14 सितम्बर हिन्दी दिवस पर विशेष लेख-
विश्व में तीसरे स्थान पर हिन्दी
क्यों नहीं बन पाई राष्ट्रभाषा?
भाषा किसी भी राष्ट्र की सांस्कृतिक धरोहर और पहचान होती है। इसके पीछे कई ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक और तकनीकी कारण हैं। आज विश्व की भाषाओं की भीड़ में हिंदी का स्थान शीर्ष तीन में है। यह केवल बोलने वालों की संख्या से ही नहीं, बल्कि साहित्यिक वैभव, प्रवासी भारतीयों के योगदान, फ़िल्मों और तकनीक के विस्तार से भी वैश्विक मंच पर स्थापित है। आने वाले वर्षों में हिंदी न केवल एशिया बल्कि विश्व की प्रमुख सांस्कृतिक और डिजिटल भाषा के रूप में और भी मज़बूती से उभरेगी। हिंदी आज केवल भारतीय उपमहाद्वीप तक सीमित नहीं है, बल्कि यह वैश्विक संवाद, सांस्कृतिक आदान-प्रदान और डिजिटल क्रांति की भाषा बन चुकी है। बावजूद इसके ली हमारे भारत देश की राष्ट्रभाषा क्यों नहीं बन पा रही। आइये इसकी पड़ताल करते हैं। सबसे पहले हमें औपनिवेशिक काल की ओर देखना होगा। अंग्रेज़ी ने भारत की शिक्षा, प्रशासन और न्याय प्रणाली पर गहरा असर डाला। स्वतंत्रता के बाद भी अंग्रेज़ी का वर्चस्व कायम रहा, जबकि हिंदी को अपेक्षित बढ़ावा नहीं मिल पाया। इसका परिणाम यह हुआ कि उच्च शिक्षा, विज्ञान और प्रौद्योगिकी जैसे क्षेत्रों में अंग्रेज़ी की भूमिका बनी रही, और हिंदी पिछड़ती रही।
दूसरा कारण भारत की भाषायी विविधता है। भारत एक बहुभाषी राष्ट्र है जहाँ तमिल, तेलुगु, बंगला, मराठी, पंजाबी जैसी अनेक भाषाएँ अपने-अपने क्षेत्रों में मज़बूत स्थिति रखती हैं। ऐसे परिदृश्य में हिंदी को एकमात्र राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार करना आसान नहीं रहा। कई बार हिंदी को “थोपने” का आरोप भी लगा, जिससे दक्षिण और पूर्वी राज्यों में इसका विरोध हुआ। इस स्थिति में अंग्रेज़ी को समझौते के रूप में समानांतर स्थान मिल गया।
तीसरी बड़ी बाधा वैश्विक प्रसार की कमी है। स्पेनिश, चीनी और अंग्रेज़ी जैसी भाषाएँ अनेक देशों में बोली जाती हैं, जबकि हिंदी का प्रसार मुख्यतः भारत और प्रवासी भारतीयों तक सीमित है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदी के प्रति जिज्ञासा तो है, पर इसे आर्थिक और कूटनीतिक भाषा का दर्जा नहीं मिल पाया।
चौथा कारण तकनीकी और शैक्षणिक सामग्री का अभाव है। विज्ञान, प्रबंधन और शोध कार्यों में लंबे समय तक हिंदी में संसाधन उपलब्ध नहीं रहे। परिणामस्वरूप विद्यार्थियों और विद्वानों ने अंग्रेज़ी को ही प्राथमिकता दी।
फिर भी, हिंदी का साहित्य, सिनेमा और संगीत विश्व में लोकप्रिय हैं। बॉलीवुड फिल्मों ने हिंदी शब्दों और भावों को विदेशों तक पहुँचाया है। इंटरनेट और सोशल मीडिया ने भी हिंदी को वैश्विक मंच पर नई पहचान दी है।
