धार्मिक राष्ट्रवाद के नशे में गाफिल रहने वालों को आमजनों की क्षेत्रीय व नस्लीय आकांक्षाएं दिखलाई नहीं देतीं। विभिन्न रंगों के अति राष्ट्रवादी भी इसी दृष्दिोष से पीड़ित रहते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के दिल्ली में सत्ता पर काबिज होने के बाद से संविधान की अनुच्छेद 370 को हटाने का मुद्दा एक बार फिर राजनीति के मंच के केन्द्र में आ गया है। इस मुद्दे को प्रधानमंत्री कार्यालय के एक राज्यमंत्री ने उठाया और कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला और पीडीपी की महबूबा मुफ्ती ने इसका कड़ा विरोध किया।
भारतीय संघ के गठन के साथ ही, हिमाचल प्रदेश, उत्तर.पूर्वी राज्यों और जम्मू.कश्मीर के संघ में विलय का प्रश्न चुनौती बनकर उभरा। इन सभी चुनौतियों का अलग.अलग ढंग से मुकाबला किया गया परंतु आज भी ये किसी न किसी रूप में राष्ट्रीय चिंता का कारण बनी हुई हैं। जम्मू.कश्मीर इस संदर्भ में सबसे अधिक चर्चा में है। कश्मीर, सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण भौगोलिक क्षेत्र है और इसलिए वैश्विक शक्तियों ने भी कश्मीर समस्या को उलझाने में कोई कोर.कसर नहीं छोड़ी। भारत और पाकिस्तान के बीच संबंधों में प्रगाढ़ता की राह में कश्मीर सबसे बड़ा रोड़ा है। भारतीय साम्प्रदायिक ताकतें भी कश्मीर मुद्दे को हवा देती रहती हैं।इस पृष्ठभूमि के चलते, जब भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ने अनुच्छेद 370 पर राष्ट्रीय बहस का आव्हान किया तब देश में मानो भूचाल सा आ गया। उनका यह कहना कि 'इससे किसे लाभ हुआ',दरअसल, दूसरे शब्दों में इस अनुच्छेद 370 को हटाने की मांग थी। मोदी की बात को आगे बढ़ाते हुए भाजपा नेता सुषमा स्वराज व अरूण जेटली ने जोर देकरकहाकिअनुच्छेद370कीसमाप्ति,हिन्दुत्व.आरएसएस एजेन्डा का अविभाज्य हिस्सा बनी हुई है। जेटली ने भारतीय जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुकर्जी की इस मांग को दोहराया कि कश्मीर का भारत में तुरंत व पूर्ण विलय होना चाहिए। जेटली ने ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़ते.मरोड़ते हुए यह कहा कि 'स्वराज, 1953 के पूर्व की स्थिति की बहाली और यहां तक कि आजादी की मांग के मूल में नेहरू द्वारा कश्मीर को विशेष दर्जा दिए जाने का निर्णय है।' इस विषय पर टेलीविजन चैनलों पर लंबी.लंबी बहसें हुईंए जिनसे केवल चर्चा में भाग लेने वालों की अनुच्छेद 370 और कश्मीर के विशेष दर्जे के बारे में घोर अज्ञानता जाहिर हुई। मुद्दे के एक बार फिर उठने से टेलीवीजन बहस मुबाहिसों का नया दौर शुरू हो गया है।
यह सही है कि कश्मीर में इस समय कई ऐसी ताकतें हैं जो स्वतंत्रता से लेकर स्वायत्ता तक की मांग कर रही हैं। परंतु मोटे तौर पर, राज्य में अनुच्छेद 370 के प्रश्न पर एकमत है। यद्यपि यह कहना मुश्किल है कि किस मांग का समर्थन कितने लोग कर रहे हैं तथापि कश्मीर की अधिकांश जनता, अनुच्छेद 370 के साथ-.साथ और अधिक स्वायत्ता की पक्षधर है।
इस मुद्दे का इतिहास जटिल है। जैसा कि सर्वज्ञात है, कश्मीर सीधे अंग्रेजों के अधीन नहीं था। वह एक रियासत थी जिसके शासक डोगरा राजवंश के हरिसिंह थे। उन्होंने केबिनेट मिशन योजना के अंतर्गत गठित संविधान सभा का सदस्य बनने से इंकार कर दिया था। जम्मू. कश्मीर की आबादी का 80 फीसदी मुसलमान थे। भारत के स्वतंत्र होने के बाद,कश्मीर के महाराजा के सामने दो विकल्प थे.पहला,कि वे अपने राज्य को एक स्वतंत्र देश घोषित कर दें और दूसरा कि वे भारत या पाकिस्तान में अपने राज्य का विलय कर दें। महाराजा की इच्छा स्वतंत्र रहने की थी। जम्मू के हिन्दू नेताओं ने हरिसिंह की इस अलगाववादी योजना का समर्थन किया। 'जम्मू.कश्मीर राज्य हिन्दू सभा' के नेताओं,जिनमें से अधिकांश बाद में भारतीय जनसंघ के सदस्य बन गए,ने जोरदार ढंग से यह आवाज उठाई कि 'जम्मू. कश्मीर, जो कि हिन्दू राज्य होने का दावा करता है, को धर्मनिरपेक्ष भारत में विलीन नहीं होना चाहिए' ;कश्मीर, बलराज पुरी, ओरिएन्ट लांगमेन,1993ए पृष्ठ 5। परंतु कश्मीर पर पाकिस्तानी सेना की मदद से कबाईलियों के हमले ने पूरे परिद्रश्य को बदल दिया।
हरिसिंह अपने बलबूते पर कश्मीर की रक्षा करने में असमर्थ थे और इसलिए उन्होंने भारत सरकार से मदद मांगी। भारत सरकार ने कहा कि वह पाकिस्तानी हमले से निपटने के लिए अपनी सेना तभी भेजेगी जब कश्मीर का भारत में विलीनीकरण हो जाएगा। इसके बाद कश्मीर और भारत के बीच परिग्रहण की संधि पर हस्ताक्षर हुए,जिसमें अनुच्छेद 370 का प्रावधान था। यह विलय नहीं था। संधि की शर्तों के अनुसार, भारत के जिम्मे रक्षा, मुद्रा, विदेशी मामले और संचार था जबकि अन्य सभी विषयों में निर्णय लेने का पूरा अधिकार कश्मीर की सरकार को था।http://loksangharsha.blogspot.com/2014/06/370.html
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आपका बहुत - बहुत शुक्रिया जो आप यहाँ आए और अपनी राय दी,हम आपसे आशा करते है की आप आगे भी अपनी राय से हमे अवगत कराते रहेंगे!!
--- संजय सेन सागर