♦ तत्याना षुर्लेई
भारतीय सिनेमा के सौ साल की अभी खूब चर्चाएं हैं। लेकिन यह सौ साल इसी साल क्यूं? जबकि यूरोप में तो यह 1995 में मनाया जा चुका है। इसके सैद्धांतिक आधार क्या रहे हैं, क्या हैं? हिंदी में इसकी चर्चा नहीं के बराबर है। सिनेमा यथार्थ है या कल्पना? दस्तावेज है या रूपक? इन्हीं सवालों को तत्याना बहुत ही बारीकी से इस संक्षिप्त से नोट में हमें बताने की कोशिश करती हैं : उदय शंकर
यह लेख मोहल्ला लाइव की सिने बहसतलब के लिए तैयार की जा रही स्मारिका से लिया गया है। स्मारिका का संपादन प्रकाश के रे कर रहे हैं : मॉडरेटर
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सिनेमा बहुत पुराना आविष्कार नहीं है। उसका जन्म 28 दिसंबर 1895 को हुआ, जब लिमिएर (Lumière) बंधु ने पेरिस में अपना नया मशीन दिखाया। एक दिलचस्प बात यह है कि पहला शो ग्रैंड होटल के ‘इंडियन रूम’ मे किया गया। शायद यह जगह एक संकेत था कि आगे चलकर भारत फिल्मों का सबसे बड़ा व्यावसायिक केंद्र बन गया। पहले शो के बाद लोगों को पता चला कि यह आविष्कार कितना अच्छा है और सारी दुनिया बंधुओं की चलती हुर्इ तस्वीरें देखना चाहती थी। आस्ट्रेलिया (Australia) जाते हुए लिमिएर-बंधुओं के सहयोगियों ने मुंबई में रुक कर, 7 जून 1896 को पहली बार भारत में फिल्मों का शो किया।
तथापि भारत और पश्चिम के देशों में एक बड़ा अंतर है। यूरोप और इंग्लैंड में सिनेमा का सौ साल 1995 को मनाया जा रहा था। जिसका मतलब यह है कि पश्चिम के विचार से पहली फिल्म लिमिएर-बंधुओं की चलती हुई तस्वीर थी। भारत की स्थिति बिल्कुल अलग है। राजा हरिश्चंद्र के पहले की किसी भी फिल्म को, जिसे सखाराम भाटवाडेकर उर्फ सवे दादा ने या दादा साहेब फाल्के ने बनाया था, फिल्म नहीं मानी जाती है। सिनेमा का सौ साल राजा हरिश्चंद्र का सौ साल है, जिसमें पहली बार एक कहानी दिखायी गयी। ऐसा अंतर क्यों? इस सवाल का जवाब ढूंढ़ने के लिए हमें सबसे पहले फिल्म के तत्वों के बारे में सोचना चाहिए। अपने इतिहास के आरंभ में फिल्म, सभी लोगों के लिए, तस्वीर उतारने का नया तरीका माना जाता था। चलती हुई तस्वीरें इसलिए महत्त्वपूर्ण मानी गयीं क्योंकि वह दर्शकों को फोटो से ज्यादा वास्तविक लगती थीं। ऐसी तस्वीरें जीवन के प्रलेख मानी जाती थीं, जो सालों बाद पुराने जमाने के बारे में अगली पीढ़ियों को सब कुछ बोलेंगी। इसीलिए, लोग मानते थे कि फिल्मों का भविष्य सिर्फ दस्तावेजीकरण से संबंधित है। आज भी कभी न कभी कहा जाता है कि फिल्मों में दस्तावेजीकरण बहुत आवश्यक है और कुछ लोगों के लिए यह सिनेमा का आधार भी है। फिर भी यहां एक समस्या पैदा हो जाती है, और हम यह सवाल पूछ सकते हैं कि फिल्मों में यथार्थ है क्या? और, ऐसी चीज संभव है? हर फिल्म अपने रचयिता की दृष्टि के आधार पर बनती है और निर्देशक की भावना को दिखाती है। सवे दादा को अपनी पहली फिल्म बनाने से पहले शायद ही किसी कहानी के बारे में सोचना था, या फिर जो कुश्ती-दंगल उन्होंने दिखाया, वे दोनों वास्तविक और उनकी – दृष्टि की थीं, कोई यथार्थवाद नहीं। और, इसी तरह सारी फिल्में बनायी जाती हैं। वे दर्शकों को सिर्फ वह देखने की अनुमति देती हैं, जो उनको दिखायी जाती हैं। लोगों की आंखें वास्तव में फिल्म की आंखें हैं, निर्देशक की आंखें हैं।