1. बोलने वालों की संख्या-हिंदी विश्व की तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। लगभग 60 करोड़ लोग इसे मातृभाषा के रूप में बोलते हैं। लगभग 120 करोड़ लोग किसी न किसी रूप में हिंदी समझते और प्रयोग करते हैं। यदि “हिंदी-उर्दू” या “हिंदुस्तानी” को संयुक्त रूप से देखें, तो इसके बोलने वालों की संख्या 80 करोड़ से अधिक है। विश्व की प्रमुख भाषाओं की सूची में अंग्रेज़ी और चीनी (मंदारिन) के बाद हिंदी का स्थान आता है। हिंदी फ़िल्में और बॉलीवुड गीत भी हिंदी के वैश्विक प्रसार का बड़ा माध्यम हैं। भारत के अतिरिक्त नेपाल, मॉरीशस, फ़िजी, त्रिनिदाद, सूरीनाम, गुयाना, संयुक्त अरब अमीरात, अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन आदि देशों में बड़े हिंदी भाषी समुदाय हैं।
2. साहित्यिक समृद्धि-हिंदी का साहित्यिक भंडार अत्यंत व्यापक है। भक्तिकाल, रीतिकाल, आधुनिक काल से लेकर समकालीन रचनाओं तक हिंदी ने कविता, उपन्यास, नाटक, निबंध और पत्रकारिता में गहरी छाप छोड़ी है। तुलसीदास, सूरदास, प्रेमचंद, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह ‘दिनकर’ से लेकर समकालीन कवियों और लेखकों ने इसे वैश्विक स्तर पर प्रतिष्ठा दिलाई।
3. प्रवासी भारतीयों का योगदान-प्रवासी भारतीयों ने हिंदी को विदेशों में जीवित और प्रबल बनाए रखा है। मॉरीशस में हिंदी आधिकारिक भाषा है। फ़िजी में ‘फ़िजी हिंदी’ विकसित हुई है। अमेरिका और यूरोप में हिंदी साहित्य सम्मेलन, सांस्कृतिक आयोजन और विश्वविद्यालयों में हिंदी विभाग इसकी पहचान को और मजबूत करते हैं।
4. तकनीक और मीडिया-डिजिटल युग में हिंदी की पहुँच और अधिक बढ़ी है। सोशल मीडिया, यूट्यूब, ब्लॉगिंग और ऑनलाइन पत्रकारिता ने हिंदी को ग्लोबल डिजिटल भाषा का दर्जा दिया है। गूगल, माइक्रोसॉफ़्ट और अन्य बड़ी कंपनियाँ अपने सॉफ़्टवेयर और सेवाओं में हिंदी को प्रमुखता दे रही हैं। इंटरनेट पर हिंदी सामग्री का विस्तार तेजी से हुआ है। मेटा जैसी बड़ी टेक कंपनी ने हिंदी को अपनी सेवाओं में शामिल कर इसे डिजिटल वैश्विक भाषा बना दिया है। “भाषाई इंटरनेट रिपोर्ट (2023)” के अनुसार, भारत के 55 प्रतिशत इंटरनेट उपयोगकर्ता हिंदी में सामग्री पसंद करते हैं।
5. आधिकारिक मान्यता-संयुक्त राष्ट्र में हिंदी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलाने के प्रयास निरंतर जारी हैं। कई देशों में हिंदी का अध्ययन विश्वविद्यालय स्तर पर कराया जा रहा है। 1975 से अब तक 12 विश्व हिंदी सम्मेलन आयोजित किए जा चुके हैं, जिनमें दुनिया भर के विद्वान सम्मिलित होते हैं। ब्रिटेन, रूस, जापान, जर्मनी और अमेरिका के विश्वविद्यालयों में हिंदी अध्ययन और शोध कार्य किए जा रहे हैं।
निष्कर्षतः, हिंदी में अपार संभावनाएँ हैं। यदि तकनीकी, शिक्षा और अंतरराष्ट्रीय व्यापार के क्षेत्र में हिंदी को अधिक प्रोत्साहन मिले और भारत के भीतर भाषायी सहमति का वातावरण बने, तो हिंदी निश्चित ही विश्व पटल पर राष्ट्रभाषा का स्वरूप ग्रहण कर सकती है। समाप्त
लेखक
डॉ. चेतन आनंद
(कवि एवं पत्रकार)
विश्व में तीसरे स्थान पर हिन्दी
क्यों नहीं बन पाई राष्ट्रभाषा?
