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जनसंघर्षों के साथ भद्दा मजाक है शांघाई-समर अनार्य

शांघाई शहर नहीं एक सपने का नाम है. उस सपने का जो पूंजीवाद के नवउदारवादी संस्करण के वैश्विक नेताओं की आँखों से धीरे धीरे विकासशील देशों में मजबूत हो रहे दलाल शासक वर्गों की आँखों में उतर आया है. उस सपने का भी जिसने नंदीग्राम, नोएडा और खम्मम जैसे हजारों कस्बों के सादे से नामों को हादसों के मील पत्थर में तब्दील के लिए इन शासक वर्गों ने हरसूद जैसे तमाम जिन्दा कस्बों को जबरिया जल समाधि दे दी. 

क्या है यह सपना फिर? यह सपना है हमारे खेतों, खलिहानों के सीने में ऊँची ईमारतों के नश्तर उतार उन्हें पश्चिमी दुनिया की जरूरतों को पूरा करने वाले कारखानों में तब्दील कर देना. यह सपना है हमारे किसानों को सिक्योरिटी गार्ड्स में बदल देने का. यह सपना है हमारे देशों को वैश्विक बाजारवादी व्यवस्था के जूनियर पार्टनर्स में बदल देने का. 

पर फिर, दुनिया के अब तक के इतिहास में कोई सपना अकेला सपना नहीं रहा है. हर सपने के बरक्स कुछ और आँखों ने आजादी, अमन और बराबरी के सपने देखे हैं और अपनी जान पे खेल उन्हें पूरा करने के जतन भी किये हैं. वो सपने जो ग्राम्शी को याद करें तो वर्चस्ववाद (हेजेमनी) के खिलाफ खड़े हैं. वे सपने जो लड़ते रहे हैं, रणवीर सेनाओं के खिलाफ खड़े दलित बहुजन भूमिहीन किसानों के सशस्त्र प्रतिरोधों से लेकर नर्मदा बचाओं आंदोलन जैसे अहिंसक लोकतान्त्रिक आन्दोलनों तक की शक्ल में. 

बाहर से देखें तो लगेगा इन सपनों और इनके लिए लड़ने वाले जियालों का कुल जमा हासिल तमाम मोर्चों पर हार है. आप नर्मदा घाटी में लड़ते रहें, बाँध ऊंचा होता जाएगा. आप नंदीग्राम में लड़ते रहें, जमीनें छीनी जाती रहेंगी. पर थोड़ा और कुरेदिये और साफ़ दिखेगा कि मोर्चों पर मिली इन्ही हारों से मुस्तकबिल की जीतों के रास्ते भी खुले हैं. उन सवालों की मार्फ़त जो इन लड़ाइयों ने खड़े किये, उस प्रतिरोध की मार्फ़त जिसने हुक्मरानों को अगली बार ऐसा कदम उठाने से पहले दस दस बार सोचने को मजबूर किया. हम भले एक नर्मदा हार आये हों, शासकों की फिर कोई और बाँध बनाने की हिम्मत न होना जीत नहीं तो और क्या है? 

यही वह जगह है जहाँ दिबाकर बनर्जी की फिल्म शांघाई न केवल बुरी तरह से चूकती है बल्कि संघर्ष के सपनों के खिलाफ खड़े शांघाई के सपनों के साथ खड़ी दीखती है. इस फिल्म ने भूमि अधिग्रहण, एसईजेड्स जैसे सुलगते सवालों का सतहीकरण भर नहीं बल्कि सजग दर्शकों के साथ एक भद्दा मजाक भी किया है. 

याद करें कि हिन्दुस्तान के किस शहर को शांघाई बना देने के सपनों के साथ उस शहर का गरीब तबका खड़ा है? भारतनगर की झुग्गी झोपड़ियों से निकलने वाले भग्गू जैसे लोग किस शहर में रहते हैं भला? हम तो यही जानते हैं कि रायगढ़ हो या सिंगूर इस मुल्क का कोई किसान अपने खेतों, गाँवों, कस्बों की लाश पर शांघाई बनाने के खिलाफ लड़ रहा है, उसके साथ नहीं. फिर बनर्जी साहब का भारतनगर कहाँ है भाई? और अगर कहीं है भी तो इन भग्गुओं के पास कोई वजह भी तो होगी. क्या हैं वह वजहें? 

पूछने को तो उन हजार संयोगों पर भी हजार सवाल पूछ सकता हूँ जो इस फिल्म में ठुंसे हुए से हैं. जैसे अहमदी की हत्या की साजिश में शालिनी (उनकी प्रेमिका) की नौकरानी के पति की केन्द्रीय भूमिका होने का संयोग. जैसे जोगी और उसके दोस्त द्वारा इत्तेफाकन अहमदी की हत्या की साजिश रिकार्ड कर लेना, बावजूद इस सच के की जब फोन टेप्स ही प्रामाणिक सबूत नहीं माने जाते तो एक मुख्यमंत्री द्वारा किये गए फोन की रिकार्डिंग इतना बड़ा सबूत कैसे बन जाते हैं. 

