धन एक अजीब उद्दीपक है। यह हठ को अकड़ देता और बुद्धि को नरम करता है, जबकि इसका उल्टा ज्यादा उपयोगी हो सकता था। इसमें थोड़ी-सी चेहरे की पहचान भी मिला लीजिए, जिसके लिए सेलिब्रिटी बड़े बेकरार रहते हैं और प्रतिमा-भक्त जिसकी पेशकश करते हैं। और फिर जो कॉकटेल बनता है, वह इतना प्रचंड होता है कि ठीक आपके चेहरे पर फटने में इसे बस एक पल ही लगता है।
चूंकि सेलिब्रिटी दोष स्वीकार करना अपनी सेहत के लिए हानिकारक मानते हैं, इसलिए ढिठाई भी एक ही कदम दूर होती है। हर सुपरस्टार इस बीमारी का शिकार नहीं होता, लेकिन मौके-बेमौके उन्माद का हमला होने पर बचाव के चंद रास्ते ही होते हैं।
मैं शाहरुख खान से दो बार मिला हूं। एक बार हाल ही में। और तीसरे मौके पर संभवत: कुछ क्षण के लिए। निश्चित तौर पर यह निकटता का सबूत नहीं है, इसलिए इसे बस जान-पहचान ही रहने दीजिए। परंतु मैं जितना भी थोड़ा-बहुत जानता हूं, उससे पहले प्रभाव की पुष्टि होती है।
वे बेहद दिलकश और बुद्धिमान शख्स हैं। उनका बेहतरीन गुण है मृदु हास्यबोध। तीखी और यहां तक कि कटु टिप्पणी इस हास्यबोध के आड़े आती है। लेकिन वे रिश्तों पर चोट पहुंचाए बगैर दुनिया पर हंस सकते हैं, क्योंकि दुनिया में वे खुद को भी शामिल करते हैं। उनमें न तो विशिष्टता रही, न उन्होंने बादलों के रहवासियों की तरह बातचीत की। यदि उन्हें प्रतिमास्थल पर बिठा दिया जाए, तो वे यह सुनिश्चित करेंगे कि उस ऊंचे ठिकाने से उनके पैर जमीन को छूते रहें। यही चीज उन्हें गुमनामी से परे ले जाती है।
उन्होंने वानखेड़े स्टेडियम में अपना आपा क्यों खो दिया, इसके कई स्पष्टीकरण होंगे। इनमें से एक अहम सफाई तनाव हो सकती है। वे अब युवा नहीं रहे। परदे पर उनका पहला गीत एक-चौथाई सदी पहले गाया गया था और जैसा कि टीवी पर कोई भी म्यूजिक चैनल बताएगा कि वे गीत अब पुराने गानों के बीच ही नजर आते हैं। उम्र हर उस अभिनेता के लिए डरावना रसातल है, जिसने अपने चाहनेवालों से चिरयौवन का वादा कर रखा है। स्वभाववश चुगली करने वाली मांसपेशियों की दशा से उम्र छिपाने के लिए कष्टदायक कसरत की जरूरत होती है।
उम्र को छद्म आवरण में लपेटना एक दुष्कर काम है और यंत्रणा महज इसलिए कम तीखी नहीं हो जाती कि यह स्वयं के द्वारा ही थोपी गई है। गुरुत्वाकर्षण के अनुसार लटकती चर्बी की ओर अपने शरीर के स्वाभाविक झुकाव को नकारने के लिए आपको शरीर पर चाबुक फटकारने होते हैं।
जब मध्ययुगीन कैथोलिक मठवासी खुद को कोड़े मारते थे, तो इसमें उन्हें यह दिलासा तो रहती थी कि वे ऐसा ईश्वर के लिए कर रहे हैं। मैं नहीं मान सकता कि उस मध्यमवर्गीय बालक के लिए धन अब और कुछ भी अहमियत रखता होगा, जिसने बड़े होकर उतना ज्यादा कमा लिया, जितना कि शाहरुख ने। इसलिए उकसावा तो सिर्फ अहंकार का ही हो सकता है और ऐसे शिखर पर बने रहने की उन्मादी लालसा का, जो महज सबसे ऊंचा न होकर प्रतिस्पर्धा से परे भी हो।