भाषा किसी भी राष्ट्र की सांस्कृतिक धरोहर और पहचान होती है। इसके पीछे कई ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक और तकनीकी कारण हैं। आज विश्व की भाषाओं की भीड़ में हिंदी का स्थान शीर्ष तीन में है। यह केवल बोलने वालों की संख्या से ही नहीं, बल्कि साहित्यिक वैभव, प्रवासी भारतीयों के योगदान, फ़िल्मों और तकनीक के विस्तार से भी वैश्विक मंच पर स्थापित है। आने वाले वर्षों में हिंदी न केवल एशिया बल्कि विश्व की प्रमुख सांस्कृतिक और डिजिटल भाषा के रूप में और भी मज़बूती से उभरेगी। हिंदी आज केवल भारतीय उपमहाद्वीप तक सीमित नहीं है, बल्कि यह वैश्विक संवाद, सांस्कृतिक आदान-प्रदान और डिजिटल क्रांति की भाषा बन चुकी है। बावजूद इसके ली हमारे भारत देश की राष्ट्रभाषा क्यों नहीं बन पा रही। आइये इसकी पड़ताल करते हैं। सबसे पहले हमें औपनिवेशिक काल की ओर देखना होगा। अंग्रेज़ी ने भारत की शिक्षा, प्रशासन और न्याय प्रणाली पर गहरा असर डाला। स्वतंत्रता के बाद भी अंग्रेज़ी का वर्चस्व कायम रहा, जबकि हिंदी को अपेक्षित बढ़ावा नहीं मिल पाया। इसका परिणाम यह हुआ कि उच्च शिक्षा, विज्ञान और प्रौद्योगिकी जैसे क्षेत्रों में अंग्रेज़ी की भूमिका बनी रही, और हिंदी पिछड़ती रही।
दूसरा कारण भारत की भाषायी विविधता है। भारत एक बहुभाषी राष्ट्र है जहाँ तमिल, तेलुगु, बंगला, मराठी, पंजाबी जैसी अनेक भाषाएँ अपने-अपने क्षेत्रों में मज़बूत स्थिति रखती हैं। ऐसे परिदृश्य में हिंदी को एकमात्र राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार करना आसान नहीं रहा। कई बार हिंदी को “थोपने” का आरोप भी लगा, जिससे दक्षिण और पूर्वी राज्यों में इसका विरोध हुआ। इस स्थिति में अंग्रेज़ी को समझौते के रूप में समानांतर स्थान मिल गया।
तीसरी बड़ी बाधा वैश्विक प्रसार की कमी है। स्पेनिश, चीनी और अंग्रेज़ी जैसी भाषाएँ अनेक देशों में बोली जाती हैं, जबकि हिंदी का प्रसार मुख्यतः भारत और प्रवासी भारतीयों तक सीमित है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदी के प्रति जिज्ञासा तो है, पर इसे आर्थिक और कूटनीतिक भाषा का दर्जा नहीं मिल पाया।
चौथा कारण तकनीकी और शैक्षणिक सामग्री का अभाव है। विज्ञान, प्रबंधन और शोध कार्यों में लंबे समय तक हिंदी में संसाधन उपलब्ध नहीं रहे। परिणामस्वरूप विद्यार्थियों और विद्वानों ने अंग्रेज़ी को ही प्राथमिकता दी।
फिर भी, हिंदी का साहित्य, सिनेमा और संगीत विश्व में लोकप्रिय हैं। बॉलीवुड फिल्मों ने हिंदी शब्दों और भावों को विदेशों तक पहुँचाया है। इंटरनेट और सोशल मीडिया ने भी हिंदी को वैश्विक मंच पर नई पहचान दी है।
