बिलासपुर. विशेष पिछड़ी जनजाति माने जाने वाले बैगा आदिवासियों में
मनुष्य के कर्मो का जो महत्व है, वह शायद गांव और शहरों में भी नहीं है।
बैगा आदिवासियों में सिर्फ उन्हीं लोगों को पितर माना जाता है, जिन्होंने
जीवित रहते हुए अच्छे कर्म किए हों। ऐसा भी नहीं है कि संबंधित परिवार ही
अच्छे कर्मो की तस्दीक करे। यह फैसला बैगा पंचायत पर छोड़ा जाता है। किसी
की मृत्यु के तत्काल बाद पंचायत तय करती है कि उसे पितरों में शामिल किया
जाए या नहीं।
बैगा आदिवासियों में सदियों से मृतक संस्कारों को लेकर कई अलग और अनूठी मान्यताएं प्रचलित हैं। बैगा परिवार में जब भी किसी सदस्य की मृत्यु होती है, तब उसे अन्य समाज की तरह श्मशानघाट में अंतिम संस्कार के लिए ले जाया जाता है। इसी समय परिजनों व समाज के प्रमुख लोगों की मौजूदगी में पंचायत बैठती है। इसमें मृत व्यक्ति के अच्छे कर्मो को लेकर लोगों से राय ली जाती है।
इसके बाद आगामी वर्ष में उसे पितृ पक्ष में पितरों में शामिल करने को लेकर निर्णय लिया जाता है। कई बार यह निर्णय मृतक के परिजन को अच्छा भी नहीं लगता, लेकिन पंचायत व समाज के निर्णय को उसे स्वीकार करना पड़ता है, क्योंकि बैगाओं में व्यक्ति से कहीं अधिक महत्व समाज का होता है। लोरमी इलाके के मंजूरहा गांव की फगनी बैगा ने माना कि उनके समाज की ऐसी परंपराओं के कारण ही पहचान है। समाज के हर फैसले को सभी स्वीकारते हैं।
अन्य समाज से महिलाओं को कहीं अधिक अधिकार प्राप्त है। इन दिनों पितृ पक्ष चल रहा है और लोग अपने मृत माता-पिता, भाई, दादा-दादी को पितरों में शामिल कर रहे हैं। परिवार की मृत महिलाओं को नवमीं को पितर में शामिल करने की परंपरा है। पुरुषों को उसी तिथि में पितरों में शामिल करते हुए पिंडदान किया जाता है, जिस दिन उनकी मृत्यु हुई होती है। बैगा भी अपने मृत परिजनों को पितर में शामिल करने की तैयारी कर रहे हैं, जिन्हें लेकर सकारात्मक निर्णय लिया गया है।
समय के साथ बैगाओं की परंपराओं में कुछ बदलाव भी देखने को मिले हैं। मसलन, अब दफन करने के बजाय मृत देह को आग को समर्पित कर दिया जाता है, लेकिन मृतकों को पितरों में मिलाने की परंपरा अभी तक कायम है। बैगा पितरों को देवता मानते हैं।
उनकी मान्यता है कि बच्चों की रक्षा का जिम्मा उन पर ही है। उनके नाराज होने पर बच्चों का स्वास्थ्य खराब होता है। अगर पितर परिवार पर कृपा न करें तो मुश्किलें घेर लेती हैं। पितृ पक्ष में विशेष पूजा-अर्चना के साथ ही जीवन र्पयत उनकी आराधना का विधान है।
बैगा आदिवासियों में सदियों से मृतक संस्कारों को लेकर कई अलग और अनूठी मान्यताएं प्रचलित हैं। बैगा परिवार में जब भी किसी सदस्य की मृत्यु होती है, तब उसे अन्य समाज की तरह श्मशानघाट में अंतिम संस्कार के लिए ले जाया जाता है। इसी समय परिजनों व समाज के प्रमुख लोगों की मौजूदगी में पंचायत बैठती है। इसमें मृत व्यक्ति के अच्छे कर्मो को लेकर लोगों से राय ली जाती है।
इसके बाद आगामी वर्ष में उसे पितृ पक्ष में पितरों में शामिल करने को लेकर निर्णय लिया जाता है। कई बार यह निर्णय मृतक के परिजन को अच्छा भी नहीं लगता, लेकिन पंचायत व समाज के निर्णय को उसे स्वीकार करना पड़ता है, क्योंकि बैगाओं में व्यक्ति से कहीं अधिक महत्व समाज का होता है। लोरमी इलाके के मंजूरहा गांव की फगनी बैगा ने माना कि उनके समाज की ऐसी परंपराओं के कारण ही पहचान है। समाज के हर फैसले को सभी स्वीकारते हैं।
अन्य समाज से महिलाओं को कहीं अधिक अधिकार प्राप्त है। इन दिनों पितृ पक्ष चल रहा है और लोग अपने मृत माता-पिता, भाई, दादा-दादी को पितरों में शामिल कर रहे हैं। परिवार की मृत महिलाओं को नवमीं को पितर में शामिल करने की परंपरा है। पुरुषों को उसी तिथि में पितरों में शामिल करते हुए पिंडदान किया जाता है, जिस दिन उनकी मृत्यु हुई होती है। बैगा भी अपने मृत परिजनों को पितर में शामिल करने की तैयारी कर रहे हैं, जिन्हें लेकर सकारात्मक निर्णय लिया गया है।
समय के साथ बैगाओं की परंपराओं में कुछ बदलाव भी देखने को मिले हैं। मसलन, अब दफन करने के बजाय मृत देह को आग को समर्पित कर दिया जाता है, लेकिन मृतकों को पितरों में मिलाने की परंपरा अभी तक कायम है। बैगा पितरों को देवता मानते हैं।
उनकी मान्यता है कि बच्चों की रक्षा का जिम्मा उन पर ही है। उनके नाराज होने पर बच्चों का स्वास्थ्य खराब होता है। अगर पितर परिवार पर कृपा न करें तो मुश्किलें घेर लेती हैं। पितृ पक्ष में विशेष पूजा-अर्चना के साथ ही जीवन र्पयत उनकी आराधना का विधान है।
दोस्त यदि आपने स्टोरी के साथ इसे लिखने वाले का नाम भी प्रकाशित किया हुआ तो बेहतर था,लेकिन कोई बात नहीं...ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है.सुनील शर्मा,बिलासपुर
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