महत्वाकांक्षा एक खरा गुण है। इसके बगैर हमने ज्यादा तरक्की नहीं की होती। लेकिन जब आप अपने ही उत्पाद होते हैं और आपके मूल्य का पैमाना एक ऐसी छवि से संचालित होता है, जिसे क्षय से नहीं बचाया जा सकता, तो फिर बुद्धिमानी इसी में है कि सीमाओं को पहचान लिया जाए। आह! ऐसा करने की तुलना में लिखना कहीं आसान है।
चूंकि सेलिब्रिटी दोष स्वीकार करना अपनी सेहत के लिए हानिकारक मानते हैं, इसलिए ढिठाई भी एक ही कदम दूर होती है। हर सुपरस्टार इस बीमारी का शिकार नहीं होता, लेकिन मौके-बेमौके उन्माद का हमला होने पर बचाव के चंद रास्ते ही होते हैं।
मैं शाहरुख खान से दो बार मिला हूं। एक बार हाल ही में। और तीसरे मौके पर संभवत: कुछ क्षण के लिए। निश्चित तौर पर यह निकटता का सबूत नहीं है, इसलिए इसे बस जान-पहचान ही रहने दीजिए। परंतु मैं जितना भी थोड़ा-बहुत जानता हूं, उससे पहले प्रभाव की पुष्टि होती है।
वे बेहद दिलकश और बुद्धिमान शख्स हैं। उनका बेहतरीन गुण है मृदु हास्यबोध। तीखी और यहां तक कि कटु टिप्पणी इस हास्यबोध के आड़े आती है। लेकिन वे रिश्तों पर चोट पहुंचाए बगैर दुनिया पर हंस सकते हैं, क्योंकि दुनिया में वे खुद को भी शामिल करते हैं। उनमें न तो विशिष्टता रही, न उन्होंने बादलों के रहवासियों की तरह बातचीत की। यदि उन्हें प्रतिमास्थल पर बिठा दिया जाए, तो वे यह सुनिश्चित करेंगे कि उस ऊंचे ठिकाने से उनके पैर जमीन को छूते रहें। यही चीज उन्हें गुमनामी से परे ले जाती है।
उन्होंने वानखेड़े स्टेडियम में अपना आपा क्यों खो दिया, इसके कई स्पष्टीकरण होंगे। इनमें से एक अहम सफाई तनाव हो सकती है। वे अब युवा नहीं रहे। परदे पर उनका पहला गीत एक-चौथाई सदी पहले गाया गया था और जैसा कि टीवी पर कोई भी म्यूजिक चैनल बताएगा कि वे गीत अब पुराने गानों के बीच ही नजर आते हैं। उम्र हर उस अभिनेता के लिए डरावना रसातल है, जिसने अपने चाहनेवालों से चिरयौवन का वादा कर रखा है। स्वभाववश चुगली करने वाली मांसपेशियों की दशा से उम्र छिपाने के लिए कष्टदायक कसरत की जरूरत होती है।
उम्र को छद्म आवरण में लपेटना एक दुष्कर काम है और यंत्रणा महज इसलिए कम तीखी नहीं हो जाती कि यह स्वयं के द्वारा ही थोपी गई है। गुरुत्वाकर्षण के अनुसार लटकती चर्बी की ओर अपने शरीर के स्वाभाविक झुकाव को नकारने के लिए आपको शरीर पर चाबुक फटकारने होते हैं।
जब मध्ययुगीन कैथोलिक मठवासी खुद को कोड़े मारते थे, तो इसमें उन्हें यह दिलासा तो रहती थी कि वे ऐसा ईश्वर के लिए कर रहे हैं। मैं नहीं मान सकता कि उस मध्यमवर्गीय बालक के लिए धन अब और कुछ भी अहमियत रखता होगा, जिसने बड़े होकर उतना ज्यादा कमा लिया, जितना कि शाहरुख ने। इसलिए उकसावा तो सिर्फ अहंकार का ही हो सकता है और ऐसे शिखर पर बने रहने की उन्मादी लालसा का, जो महज सबसे ऊंचा न होकर प्रतिस्पर्धा से परे भी हो।
महत्वाकांक्षा एक खरा गुण है। इसके बगैर हमने ज्यादा तरक्की नहीं की होती। लेकिन जब आप अपने ही उत्पाद होते हैं और आपके मूल्य का पैमाना एक ऐसी छवि से संचालित होता है, जिसे क्षय से नहीं बचाया जा सकता, तो फिर बुद्धिमानी इसी में है कि सीमाओं को पहचान लिया जाए। आह! ऐसा करने की तुलना में लिखना कहीं आसान है।
