प्रसंग चित्रण
प्रसंग है एक नवयुवती छज्जे पर क्रोधित मुख मुद्रा में है जैसे वह छत से कूदकर आत्महत्या करने वाली है।
विभिन्न कवियों से अगर इस पर लिखने को कहा जाता तो वो कैसे लिखते ?
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मैथिली शरण गुप्त
अट्टालिका पर एक रमणी अनमनी सी है अहो
किस वेदना के भार से संतप्त हो देवी कहो?
धीरज धरो संसार में, किसके नही दुर्दिन फिरे
हे राम! रक्षा कीजिए, अबला न भूतल पर गिरे।
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रामधारी सिंह दिनकर
दग्ध ह्रदय में धधक रही,
उत्तप्त प्रेम की ज्वाला,
हिमगिरी के उत्स निचोड़,
फोड़ पाताल, बनो विकराला,
ले ध्वन्सों के निर्माण त्राण से,
गोद भरो पृथ्वी की,
छत पर से मत गिरो,
गिरो अम्बर से वज्र सरीखी.
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श्याम नारायण पांडे
ओ घमंड मंडिनी, अखंड खंड मंडिनी
वीरता विमंडिनी, प्रचंड चंड चंडिनी
सिंहनी की ठान से, आन बान शान से
मान से, गुमान से, तुम गिरो मकान से
तुम डगर डगर गिरो, तुम नगर नगर गिरो
तुम गिरो अगर गिरो, शत्रु पर मगर गिरो।
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गोपाल दास सक्सेना 'नीरज'
रूपसी उदास न हो, आज मुस्कुराती जा
मौत में भी जिन्दगी, के फूल कुछ खिलाती जा
जाना तो हर एक को, यद्यपि जहान से यहाँ
जाते जाते मेरा मगर, गीत गुनगुनाती जा..
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गोपाल प्रसाद व्यास
छत पर उदास क्यूँ बैठी है
तू मेरे पास चली आ री!
जीवन का सुख-दुख कट जाए,
कुछ मैं गाऊं,कुछ तू गा री!
तू जहाँ कहीं भी जाएगी
जीवन भर कष्ट उठाएगी ।
यारों के साथ रहेगी तो
मथुरा के पेड़े खाएगी।
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सुमित्रानन्दन पंत
स्वर्ण सौध के रजत शिखर पर
चिर नूतन चिर सुन्दर प्रतिपल
उन्मन उन्मन अपलक नीरव
शशि मुख पर कोमल कुन्तल पट
कसमस कसमस चिर यौवन घट
पल पल प्रतिपल छल छल करती
निर्मल दृग जल ज्यों निर्झर के दो नीलकमल
यह रूप चपल, ज्यों धूप धवल
अतिमौन, कौन?
रूपसि बोलो,प्रिय, बोलो न?
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काका हाथरसी
गोरी छज्जे पर चढ़ी, कूदन को तैयार
नीचे पक्का फर्श है, भली करें करतार
भली करें करतार, सभी जन हक्का-बक्का
उत चिल्लाए सास, कैच ले लीजो कक्का
कह काका कविराय, अरी! मत आगे बढ़ियो
उधर कूदियो नार, मुझे बख्शे ही रहियो।
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उपरोक्त कविताओं के रचनाकार ओम प्रकाश 'आदित्य' जी हैं
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इंजी० अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'
गोरी छज्जे पर चढ़ी, एक पाँव इस पार.
परिवारीजन काँपते, करते सब मनुहार.
करते सब मनुहार, बख्श दे हमको देवी.
छज्जे से मत कूद. मालकिन हम हैं सेवी.
तेरा ही है राज, फँसा मत हमको छोरी.
धाराएँ बहु एक, लगा मत हम पर गोरी..
छोड़ूंगी कतई नहीं, पहुँचाऊंगी जेल.
सात साल कुनबा सड़े, कानूनी यह खेल.
कानूनी यह खेल, पटकनी मैं ही दूँगी.
रहूँ सदा स्वच्छंद, माल सारा ले लूँगी.
लेकर प्रेमी साथ, प्रेम-रुख मैं मोड़ूँगी.
होगी अपनी मौज, तुम्हें क्योंकर छोड़ूँगी..
लड़की करती मौज है, लड़के का हो खून.
एक आँख से देखता, एक-पक्ष क़ानून.
एक-पक्ष क़ानून, मुक़दमे फर्जी होते.
पुलिस कचहरी मस्त, नित्य प्रति लड़के रोते.
लुट जाता घर-बार, हाथ आती बस कड़की.
करना नहीं विवाह, देखना मत अब लड़की..
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आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
प्रदीप
आओ कवियों! कलम उठाओ बारी आई गान की
पीछे मत हट जाना भाई मुहिम मान-सम्मान की
बगुला नकली ध्यान लगाकर मछली पा इतराया था
हरियाली को देख-देखकर शहरी मन हर्षाया था
दृश्य मनोरम कहे कहानी नर-प्रकृति सहगान की
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नरेंद्र शर्मा
नीर कलश छलके
सुबह दुपहरी साँझ निशा भर हुए हल्के
बैठी छत पर पुलकित काया
निरख जगत हरषे
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नीरज
शांत-शांत नीर के प्रवाह में
आह चाह डाह वाह राह में
मौन गीत गा रही है ज़िंदगी
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गोपाल प्रसाद व्यास
प्रकृति को परमेश्वर मानो
माता, मैया, जननी बोलो
अस्का महत्त्व भी अनुमानों
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इंजी. अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'
आदरणीय अग्रज आचार्य जी, आप द्वारा रचित छंदों का कोई जवाब ही नहीं हो सकता ...तथापि ...
रोचक चित्रण है किया, अतुलनीय हे आर्य,
हम ठहरे विद्यार्थी, आप शुद्ध आचार्य..
अब समझा! क्यों है बनी? सारी दुनिया गोल..
घर-घर में होता यही, इसकी ही भरमार.
निहित व्यंजना आधुनिक, इसमें जीवन सार..
आप भी उपरोक्त प्रसंग पर कविता रचने हेतु सप्रेम आमंत्रित हैं ।
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आपका बहुत - बहुत शुक्रिया जो आप यहाँ आए और अपनी राय दी,हम आपसे आशा करते है की आप आगे भी अपनी राय से हमे अवगत कराते रहेंगे!!
--- संजय सेन सागर