किसी ने कहा था की गैंग्स ऑफ वासेपुर-2 में परपेंडीकूलर की कोई जरुरत नहीं थी लेकिन मुझे यह किरदार सबसे ख़ास लगा,मुझे याद नहीं आता जब कोई इतनी मासूमियत से इतना खतरनाक साबित हुआ हो।जो इतनी मासूमियत बताता हो की उसके बड़े भाई का नाम फैसल खान है वो दूकान लूटने आया है। इसलिए घर आते आते यह किरदार कुछ ख़ास बनकर याद रह गया।
नवाजुद्दीन सिद्दीकी,पहले पहल जितने आशिक मिजाज नजर आते है,समय निकलते निकलते उतने ही घातक होते जाते है,और बासेपुर की कहानी जिस तरह से सरदार खान और रामाधीर सिंह की लड़ाई की भूमि ना रहते,ऐसे लोगों की कहानी बन जाती है जो फैज़ल की तरह बासेपुर का सरताज बनना चाहते है।
गैंग्स ऑफ वासेपुर-1 और गैंग्स ऑफ वासेपुर-2 दोनों देखते समय मन में यह सवाल जरुर कौंधता रहा की यशपाल शर्मा जैसे अभिनेता के लिए गैंग्स ऑफ वासेपुर में क्या कोई मजबूत रोल नहीं था ? यशपाल जी की महानता मुझे उस रोल में नजर आयी,जहा मेरे हिसाब से उन्हें बिलकुल भी नहीं होना चाहिए था।
पीयूष मिश्रा जी के बिना भी काम लिया जा सकता था लेकिन उन्हें फिल्म में खुद के बुजुर्गों की तरह रखा जाना भी जरुरी था क्योंकि अनुराग कश्यप की कोशिश हमेशा यह होती है की वो पीयूष मिश्रा जी को कैसे ना कैसे खुद में जोड़ें रखें। पीयूष मिश्रा जी की आवाज़ हमें एक बार फिर ''आरंभ है प्रचंड '' की याद दिला देती है हालाँकि इस फिल्म के संगीत के मिजाज गुलाल से बिल्कुल जुदा है।
तिग्मांशु धूलिया,पहले पहल मुझे पहचान में नहीं आये थे। स्क्रीन पर जो था वो कोई मंझा हुआ अभिनेता था और मैं जिस तिग्मांशु को जानता था वो एक निर्देशक है जिसकी पहचान मेरी नजरों में पान सिंह तोमर और साहब बीवी और गैंगस्टर से मजबूत हुई। उन्होंने गैंग्स ऑफ वासेपुर के दोनों भागों को बहुत अच्छी तरह से बाँधा रखा,वो एक बहुत अच्छे निर्देशक के साथ साथ एक बहुत अच्छे अभिनेता भी साबित हुए है।
डेफिनेट फिल्म का एक मजबूत स्तंभ रहें,निर्णायक रहें। शायद अनुराग कश्यप ने उन्हें पहले ही भांप लिया होगा वरना कोई भी इस निर्णायक किरदार के लिए एक मंझा हुआ अभिनेता लाने की जुगत में रहता, डेफिनेट अनुराग के विश्वास पर कायम रहे।
जाते जाते अनुराग कश्यप के लिए अभिनव कश्यप की बात दोहराना चाहूँगा की वाइलेंस को अब शायद थोडा कम करना ही पड़ेगा,कहानी के हिसाब से गैंग्स ऑफ वासेपुर में यह जरुरी था लेकिन अब इंतज़ार है अनुराग कश्यप की दिल पर लगने वाली कहानी का।रात से अब तक गोलियों की आवाज़ कानो में गूँज रही है और जब यह आवाज़ कम होने की कोशिश करती है।टेलीविजन पर गैंग्स ऑफ वासेपुर की मची धूम उस आवाज़ में जान लौटा देती है,अनुराग कश्यप को गैंग्स ऑफ वासेपुर की सफलता की हार्दिक बधाई। अनुराग से ना जाने कितनों ने मेरी तरह सार्थक सिनेमा देखना सीखा है।
संजय सेन सागर। हिन्दुस्तान का दर्द ब्लॉग के मोडरेटर है। एम.बी.ए.के स्टुडेंट है,साथ साथ फिल्म लेखन में प्रयासरत है। mr.sanjaysagar@gmail.com या 09907048438 पर संपर्क किया जा सकता है।
बेहतरीन समीक्षा !
ReplyDeleteहर किरदार अपने साथ न्याय करता दिखा ...
परपेंडीकुलर, डेफीनीट और फैजल खान सारे सही रहे ..
bahut hi accha bahut acche tarike se aapne sabhi ke bare main raay rakhi sammeksha bahut nispaksh hai
ReplyDeletegreat work
शुक्रिया विकास जी..!!
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