फिर भी इतना तो पूछना बनता ही है कि कौन है वह एक्टिविस्ट जो चार्टर्ड जहाज से उतरते हैं, वह भी एक सिने तारिका के साथ? क्या इतिहास है उनका? संघर्षों के सर्टिफिकेट भले न बनते हों, संघर्षों की स्मृतियाँ लोकगाथाओं सी तो बन ही जाती हैं. और ये (किस मामले में) जेल भेज दिए गए एक जनरल की रहस्यमयी सी बेटी कौन है? उसे डिपोर्ट करने की नोटिस क्यों आती है? और अगर नोटिस आती है तो काफी ताकतवर से लगते अहमदी साहब के उस ‘हादसे’ में घायल हो जाने के बाद सरकार उसे डिपोर्ट कर क्यों नहीं देती? 

और हाँ, यह भारतनगर हिन्दुस्तान के किस इलाके में पड़ता है जहाँ किसी विपक्षी राजनैतिक दल की प्रतीकात्मक उपस्थिति तक नहीं है. बेशक इस देश में कुछ इलाके ऐसे हैं जहाँ माफिया-राजनैतिक गठजोड़ के चलते प्रतिपक्ष की राजनीति मुश्किल हुई है पर बिलकुल खत्म? यह सिर्फ दिबाकर बनर्जी के भारत नगर में ही हो सकता है. और ये जोगी? वह आदमी जो दूसरी जाति के प्रेमिका के परिवार वालों के दौड़ाने पर लड़ने और भागने में से एक का चुनाव कर इस शहर में पंहुचा है दरअसल कौन है? क्या है जो उसे अंत में लड़ने की, जान पर खेल जाने की प्रेरणा देता है? शालिनी उर्फ कल्कि का यह पूछ लेना कि ‘खत्म हो गयी राजपूत मर्दानगी’?

कोई कह ही सकता है कि फ़िल्में तो बस समाज का सच ही दर्ज करती है पर फिर प्रकाश झा के साधू यादव और तबरेज आलमों की मर्दानगी भी तो याद आ सकती थी शालिनी को? यह सत्या के सत्या जैसी जातिविहीन सी मर्दानगी? फिर उसे राजपूती मर्दानगी ही क्यों याद आई? रही बात जोगी कि तो उसे तो जागना ही था. भले ही वह भाई जैसे दोस्त की मौत की वजह से हो या इस मर्दानगी की वजह से. 

एक ईमानदार अफसर भी है इस फिल्म में. वह इतना ईमानदार है कि लगभग बदतमीजी कर रहे पुलिस अधिकारी को डांट भी नहीं पाता. उसे एक के बाद एक हो रही मौतों के तार जुड़ते नहीं दीखते. पर अब उस अफसर को भी क्या कोसना जब इतने बड़े, चार्टर्ड प्लेन से चलने वाले एक्टिविस्ट की ऐसी संदिग्ध अवस्था में हुई मौत की सीबीआई जांच की मांग तक मुश्किल से ही सुनने में आती है. उस देश में, जहाँ किसी भी सामाजिक कार्यकर्ता की हत्या की प्रतिक्रिया इतनी हल्की तो नहीं ही होती. 

यह न समझें कि मैंने इस फिल्म को प्रशंसात्मक नजरिये से देखने की कोशिश नहीं की. काफी कोशिश की झोल के अंदर भरी जरा जरा सी कहानी को लिटरेरी डिवाइस, ट्रोप्स, या ऐसे कुछ अन्य सिने सिद्धांतों से भी देखने की कोशिश की, कि कहीं से तारीफ़ के कुछ नुक्ते समझ आयें. आखिर तमाम फिल्म समीक्षक यूं ही तो इस फिल्म को चार, साढ़े चार और पांच स्टार तो नहीं दे रहे होंगे. पर एक तो ऐसा कुछ समझ आया नहीं, और फिर न्याय का रास्ता एक प्रतिद्वंदी कारपोरेट टायकून से निकलता दिखा तो बची खुची हिम्मत भी टूट गयी. लगा कि काश किसी मेधा पाटकर को भी एक अदद जग्गू, एक अदद कृष्णन और एक अदद बड़ा उद्योगपति मिल जाता, फिर तो बस न्याय ही न्याय होता. 

तमाम किरदारों के अभिनय के लिए बेशक इस फिल्म की तारीफ़ की जानी चाहिए पर फिर फ़िल्में, वह भी सरोकारी दिखने का प्रयास करने वाली फिल्मों के लिए अभिनय ही तो सब कुछ नहीं होता. खास तौर पर तब जब यह एक व्यावसायिक फिल्म हो और फिर भी इसमें नॅशनल फिल्म डेवेलपमेंट कार्पोरेशन के रास्ते भारतीय करदाताओं का पैसा भी लगा हो.

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