मै आशा की बनी निराशा॥
जो पक्के महल बनाती हूँ॥
अपने हाथो से कस - कस कर॥
फावडे कूदार चलाती हूँ॥
सर पर लेके सीमेंट की बोरी॥
चढ़ जाती हूँ झज्जे पर॥
शाम को वापस आती हूँ जब॥
रोटी बनाती आड्डे पर॥
पीठ पर लादे बच्चे को ॥
छत पर दूध पिलाती हूँ॥
अपने लिए न घर बँगला है॥
न डनलप के मोटे गद्दे॥
लिए चटाई सो लेती हूँ॥
लग जाते मिट्टी अव भद्दे॥
बच्चो को जब सर्द लगे तो॥
लकडी की आग तपाती हूँ॥
जो पक्के महल बनाती हूँ॥
अपने हाथो से कस - कस कर॥
फावडे कूदार चलाती हूँ॥
सर पर लेके सीमेंट की बोरी॥
चढ़ जाती हूँ झज्जे पर॥
शाम को वापस आती हूँ जब॥
रोटी बनाती आड्डे पर॥
पीठ पर लादे बच्चे को ॥
छत पर दूध पिलाती हूँ॥
अपने लिए न घर बँगला है॥
न डनलप के मोटे गद्दे॥
लिए चटाई सो लेती हूँ॥
लग जाते मिट्टी अव भद्दे॥
बच्चो को जब सर्द लगे तो॥
लकडी की आग तपाती हूँ॥
shobhna ji is blog pe pahali baar aai hui rachna padhkar man khush ho gaya ,har shabd man ko sparsh karte hai .ati sundar .
ReplyDeleteआपकी इस रचना में श्रमिक वर्ग को तरीक़े से पहचानने की कोशिश नज़र आती है।
ReplyDeleteआप सभी लोगो को धन्यवाद...
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