सिनेमा के इसी शुरुआती दौर में, एक दूसरा विचार पैदा हुआ, भारत और पश्चिम दोनों जगहों पर, जो लिमिएर-बंधु द्वारा बनी फिल्मों से बिल्कुल अलग था। यूरोप के फ्रांस में रहते हुए जॉर्ज मेलियेस (Gorges Méliès) सिनेमा का एक जादूगर बन गया और भारत मेंदादा साहब फाल्के ने वही काम किया, जो मेलियेस ने फ्रांस में किया। दोनों के लिए फिल्म इसलिए महत्त्वपूर्ण थी कि इसकी मदद से वे अपने दर्शकों को सपने दिखा सकते थे। इसी विचार से यूरोप में भी कुछ लोगों के लिए लिमिएर-बंधु सिर्फ कैमरे का आविष्कारक था, जबकि असल फिल्में मेलियेस के काम से संबंधित थीं। फिल्म की शुरुआत तब हुई, जब इसमें कहानी आ गयी और इस तरह फिल्म का विकास बिलकुल नये रास्ते से होने लगा। सिनेमा के इन शुरुआती महारथियों ने कभी नहीं सोचा था कि फिल्मों की यह योग्यता सबसे महत्त्वपूर्ण हो जाएगी। फिल्में लोगों के लिए सबक भी है तो यथार्थ भी, लेकिन सबसे पहले दर्शकों को सपनों की एक दुनिया में ले जाने वाली वह नानी है, जिसकी उम्र सौ साल या उससे ज्यादा हो गयी है, साथ ही साथ सपनों की दुनिया में ले जाने के उसके कौशल में भी इजाफा हुआ है। फिल्मों में कुछ चीजें ऐसी हो सकती हैं जो आसपास वास्तव में नहीं होती हैं और यह सब करतब दर्शकों के लिए कभी-कभी यथार्थ से ज्यादा आकर्षक होता है। हमने देखा कि चलती हुर्इ तस्वीरें हमेशा कोई न कोई कहानी दिखाती हैं, तो शायद भारत में फिल्मों का इतिहास इसलिए राजा हरिश्चंद्र के समय से शुरू होता है क्योंकि पहली बार, इसमें दिखायी गयी कहानी लोगों को अदभुत लगी। क्या यही कहानीपन महत्त्वपूर्ण फिल्मों की प्रवीणता है? क्या हमारे प्रश्न का उत्तर यहां है?
नहीं। दादा साहब फाल्के नेराजा हरिश्चंद्र से पहले भी कुछ ऐसी फिल्में बनायीं थीं, जहां जादूगरी से भरे करतब थे, जिन्हें लोग वास्तविक दुनिया में नहीं देख पाते। उन सबमें शायद कोई कहानी नहीं थी लेकिन अदभुत चीजें थीं इसलिए हम पूछ सकते हैं कि उनकी कोई और फिल्म पहली भारतीय फिल्म क्यों नहीं कही जाती? मुझे लगता है कि ऐसा इसलिए हुआ कि दर्शकों के लिए आज भी इन दो चीजों की आवश्यकता है। पहला कोई अदभुत कहानी, और इसके अतिरिक्त ऐसी दुनिया जो हमारे आसपास नहीं है। अगर भारत में फिल्मों का सौ साल, पहली फीचर फिल्म का सौ साल माना जा रहा है, तो इसका मतलब यह भी हो सकता है कि भारतीयों के लिए फिल्म में जो बात सबसे महत्त्वपूर्ण है, वह यह कि इसमें सपना बुनने की शक्ति है।
