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"सिर्फ अम्मा ही क्यों ? पिताजी क्यों नहीं?"

मित्रों,

 

"सिर्फ अम्मा ही क्यों ? पिताजी क्यों नहीं?" हमारे अनेक पाठकों ने हमारे सम्मुख प्रश्न किया है कि आप www.the-saharanpur.com/amma.html  पर केवल "अम्मा" को ही समर्पित रचनायें छाप कर क्यों रुक गये हैंक्या हमारे जीवन में पिता का स्थान अम्मा से कमतर होता हैअब आप ही बताइये, हम अपनी दो आंखों में किसे से ज्यादा महत्वपूर्ण मान सकते हैं भला?   पर हमारे सुधि पाठकों की यह प्यार भरी शिकायत जायज़ है और इसीलिये आज हम एक अद्‌भुत काव्य रचना से अपने पूर्वजों को प्रणाम करने का यह क्रम पुनः शुरु कर रहे हैं।  उम्मीद है कि आप लोग अपने पूज्य पिता श्री के प्रति अपने भाव-पुष्प समर्पित करने में पीछे नहीं रहेंगे।  तो मित्रों, ये रही इस अभियान की प्रथम रचना !

 

मेरे बाबूजी !

 

सौ सुमनों का एक हार हैं मेरे बाबूजी,

बाहर भीतर सिर्फ प्यार हैं मेरे बाबूजी !

 

सारे घर को जिसने अपने स्वर से बांध रखा,

उस वीणा का मुख्य तार हैं मेरे बाबूजी !

 

पूरी रचना पढ़ने के लिये क्लिक करें >>>>

 

यदि आपने अम्मा को समर्पित कवितायें जो हमें प्राप्त हुईं, अभी तक न पढ़ी हों तो आप यहां पढ़ सकते हैं।  चाहें तो अपनी कविता भी भेज सकते हैं।

 

Editor
The Saharanpur Dot Com

w |  www.thesaharanpur.com

E   |   info@thesaharanpur.com

M | +91 9837014781

 

 

 

Comments

  1. bahut hi sundar bhavon se saji kavita hai.
    kai mahino pahle maine bhi pita ko samarpit ek post likhi thi agar aap uchit samjhe to use jod lein main bhejti hun.
    मैं पिता हूँ तो क्या मुझमें दिल नही--------शीर्षक

    मैं पिता हूँ तो क्या मुझमें दिल नही
    क्यूँ मुझे कमतर समझा जाता है
    क्या मुझमें वो जज़्बात नही
    क्या मुझमें वो दर्द नही
    जो बच्चे के कांटा चुभने पर
    किसी माँ को होता है
    क्या मेरा वो अंश नही
    जिसके लिए मैं जीता हूँ
    मुझे भी दर्द होता है
    जब मेरा बच्चा रोता है
    उसकी हर आह पर
    मेरा भी सीना चाक होता है
    मगर मैं दर्शाता नही
    तो क्या मुझमें दिल नही
    कोई तो पूछो मेरा दर्द
    जब बेटी को विदा करता हूँ
    जिसकी हर खुशी के लिए
    पल पल जीता और मरता हूँ
    उसकी विदाई पर
    आंसुओं को आंखों में ही
    जज्ब करता हूँ
    माँ तो रोकर हल्का हो जाती है
    मगर मेरे दर्द से बेखबर दुनिया
    मुझको न जान पाती है
    कितना अकेला होता हूँ तब
    जब बिटिया की याद आती है
    मेरा निस्वार्थ प्रेम
    क्यूँ दुनिया समझ न पाती है
    मेरे जज़्बात तो वो ही हैं
    जो माँ के होते हैं
    बेटा हो या बेटी
    हैं तो मेरे ही जिगर के टुकड़े वो
    फिर क्यूँ मेरे दिल के टुकडों को
    ये बात समझ न आती है
    मैं ज़िन्दगी भर
    जिनके होठों की हँसी के लिए
    अपनी हँसी को दफनाता हूँ
    फिर क्यूँ उन्हें मैं
    माँ सा नज़र ना आता हूँ




    वन्दना द्वारा 1:28 AM पर Mar 25, 2009 को पोस्ट किया गया

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--- संजय सेन सागर

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