1. बोलने वालों की संख्या-हिंदी विश्व की तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। लगभग 60 करोड़ लोग इसे मातृभाषा के रूप में बोलते हैं। लगभग 120 करोड़ लोग किसी न किसी रूप में हिंदी समझते और प्रयोग करते हैं। यदि “हिंदी-उर्दू” या “हिंदुस्तानी” को संयुक्त रूप से देखें, तो इसके बोलने वालों की संख्या 80 करोड़ से अधिक है। विश्व की प्रमुख भाषाओं की सूची में अंग्रेज़ी और चीनी (मंदारिन) के बाद हिंदी का स्थान आता है। हिंदी फ़िल्में और बॉलीवुड गीत भी हिंदी के वैश्विक प्रसार का बड़ा माध्यम हैं। भारत के अतिरिक्त नेपाल, मॉरीशस, फ़िजी, त्रिनिदाद, सूरीनाम, गुयाना, संयुक्त अरब अमीरात, अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन आदि देशों में बड़े हिंदी भाषी समुदाय हैं।
2. साहित्यिक समृद्धि-हिंदी का साहित्यिक भंडार अत्यंत व्यापक है। भक्तिकाल, रीतिकाल, आधुनिक काल से लेकर समकालीन रचनाओं तक हिंदी ने कविता, उपन्यास, नाटक, निबंध और पत्रकारिता में गहरी छाप छोड़ी है। तुलसीदास, सूरदास, प्रेमचंद, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह ‘दिनकर’ से लेकर समकालीन कवियों और लेखकों ने इसे वैश्विक स्तर पर प्रतिष्ठा दिलाई।
3. प्रवासी भारतीयों का योगदान-प्रवासी भारतीयों ने हिंदी को विदेशों में जीवित और प्रबल बनाए रखा है। मॉरीशस में हिंदी आधिकारिक भाषा है। फ़िजी में ‘फ़िजी हिंदी’ विकसित हुई है। अमेरिका और यूरोप में हिंदी साहित्य सम्मेलन, सांस्कृतिक आयोजन और विश्वविद्यालयों में हिंदी विभाग इसकी पहचान को और मजबूत करते हैं।
4. तकनीक और मीडिया-डिजिटल युग में हिंदी की पहुँच और अधिक बढ़ी है। सोशल मीडिया, यूट्यूब, ब्लॉगिंग और ऑनलाइन पत्रकारिता ने हिंदी को ग्लोबल डिजिटल भाषा का दर्जा दिया है। गूगल, माइक्रोसॉफ़्ट और अन्य बड़ी कंपनियाँ अपने सॉफ़्टवेयर और सेवाओं में हिंदी को प्रमुखता दे रही हैं। इंटरनेट पर हिंदी सामग्री का विस्तार तेजी से हुआ है। मेटा जैसी बड़ी टेक कंपनी ने हिंदी को अपनी सेवाओं में शामिल कर इसे डिजिटल वैश्विक भाषा बना दिया है। “भाषाई इंटरनेट रिपोर्ट (2023)” के अनुसार, भारत के 55 प्रतिशत इंटरनेट उपयोगकर्ता हिंदी में सामग्री पसंद करते हैं।
5. आधिकारिक मान्यता-संयुक्त राष्ट्र में हिंदी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलाने के प्रयास निरंतर जारी हैं। कई देशों में हिंदी का अध्ययन विश्वविद्यालय स्तर पर कराया जा रहा है। 1975 से अब तक 12 विश्व हिंदी सम्मेलन आयोजित किए जा चुके हैं, जिनमें दुनिया भर के विद्वान सम्मिलित होते हैं। ब्रिटेन, रूस, जापान, जर्मनी और अमेरिका के विश्वविद्यालयों में हिंदी अध्ययन और शोध कार्य किए जा रहे हैं।
निष्कर्षतः, हिंदी में अपार संभावनाएँ हैं। यदि तकनीकी, शिक्षा और अंतरराष्ट्रीय व्यापार के क्षेत्र में हिंदी को अधिक प्रोत्साहन मिले और भारत के भीतर भाषायी सहमति का वातावरण बने, तो हिंदी निश्चित ही विश्व पटल पर राष्ट्रभाषा का स्वरूप ग्रहण कर सकती है। समाप्त
लेखक
डॉ. चेतन आनंद
(कवि एवं पत्रकार)
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आपका बहुत - बहुत शुक्रिया जो आप यहाँ आए और अपनी राय दी,हम आपसे आशा करते है की आप आगे भी अपनी राय से हमे अवगत कराते रहेंगे!!
--- संजय सेन सागर