यूरोप में कुछ लोगों के लिए सिनेमा का आधार पुराने जमाने के दर्शन से संबंधित है, जो प्लेटो की गुफा की तरह है। प्लटो ने जीवन और दुनिया की वास्तविकता के बारे में लिख कर एक ऐसी स्थिति का वर्णन किया, जहां कुछ लोग गुफा में बैठे हैं। वे प्रवेश-द्वार से विमुख होकर बाहर नहीं, दीवार को देखते हैं। उन लोगों के पीछे कुछ हो रहा है, वास्तविक दुनिया है, वास्तविक चीजें और वास्तविक जीवन भी। लेकिन लोग जो देख पाते हैं, वह केवल इस यथार्थ की छाया है, जो दीवार पर दिखायी जाती है। यथार्थ लोगों के पीछे है। और, जिसे वे देख सकते हैं वह यथार्थ से मिलता-जुलता होकर भी उससे अलग ही है। सिनेमा घर कुछ लोगों के लिए ऐसी ही गुफा है। चित्रपट पर कुछ न कुछ तो दिख जाता है, जो सच्चाई जैसा है। लेकिन वास्तव में, दर्शक सिनेमा के परदे पर वैसे ही देख सकते हैं, जैसे गुफा में लोग दीवार पर देख सकते हैं, जो कि सच्चाई से बहुत दूर है। फिर भी यूरोप में फिल्म के दर्शकों के लिए यह सबसे महत्त्वपूर्ण है कि फिल्म जिंदगी से मिलती-जुलती चीज है। जो फिल्म सपनों की तरह कहानी दिखाती है, बहुत लोगों के विचार में वह कोई कला नहीं है। फिल्मों के इतिहास की शुरुआत से ही यह सबसे बड़ी समस्या थी। दो तरह के विचारों के बीच टकराहट थी। आज भी उन दोनों विचारों में से एक ऐसा है, जो यह मानता है कि फिल्मों को सिर्फ यथार्थ दिखाना चाहिए और दूसरा यह कि फिल्मों में सबसे अच्छी वह दूसरी दुनिया है, जो वास्तविक दुनिया से बहुत अलग है।
प्लेटो का विचार लेकर हम फिल्मों के बारे में यह कह सकते हैं कि वह दुनिया जो चित्रपट पर दिखायी जाती है सही नहीं है और वास्तव से कुछ बेकार भी है क्योंकि वास्तव से अच्छा कुछ नहीं हो सकता। भारतीय फिल्मों की स्थिति यूरोप से अलग है क्योंकि इसका दार्शनिक आधार भी कुछ और है। भारतीय सिनेमा का दार्शनिक आधार जो कि प्लेटो की गुफा से मिलता-जुलता भी है और अलग भी है। हम कह सकते हैं कि अगर यह सब कुछ जो आसपास है सिर्फ माया है और फिल्मों का यथार्थ, दुनिया से इतना अलग होता है तो शायद सिनेमा में रचा गया यथार्थ ही मूल यथार्थ है। शायद, सिनेमा लोगों के लिए इतना मजेदार इसलिए है क्योंकि जो वे फिल्मों में देखते हैं वह यथार्थ है, माया नहीं। यह तो सिर्फ रूपक है लेकिन इसका एक छोटा दार्शनिक आधार तो हो ही सकता है। भारत का सिनेमा जब सपनों का कारखाना बन गया, तब इसे सिनेमा माना गया।
जैसे पहले बताया कि सब फिल्मों की कोई कहानी होती है और कोई फिल्म शुद्ध यथार्थ दिखा नहीं सकती। अगर सारी दुनिया माया है, तो वास्तविकता ढूंढने के लिए कुछ ऐसा चाहिए था जो लोगों के आसपास से बिलकुल अलग था। इसलिए फिल्मों का इतिहास फाल्के की फिल्म से शुरू हुआ। क्योंकि, सच्चा यथार्थ सिर्फ कुछ ऐसा ही हो सकता है, जिसे दर्शकों के आसपास से विरोध हो। मुझे आशा है कि इस तरह की फिल्मों का अंत कभी नहीं आएगा क्योंकि मनोरंजन और चमत्कार आज भी सिनेमा में बहुत महत्त्वपूर्ण हैं।
मोहल्ला लाइव से साभार प्रकाशित
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आपका बहुत - बहुत शुक्रिया जो आप यहाँ आए और अपनी राय दी,हम आपसे आशा करते है की आप आगे भी अपनी राय से हमे अवगत कराते रहेंगे!!
--- संजय सेन सागर