सिने बहसतलब के पहले दिन बहुत देर से पहुंचा अनुराग कश्यप बस उठकर जाने ही वाले थे। मंच पर डॉ.चन्द्र प्रकाश द्रिवेदी,अभिषेक शर्मा और स्वानंद किरकिरे मुख्य रूप से उपस्तिथ थे। वहा होने वाली जायदा बातें तो याद नहीं रही बस स्वानंद की एक बात याद रह गयी,स्वानंद ने कहा की आज गानों की हालत फिल्म में उतनी ठीक नहीं है,कोर्पोरेट कंपनी को आज संगीत और म्यूजिक की जरुरत बस उतनी है जितनी की मोबाइल कंपनी को कॉलर टियून की। स्वानंद की बात ने गहरा प्रभाव छोड़ा की आज लेखक की स्वतंत्रता प्रोडूसर और कंपनी के मुनाफे में कैद है,लेखक की कलम उनके ही इशारे पर चलती है।
अनुराग की फिल्मो की बात करें तो अनुराग की फिल्मों के गीतों में हमेशा एक वीर रस और उल्लास्ता को महसूस किया जा सकता है लेकिन यह दोनों चीज़ें कोर्पोरेट कंपनी के फॉर्मेट में बहुत जायदा जगह पाती हो ऐसा नहीं है तो ऐसे में मेरे जेहन में यह सवाल अगले दिन तक कौंधता रहा की क्या कुछ दिन बाद अनुराग की फिल्मो से गीत गायब हो जाएँगे। क्योंकि जब गीत बिकेंगे ही नहीं तो उन पर बहुत अधिक समय तक पैसा खर्च करना शायद इतनी समझदारी की बात नहीं मानी जाएगी।
इस सवाल ने मेरी फ़िक्र बड़ा दी थी,बहुत देर तक मैं सोचता रहा। बहसतलब के पहले दिन का आखिरी दौर शुरू हुआ,मंच पर मैंने एक शक्श को देखा। जिसके बारे में अविनाश जी अभी बताकर गए थे,यह शक्श राज शेखर थे। राज शेखर को देखा तो यकीन नहीं हो रहा था की मैं जिस रंगरेज़ पर तब से झूम रहा हूँ वह इस शक्श की कलम का जादू है। बात करने से राज शेखर बिलकुल अपनी तरह लगे,'' सा को श ''बोलने वाले !
राज शेखर ने आज मेरा सालों से कायम एक मिथ थोड दिया था । दरअसल पिछले कुछ सालों पहले मैंने सुना था की हमारे सागर के गीतकार और भूतपूर्व मंत्री विट्ठल भाई पटेल जिन्होंने ''ना माँगू सोना चाँदी'' और '' ''झूठ बोले कौआ काटे'' जैसे गीतों को लिखा है,वो खुद ना लिखकर,जो उनके यहाँ एक नौकर काम करता था उससे लिखवाते थे और खुद के नाम से फिल्मो में देते थे। यह खबर सागर में कही भी सुनी जा सकती थी,इस जानकारी ने मेरे ऊपर ऐसा असर किया की मुझे अधिकतर लेखक चोर नजर आने लगे थे। .
जब स्वानंद और राज शेखर को सुना,उनके भीतर के लेखक को समझा और उनकी संजीदगी को महसूस किया तो लगा की कही ना कही लेखक सबके अन्दर होता है। वहा से मैंने कोशिश की विट्ठल भाई पटेल जी को लेकर जो खबर है शायद अफवाह है उसे अब धुंधला कर देना चाहिए। मेरी कोशिश पता नहीं कब तक कामयाब रहती है,लेकिन अभी तक कामयाब है।
बहसतलब के दौरान स्वरा भास्कर की उपस्तिथि ने मुझे प्रभावित किया क्योंकि अधिकतर ग्लेमरस एक्टर इस तरह के आयोजनों से कन्नी काटते है। उन्हें सिनेमा के सरोकार या उसके विकास पर बात करने में कोई दिलचस्पी नहीं होती.ऐसे में स्वरा ने बहसतलब में आकर यह आस जगाई है की आगे आने वाले समय में बहसतलब में ऐसे कई और लोग जुड़ेंगे,जिनसे सिनेमा प्रभावित होता है।
दिल्ली की गर्मी में बहसतलब से शारीरिक और मानसिक दोनों तरह का सुकून नसीब हुआ। कुल मिलाकार पिछले बार के बहसतलब से कई कदम आगे। एक दर्शक और श्रोता की हैसियत से आशा करता हूँ की अगली बार बह निर्माता निर्देशक हिम्मत जुटाकर हमारे बीच पहुँच पायेंगे जो कचरा फिल्मो को भी बड़ा गौरवान्तित महसूस करते हुए हमारे बीच परोस रहे है।
जाते जाते सुधीर मिश्रा जी की मीडिया पर की गयी टिप्पड़ी ने सिनेमा पर मीडिया के चिंतन की पोल खोल दी की मीडिया हमसे तो चाहता है की सिनेमा के विकास और वजूद के लिए हम लोग जान दे दें लेकिन वह अपने चैनलों पर २४ घंटे सलमान खान और मुन्नी बदनाम ही दिखाना चाहता है। सिने बहसतलब एक सार्थक मंच साबित हुआ है उम्मीद है आने वाले समय में इसकी महत्वत्ता और जरुरत बहुत जायदा बढेगी।
संजय सेन सागर। हिन्दुस्तान का दर्द ब्लॉग के मोडरेटर है। एम.बी.ए.के स्टुडेंट है,साथ साथ फिल्म लेखन में प्रयासरत है। mr.sanjaysagar@gmail.com या 09907048438 पर संपर्क किया जा सकता है।
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आपका बहुत - बहुत शुक्रिया जो आप यहाँ आए और अपनी राय दी,हम आपसे आशा करते है की आप आगे भी अपनी राय से हमे अवगत कराते रहेंगे!!
--- संजय सेन सागर