष पी पाऊँ. अमृत बाँट सकूँ स्वजनों को- विपदा को हँस सह मुस्काऊँ. विधि ने काहे बात बिगारी? याद आ रही पिता तुम्हारी... * रही शीश पर जब तव छाया. तनिक न विपदा से घबराया. आँधी-तूफां जब-जब आये- हँसकर मैंने गले लगाया. बिना तुम्हारे हुआ भिखारी. याद आ रही पिता तुम्हारी... * मन न चाहता खुशी मनाऊँ. कैसे जग को गीत सुनाऊँ? सपने में आकर मिल जाओ- कुछ तो ढाढस- संबल पाऊँ. भीगी अँखियाँ होकर खारी. याद आ रही पिता तुम्हारी... *  

लो क सं घ र्ष !: अतिवाद की लड़ाई - 2

राजशाही जब खारिज की गयी जोकि एक समय तक ईश्वर प्रदत्त मानी जाती थी और यह तय हुआ कि अब राजाओं को जनता चुनेगी तो संसदीय लोकतंत्र की स्थापना, सैद्धांतिक तौर पर लोगों द्वारा ईश्वर के लिये खारिजनामा ही था, क्योंकि राजा उसके प्रतिनिधि होते थे और राजा को खा़रिज करना इश्वर को खारिज करने से कहीं कम न था बल्कि वह एक प्रत्यक्ष भय था. इस नयी व्यवस्था के बारे में प्रस्फुटित होने वाले विचार जरूरी नहीं कि वे केवल लिंकन के ही रहे हों पर ये विचार राजशाही के लिये अतिवादी ही थे. राजशाही के समय का यही अतिवाद आज हमारे समय के लोकतंत्र में परिणित हुआ. अतिवाद हमेशा समय सापेक्ष रहा है पर वह भविष्य की संरचना के निर्माण का भ्रूण विचार भी रहा जिसे ऐतिहासिक अवलोकन से समझा जा सकता है. ज्योतिबाफुले, सावित्रीबाई फुले, राजाराम मोहनराय जैसे कितने नाम हैं जो लोग अपने समय के अतिवादी ही थे. इन्हें आज का माओवादी भी कह सकते हैं चूंकि ये संरचना प्रक्रिया में विद्रोह कर रहे थे एक दमनकारी व शोषणयुक्त प्रथा का अंत करने में जुटे थे. भविष्य में जब समाज के मूल्यबोध बदले तो इन्हें सम्मानित किया गया, क्या नेपाल में ऐसा नहीं हुआ. सत्त

जाना है स्कूल रे॥

खेल तमाशा बहुत हो गया॥ बीत गया यह जून रे॥ कल से बस्ता पीठ पर होगा॥ जाना है स्कूल रे॥ पहले दिन अपनी क्लास में॥ सबसे हाथ मिलाऊगा॥ अपनी प्यारी टीचर से॥ छुट्टी की बात बताऊगा॥ जब घर पर मै करू पढाई॥ सब को मिले सुकून रे॥