हिन्दुस्तान का दर्द द्वारा आयोजित बहस का आगाज़ कर रहे है हम दो कविताओं के माध्यम से जिसे लिखा है ! संजीव बर्मा जी ने एवं दूसरी रचना को सजाया है विनोद बिस्सा जी ने तो पढिये इन कविताओं को और दीजिये बहस पर अपनी राय !!
तुमको मालूम ही नहीं, शोलों की तासीर.
तुम क्या जानो ख्वाब की कैसे हो ताबीर?
बहरे मिलकर सुन रहे, गूंगों की तक़रीर,
बिलख रही जम्हूरियत, सिसक रही है पीर.
दहशतगर्दों की हुई, है जब से तक्सीर.
वतनपरस्ती हो गयी, खतरनाक तक्सीर.
फेंक द्रौपदी खुद रही फाड़-फाड़ निज चीर.
भीष्म द्रोण कुरु कृष्ण कृप, घूरें पांडव वीर.
हिम्मत मत हारें- करें, सब मिलकर तदबीर.
प्यार-मुहब्बत ही रहे, मज़हब की तफसीर.
सपनों को साकार कर, धरकर मन में धीर.
हर बाधा-संकट बने, पानी की प्राचीर.
हिंद और हिंदी करे, दुनिया को तन्वीर.
बेहतर से बेहतर बने, इंसान की तस्वीर.
हाय! सियासत रह गयी, सिर्फ स्वार्थ-तज़्वीर.
खिदमत भूली कर रही, बातों की तब्जीर.
तरस रहा मन 'सलिल' दे, वक्त एक तब्शीर.
शब्दों के आगे झुकी, जालिम की शमशीर.
-आचार्य संजीव 'सलिल', संपादक दिव्य नर्मदा
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वर्मा जी आगाज़ मे ही मजा आ गया अच्छा लिखा है !
ReplyDeleteverma ji...ka aagaj,hum yuva log ko ek himamat deti hai.
ReplyDeleteआपकी रचना पड़कर सुखद अनुभव हुआ
ReplyDeleteअच्छी नज्म
आतंकवाद का खात्मा जरुरी है !
मैं हूँ , मजबूर , बेहतर है , मुझे मजबूर रहने दो ,
ReplyDeleteये दिन नाज़ुक बहुत हैं मुझको तुमसे दूर रहने दो .
जो तुमको , चाहता हूँ , तो बताना क्या जरूरी है ,
दिखावे के हैं ' ये दस्तूर ' , ' ये दस्तूर ' रहने दो .