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रिश्तों की गरिमा की पुनर्स्थापना का यक्ष प्रश्न



अशोक मधुप

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आज जगह – जगह रिश्तों का खून हो रहा है। हैं।हालत यह है कि बाप बेटी को मार रहा है ।बेटी बाप को मार रही है ।पति-पत्नी को मार रहा है। पत्नी −पति की हत्याकर रही है।भाई− बहिन को मारते नही झिझक रहा तो भाई की हत्या करते बहन के हाथ नही कांप रहे।मां − बेटे और बेटी का हत्या कर रही है तो बेटा और बेटी मां को ही नही बाप की भी हत्या कर रहे हैं।ऐसा लगता है कि भारत की परिवार व्यवस्था टूट चुकी है। रिश्तों पर स्वार्थ हावी हो गया है। 

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आज समाज का सबसे दुखद और चिंताजनक पहलू यह है कि जिन रिश्तों को सबसे पवित्र और मजबूत माना जाता है, वहीं रिश्ते टूट रहे हैं और हिंसा का शिकार हो रहे हैं। समाचार पत्र और टीवी चैनल लगभग रोज़ाना ऐसी ख़बरें दिखाते हैं।हालत यह है कि बाप बेटी को मार रहा है ।बेटी बाप को मार रही है ।पति-पत्नी को मार रहा है। पत्नी −पति की हत्याकर रही है।भाई− बहिन को मारते नही झिझक रहा तो भाई की हत्या करते बहन के हाथ नही कांप रहे।मां बेटे और बेटी का हत्या कर रही है तो बेटा और बेटी मां को ही नही बाप की भी हत्या कर रहे हैं।ऐसा लगता है कि भारत की परिवार व्यवस्था टूट चुकी है। रिश्तों पर स्वार्थ हावी हो गया है। व्यक्तिवाद ने समाज पर अपना अधिकार कर लिया।

इन घटनाओं ने यह प्रश्न खड़ा कर दिया है कि आखिर इंसान को इतना निर्दयी और क्रूर कौन बना रहा है? जिन संबंधों में विश्वास, अपनापन और प्रेम होना चाहिए, वहां नफरत, तनाव और हिंसा क्यों बढ़ रही है?लगता है कि भारतीय परिवार टूटने  का असर यह हुआ है कि  एकल परिवार अब अपने तक सीमित होने की जद्दोजहद में  है।पहले संयुक्त परिवार होते है।सामूहिक चूल्हा होता था। सामूहिक खान − पान था। हमारे बचपन तक खाना  रसोई के पास जमीन पर बैठकर जीमा जाता था।परिवार के बुजुर्ग बच्चे साथ बैठकर भोजन करते थे। सब दुख− सुख के साथी थे।प्रायः जरूरत के सामान सब घर के आसपास मिल जाते थे।धीरे – धीरे  परिवार की जरूरते बढ़ने लगीं। युवक रोजगार के लिए बाहर जाने लगे।धीरे− धीरे उनके साथ पत्नी और बच्चे नौकरी वाले स्थान पर रहने लगे। आज आदमी अपने तक सीमित होकर रह गया। व्यक्तिवाद हावी हो गया।

लगता है कि जैसे समाज ने सारे रिश्ते जंगल बनाकर रहेंगे। हम आदि व्यवस्था से भी आदम की ओर बढ़ते जा रहे हैं ।इन सब रिश्तों को दोबारा कैसे जिंदा किया जाए इस पर विचार करना

होगा।पहले के समय में संयुक्त परिवार होते थे। परिवार के बुज़ुर्ग विवादों को संभालते, बच्चों को संस्कार देते और छोटी-छोटी गलतियों को समय रहते सुधार लेते। आज अधिकांश परिवार न्यूक्लियर फैमिलीयानी छोटे परिवार बन गए हैं। ऐसे में

पति-पत्नी के झगड़े सुलझाने वाला कोई नहीं होता।माता-पिता और बच्चों के बीच पीढ़ीगत संवाद टूट गया है।अकेलापन और अवसाद  घर कर जाता है।जब संवाद टूटता है तो ग़लतफ़हमियाँ बढ़ती हैं और छोटी-सी बात हिंसा तक पहुँच जाती है।

