एक अच्छा इंसान होना एक बात है और एक अच्छा नेता होना दूसरी। किन्तु हम दोनों बातें किसी एक में ही ढूंढते रहते हैं।
- अज्ञात
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यह सभा समाप्त हुई। भारी मिठास के साथ। मिसाल बनी। पन्द्रहवीं लोकसभा का यह अंतिम दिन था। शुक्रवार 21 फरवरी 2014 को समूची संसद भाईचारे, स्नेह और गरिमा का प्रतीक बन कर उभरी।
बहुत ही अच्छा किया। क्योंकि देशवासी अभी भूले नहीं हैं। मिर्च छिड़कना। माइक को चाकू की तरह इस्तेमाल करना। बाकी सांसदों को आंसू बहाने पर विवश कर देना। अभी कल की ही तो बात है। तेलंगाना को पृथक राज्य बनाने का कानून किसी 'वयस्क' दृश्य की तरह लोकसभा के लाइव प्रसारण से सेंसर कर दिया गया था। कहीं हम देख न लें कि कितने लज्जाजनक हैं हमारे चुने हुए सांसद।
बहुत ही अच्छा किया। क्योंकि देशवासी अभी भूले नहीं हैं। मिर्च छिड़कना। माइक को चाकू की तरह इस्तेमाल करना। बाकी सांसदों को आंसू बहाने पर विवश कर देना। अभी कल की ही तो बात है। तेलंगाना को पृथक राज्य बनाने का कानून किसी 'वयस्क' दृश्य की तरह लोकसभा के लाइव प्रसारण से सेंसर कर दिया गया था। कहीं हम देख न लें कि कितने लज्जाजनक हैं हमारे चुने हुए सांसद।
इसलिए अंतिम दिन भाईचारा दिखाना आवश्यक था। अब लोगों के बीच जो जाना है। चुनाव में कोई पूछेगा नहीं कि आपने लोकसभा में तो स्तर गिराया। किन्तु लोगों के मन में कहीं न कहीं यह बात रह जाती है। बड़े नेताओं के लिए ख़तरा हमेशा बना रहता है। हर तरह का। लोग कहेंगे कि वे क्या कर रहे थे? पूछेंगे कि आपका बड़प्पन कहां गया?
इतना स्नेह विरोधियों के बीच में देखना सुखद था। सुखद आश्चर्य। क्योंकि स्तरहीन हंगामे छोड़ भी दिए जाएं तो भी हमारे विपक्ष-पक्ष के बीच कतई अच्छे संबंध नहीं हैं। अधिकांश के बीच मतभेद ही नहीं, मनभेद भी है। इसलिए इतनी प्रशंसा एक-दूसरे की करते वे सभी अनूठे लगे। और सच कहें तो बनावटी भी। किन्तु इसी बहाने कुछ ऐसा दृश्य उभरा, जो इस लोकसभा को इस तरह से भी यादगार बना गया। इस लोकसभा की एक ऐतिहासिक बात यह रही कि प्रधानमंत्री, सदन के नेता नहीं रहे। वे लोकसभा के सदस्य नहीं थे। पूरे यूपीए के दस साल के कार्यकाल में यह सबसे अधिक परेशान करने वाली बात रही। जनता से सीधे चुनकर न आने वाले प्रधानमंत्री, कहीं न कहीं, स्वत: कमजोर हो जाते हैं। वैसे, राज्यसभा बनाई ही इसलिए गई है ताकि विद्वानों को देश के नीति-निर्धारण में सीधा अधिकार दिया जा सके। चूंकि बुद्धिजीवियों को चुनाव लड़ने और जीतने में आसानी नहीं होगी, इसलिए वे कभी राजनीति में आएंगे ही नहीं तो संसद केवल बहुमत का पशुबल बनकर न रह जाए। बहुमत का बुद्धिबल बने। किन्तु एक प्रधानमंत्री को तो लोकसभा में सीधे चुनकर ही आना चाहिए था।