कल्पना लोक का हीरो खुशामद के मनमोहक उत्सव पर बहता चला जाता है, भले ही वह निजी दैत्यों से संघर्ष भी करता है, जो उन घंटों में बहुत भयंकर बन जाते हैं, जब किसी व्यक्ति को खुद के साथ ही बने रहना चाहिए। अपराध-बोध के कई आयाम होते हैं। जिनका अस्तित्व औरों की सराहना पर टिका होता है, वे इस बात की सलीब भी ढोते हैं कि उन्होंने दूसरों को कितना ज्यादा प्यार दिया है।
इन दूसरों में उनके बच्चे भी शामिल होते हैं। आप और आपके बच्चे, दोनों एक साथ बड़े होते हैं और एक बिंदु पर जब बच्चे अपने खुद के बच्चों के लिए आगे बढ़ते हैं, तो भीतरी विभाजन होता ही है। वक्त दोनों ओर के समीकरण को संक्षिप्त करता है। आपके बच्चे की आंखों में संदेहभरा सवाल एक क्षणभंगुर मृगतृष्णा के संसार की चमक-दमक को घटाता है। और शायद चापलूस दुनिया पर ताकत दिखाकर बच्चे का दिल जीतने का प्रलोभन ऐसा हो जाता कि उससे बचा ही न जा सके।
शाहरुख खान के महान पूर्ववर्तियों ने ऐसे राष्ट्रीय कीमियागरों की तलाश की, जो उन्हें दैत्यों से मुक्त करा सकें। कभी-कभी रातें व्यामोह में गुजर जाती हैं और दिन खुद से छल करते हुए। प्रामाणिक जीनियस, राजकपूर ने वहीदा रहमान के साथ ‘सुनो जी सुनो, हमारी भी सुनो’ गाते हुए बहुत प्रतिभाशाली ढंग से डांस किया था, लेकिन गालों के आसपास के फुलाव ने ‘श्री 420’ में नादिरा और भारत, दोनों को सम्मोहित करने वाले उस चेहरे को बदल दिया था।
दिलीप कुमार ने पीढ़ियों को अपने पीछे चलाया, लेकिन ‘मुगल-ए-आजम’ और ‘गंगा जमुना’ में अपने सर्वोच्च शिखर पर पहुंचने के बाद भी लंबे समय तक चलते रहने से वे खुद को रोक नहीं पाए। देवआनंद ने सोचा कि ऊंचे कॉलर और स्कार्फ से र्झुीदार त्वचा को छुपाकर वे वक्त को हरा सकते हैं। वक्त के पास एक कड़वा जवाब था :
उपहासजनक नकल। देवआनंद को 80 के पूरे दशक में बड़ी होशियारी से कदम रखने चाहिए थे और 90 के दशक में कभी कदम ही नहीं धरना चाहिए था, फिर 21 सदी को तो अकेला ही छोड़ दीजिए। सदाबहार कही जाने वाली कोई चीज नहीं होती। बस सूखी लकड़ी ही मरने में लंबा समय लेती है।
जो लोग सीमित जीवन का आधा हिस्सा तय कर चुके हैं, उनके लिए जीवन का उद्देश्य जरूर बदलना चाहिए। शाहरुख खान को यादों में आनंद के प्रतीक के रूप में जिंदा रहना चाहिए, न कि गुस्से के। मैं नहीं मान सकता कि वे दौलत के अहंकार के अधीन हो सकते हैं। यह बहुत ज्यादा मायूसी की बात होगी।
इंसान जो भी देखता, जांचता-परखता है, वह पूरा कभी भी उसके हाथ में नहीं होता, लेकिन उसे यह समझने की बुद्धि मिली है कि नियति को किसी मंजिल पर ठहरना ही होता है। शाहरुख खान ने ऐसी छवि गढ़ी है, जिसने हमें असाधारण आनंद दिया है। उनके लिए वह क्षण आ गया है कि वे खुद को पुन: गढ़ें।