पहले मोहल्ले और गाँव के लोग भी परिवार के सदस्य जैसे होते थे। यदि किसी परिवार में कलह होती थी तो पड़ोसी हस्तक्षेप करके सुलह करा देते थे। आज लोग एक-दूसरे से अलग-थलग हो गए हैं।निजताके नाम पर लोग किसी के मामलों में बोलना नहीं चाहते।इस चुप्पी का नतीजा है कि छोटे विवाद हिंसक रूप ले लेते हैं।परिवारों में हिंसा का एक बड़ा कारण आर्थिक तनाव भी है।महँगाई, बेरोज़गारी और आर्थिक असमानता ने लोगों को चिड़चिड़ा बना दिया है।पिता बेरोज़गार बेटे पर गुस्सा निकालते हैं, बेटा अपमानित होकर पिता की हत्या तक कर देता है।पति-पत्नी के बीच आर्थिक जिम्मेदारियों को लेकर झगड़े होते हैं जो कभी-कभी खून-खराबे में बदल जाते हैं।शराब, ड्रग्स और अन्य नशे परिवारिक हिंसा की जड़ हैं। नशे में व्यक्ति का विवेक खत्म हो जाता है और वह अपने ही परिवार को मारने तक से नहीं हिचकिचाता। भारत में लगभग 30 प्रतिशत घरेलू हिंसा के मामलों में नशे को मुख्य कारण माना गया है।

आज के समय में शिक्षा का उद्देश्य केवल नौकरी या पैसा कमाना रह गया है। बच्चों को नैतिक शिक्षा, संस्कार और धैर्य सिखाने की परंपरा कमजोर हो चुकी है।सम्मान और सहनशीलता की जगह आत्मकेंद्रितताबढ़ रही है।लोग रिश्तों को बोझ समझने लगे हैं।आपसी विश्वास और त्याग की भावना खत्म हो रही है।यही कारण है कि भाई-बहन, पति-पत्नी, माँ-बेटे जैसे पवित्र रिश्ते भी हत्या जैसे अपराध तक पहुँच जाते हैं।

मोबाइल, टीवी, इंटरनेट और सोशल मीडिया ने जीवन की धारा को बदला है।युवा वर्ग आभासी (Virtual) दुनिया में ज्यादा जी रहा है।परिवार को समय न देकर फ्रस्ट्रेशन’ (तनाव) में डूब जाता है।अपराध आधारित वेब सीरीज़ और हिंसक वीडियो गेम ने भी संवेदनाओं को कुंद कर दिया है।लोग वास्तविक जीवन में भी गुस्से और हिंसा को सामान्य मानने लगे हैं।

आज मानसिक स्वास्थ्य सबसे बड़ी समस्या है। डिप्रेशन, तनाव और मनोविकृति से पीड़ित लोग अक्सर हिंसा की ओर बढ़ जाते हैं।कई बार माता-पिता अवसाद में आकर अपने ही बच्चों की हत्या कर देते हैं।युवा अवसादग्रस्त होकर माता-पिता पर हमला कर बैठते हैं।मानसिक रोगों की पहचान और इलाज की व्यवस्था की कमी के कारण ऐसी घटनाएँ बढ़ रही हैं।परिवारों में संपत्ति विवाद हिंसा का बड़ा कारण है।भाई-भाई की हत्या कर देते हैं।बेटे-बेटियाँ माँ-बाप की संपत्ति हथियाने के लिए उन्हें मौत के घाट उतार देते हैं।ज़मीन-जायदाद के झगड़े अक्सर खून-खराबे तक पहुँच जाते हैं।

पारिवारिक हिंसा सिर्फ़ अपराध नहीं है, बल्कि समाज की चेतावनी भी है। यह हमें बताता है कि हम रिश्तों के मूल्य, संस्कारों और आपसी संवाद को खोते जा रहे हैं। अगर समय रहते सुधार नहीं किया गया तो परिवार जैसी संस्था ही कमजोर हो जाएगीहमें यह समझना होगा कि पैसा, आधुनिकता और तकनीक से ज़्यादा महत्वपूर्ण मानवता, प्रेम और विश्वास है। यदि रिश्तों में करुणा, धैर्य और संवाद कायम रहेगा तो न बाप बेटी को मारेगा, न बेटी बाप को, न पति पत्नी पर हाथ उठाएगा और न ही भाई-बहन, माँ-बाप, बेटे-बेटी हत्या तक पहुँचेंगे।

 

 

अशोक मधुप

(लेखक  वरिष्ठ  पत्रकार हैं)

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