इतना स्नेह विरोधियों के बीच में देखना सुखद था। सुखद आश्चर्य। क्योंकि स्तरहीन हंगामे छोड़ भी दिए जाएं तो भी हमारे विपक्ष-पक्ष के बीच कतई अच्छे संबंध नहीं हैं। अधिकांश के बीच मतभेद ही नहीं, मनभेद भी है। इसलिए इतनी प्रशंसा एक-दूसरे की करते वे सभी अनूठे लगे। और सच कहें तो बनावटी भी। किन्तु इसी बहाने कुछ ऐसा दृश्य उभरा, जो इस लोकसभा को इस तरह से भी यादगार बना गया। इस लोकसभा की एक ऐतिहासिक बात यह रही कि प्रधानमंत्री, सदन के नेता नहीं रहे। वे लोकसभा के सदस्य नहीं थे। पूरे यूपीए के दस साल के कार्यकाल में यह सबसे अधिक परेशान करने वाली बात रही। जनता से सीधे चुनकर न आने वाले प्रधानमंत्री, कहीं न कहीं, स्वत: कमजोर हो जाते हैं। वैसे, राज्यसभा बनाई ही इसलिए गई है ताकि विद्वानों को देश के नीति-निर्धारण में सीधा अधिकार दिया जा सके। चूंकि बुद्धिजीवियों को चुनाव लड़ने और जीतने में आसानी नहीं होगी, इसलिए वे कभी राजनीति में आएंगे ही नहीं तो संसद केवल बहुमत का पशुबल बनकर न रह जाए। बहुमत का बुद्धिबल बने। किन्तु एक प्रधानमंत्री को तो लोकसभा में सीधे चुनकर ही आना चाहिए था।
अंतिम दिन यदि डॉ. मनमोहन सिंह के प्रति सभी पार्टियों के सांसदों ने कुछ अधिक ही सम्मान दिखाया तो उसके मूल में भी कुछ है। वह है पूरे पांच वर्ष डॉ. सिंह के प्रति विपक्ष का अति कठोर रवैया। यदि 2010 में 2जी घोटाले पर विपक्षी सांसदों ने प्रधानमंत्री पर ज़हर बुझे शब्दों का प्रयोग किया तो दो वर्ष बाद तो मानों आग ही धधका दी। कोयला घोटाले के मामले में सदन में आरोपों की ऐसी बौछार हुई कि प्रधानमंत्री बुरी तरह आहत हो गए। चूंकि चिर चुप्पी के लिए चर्चित हुए डॉ. सिंह स्वयं एक भले, ईमानदार और दुनियादारी से दूर सैद्धांतिक व्यक्ति हैं। व्यावहारिक नहीं - इसलिए विपक्ष ने उन्हें विदाई के पलों में इतना महत्व व मान दिया। मान देते समय सांसदों को संभवत: ध्यान रहा हो कि डॉ. सिंह ने अपने अपमान की बात कही थी। उन्होंने कहा था - 'क्या दुनिया में कहीं कोई देश है जहां प्रधानमंत्री का ऐसा अपमान होता हो!'