इन दूसरों में उनके बच्चे भी शामिल होते हैं। आप और आपके बच्चे, दोनों एक साथ बड़े होते हैं और एक बिंदु पर जब बच्चे अपने खुद के बच्चों के लिए आगे बढ़ते हैं, तो भीतरी विभाजन होता ही है। वक्त दोनों ओर के समीकरण को संक्षिप्त करता है। आपके बच्चे की आंखों में संदेहभरा सवाल एक क्षणभंगुर मृगतृष्णा के संसार की चमक-दमक को घटाता है। और शायद चापलूस दुनिया पर ताकत दिखाकर बच्चे का दिल जीतने का प्रलोभन ऐसा हो जाता कि उससे बचा ही न जा सके।
शाहरुख खान के महान पूर्ववर्तियों ने ऐसे राष्ट्रीय कीमियागरों की तलाश की, जो उन्हें दैत्यों से मुक्त करा सकें। कभी-कभी रातें व्यामोह में गुजर जाती हैं और दिन खुद से छल करते हुए। प्रामाणिक जीनियस, राजकपूर ने वहीदा रहमान के साथ ‘सुनो जी सुनो, हमारी भी सुनो’ गाते हुए बहुत प्रतिभाशाली ढंग से डांस किया था, लेकिन गालों के आसपास के फुलाव ने ‘श्री 420’ में नादिरा और भारत, दोनों को सम्मोहित करने वाले उस चेहरे को बदल दिया था।
दिलीप कुमार ने पीढ़ियों को अपने पीछे चलाया, लेकिन ‘मुगल-ए-आजम’ और ‘गंगा जमुना’ में अपने सर्वोच्च शिखर पर पहुंचने के बाद भी लंबे समय तक चलते रहने से वे खुद को रोक नहीं पाए। देवआनंद ने सोचा कि ऊंचे कॉलर और स्कार्फ से र्झुीदार त्वचा को छुपाकर वे वक्त को हरा सकते हैं। वक्त के पास एक कड़वा जवाब था :
उपहासजनक नकल। देवआनंद को 80 के पूरे दशक में बड़ी होशियारी से कदम रखने चाहिए थे और 90 के दशक में कभी कदम ही नहीं धरना चाहिए था, फिर 21 सदी को तो अकेला ही छोड़ दीजिए। सदाबहार कही जाने वाली कोई चीज नहीं होती। बस सूखी लकड़ी ही मरने में लंबा समय लेती है।
जो लोग सीमित जीवन का आधा हिस्सा तय कर चुके हैं, उनके लिए जीवन का उद्देश्य जरूर बदलना चाहिए। शाहरुख खान को यादों में आनंद के प्रतीक के रूप में जिंदा रहना चाहिए, न कि गुस्से के। मैं नहीं मान सकता कि वे दौलत के अहंकार के अधीन हो सकते हैं। यह बहुत ज्यादा मायूसी की बात होगी।
इंसान जो भी देखता, जांचता-परखता है, वह पूरा कभी भी उसके हाथ में नहीं होता, लेकिन उसे यह समझने की बुद्धि मिली है कि नियति को किसी मंजिल पर ठहरना ही होता है। शाहरुख खान ने ऐसी छवि गढ़ी है, जिसने हमें असाधारण आनंद दिया है। उनके लिए वह क्षण आ गया है कि वे खुद को पुन: गढ़ें।
मोबाशर जावेद अकबर जाने माने पत्रकार और लेखक हैं। वे साप्ताहिक अखबार 'द संडे गार्जियन' अखबार के एडिटर-इन-चीफ हैं और अंग्रेज़ी साप्ताहिक मैगज़ीन 'इंडिया टुडे' के एडिटोरियल डायरेक्टर भी रह चुके हैं। साथ ही वे 'द एशियन एज' अखबार के संस्थापक और पूर्व एडिटर-इन-चीफ भी हैं। उन्होनें कई किताबें भी लिखी हैं जिनमें 'बायलाइन', 'नेहरू:द मेकिंग ऑफ इंडिया', 'कश्मीर:बिहाइंड द वेल, रायट आफ्टर रायट' और 'इंडिया:ए सीज विदइन' जैसी फेमस किताबें शामिल हैं। हाल ही में उनकी किताब 'ब्लड ब्रदर्स' भी प्रकाशित हुई है जो हिंदु-मुसलमान के बदलते रिश्तों पर प्रकाश डालती है।
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आपका बहुत - बहुत शुक्रिया जो आप यहाँ आए और अपनी राय दी,हम आपसे आशा करते है की आप आगे भी अपनी राय से हमे अवगत कराते रहेंगे!!
--- संजय सेन सागर