एक और बात यादगार बना गई अंतिम दिन को। लालकृष्ण आडवाणी का आंसुओं के साथ भावविभोर हो जाना। वयोवृद्ध दक्षिणपंथी राजनेता को वापमंथी संसद ने 'फादर ऑफ हाउस' कहकर जो आदर दिया है वह अभूतपूर्व था। फिर सुषमा स्वराज ने तो उन्हें रुला ही दिया। देखा जाए तो दोनों प्रमुख पार्टियों के अस्सी की उम्र के नेता - दोनों सर्वोच्च स्थिति में - और दोनों के लिए अंतिम दिन - वास्तव में केवल लोकसभा का नहीं था। किन्तु सक्रिय राजनीति, राजनीतिक जिम्मेदारी सभी से विदाई का दिन था। डॉ. सिंह अब प्रधानमंत्री नहीं बनेंगे। आडवाणी भी प्रधानमंत्री नहीं बन पाएंगे। सो, सांसद दोनों को ससम्मान विदा कर रहे थे। बहुत अच्छा किया।
अब एक बात उस पर जिस पर भारी आश्चर्य जताया जा रहा है। सुषमा स्वराज ने सोनिया गांधी की प्रशंसा कर डाली! वही सुषमा, जिन्होंने घोषणा की थी कि यदि सोनिया प्रधानमंत्री बनती हैं तो वे अपना सर मुंडवा लेंगी। इसी तरह सुशील कुमार शिंदे ने सुषमा के लिए कहा कि सदन में लड़ती हैं, नाराज़ इतना हो जाती हैं कि लगता है बात करना बंद कर देंगी - लेकिन बाहर निकलते ही मिठाई से भी मीठी हैं सुषमा! वही शिंदे जो 'भगवा आंतक' कहने पर सुषमा के, समूची भाजपा के कोपभाजन का शिकार बने थे। माफी मांगने पर विवश किए गए थे।
इसके भी मूल में कुछ-कुछ डॉ. सिंह-आडवाणी जैसा ही भाव है। उतना नहीं, किन्तु नरेंद्र मोदी के उभरने के बाद सुषमा स्वराज अब किनारे पर जा चुकी हैं। फिर लोकसभा में लौंटेगी। पार्टी में अच्छी भूमिका में भी रहेंगी। किन्तु जब मोदी होते हैं तो सिर्फ मोदी ही होते हैं। एक से दस तक वे ही। ग्यारहवें नंबर से फिर कोई शुरू होगा। इसलिए, शिंदे उन्हें सोनिया की तरफ से, कांग्रेस की तरफ से गरिमामय बता रहे थे। उचित कर रहे थे।
वैसे ही बात सोनिया के लिए कही जा सकती है। वे अब उतनी सक्रिय, गतिशील नहीं रहीं। सबकुछ राहुल गांधी के कंधों पर डाल चुकी हैं। अगले तीन माह सबसे भारी हैं। सर्वे, एक के बाद एक, कांग्रेस को 'अब तक की सबसे बड़ी हार की ओर' बढ़ते हुए बता रहे हैं। विदाई। इसलिए भी सुषमा उन्हें कुछ अपनी तरह की स्थिति में पाती होंगी। परस्पर सम्मान।
वैसे ही बात सोनिया के लिए कही जा सकती है। वे अब उतनी सक्रिय, गतिशील नहीं रहीं। सबकुछ राहुल गांधी के कंधों पर डाल चुकी हैं। अगले तीन माह सबसे भारी हैं। सर्वे, एक के बाद एक, कांग्रेस को 'अब तक की सबसे बड़ी हार की ओर' बढ़ते हुए बता रहे हैं। विदाई। इसलिए भी सुषमा उन्हें कुछ अपनी तरह की स्थिति में पाती होंगी। परस्पर सम्मान।
सांसद इतने भावुक हों, संवेदना से भरे हों - असंभव है। किन्तु होना ही होगा। हमें बढ़ावा देना होगा। क्योंकि आपस में संवेदनशील होंगे - तो ही हम साधारण नागरिकों की समस्याओं के प्रति संवेदनशील हो सकेंगे। हमारी वेदना यही तो है कि हमारे नेता, किसी कारण से ही - स्वार्थ से ही, मर्यादा दिखाने लगें। काश, सोलहवीं लोकसभा मर्यादित हो। जनता की तरह।
(लेखक दैनिक भास्कर समूह के नेशनल एडिटर हैं।)
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आपका बहुत - बहुत शुक्रिया जो आप यहाँ आए और अपनी राय दी,हम आपसे आशा करते है की आप आगे भी अपनी राय से हमे अवगत कराते रहेंगे!!
--- संजय सेन सागर