♦ अविनाश
सेंसर बोर्ड गैंग्स ऑफ वासेपुर को लेकर जिस असमंजस में था, वह खत्म हो गया और कल शाम साफ हो गया कि इस फिल्म की रीलीज में अब कोई अड़चन नहीं है। कल रात भी भोजपुरी फिल्मों के निर्देशक किरणकांत वर्मा इस बात को लेकर तंज कर रहे थे कि फिल्मों में थोड़ी मर्यादा तो बाकी रहे। मेरी लाइन यह थी कि क्या हम सब इतने बड़े तोप हैं कि समाज को सिखाने के अलावा कुछ नहीं कर सकते? रचना में समाज जैसा है, वैसा आता है। वैसा लाने की हिम्मत भी कम लोगों में होती है। मंटो, राजकमल चौधरी, राही मासूम रजा का विरोध करने वाले, उनके साहित्य को सड़कछाप बताने वाले साहित्य और रचना के नैतिक सिपाही उनके समय में भी कम नहीं थे।
अनुराग कश्यप ने वासेपुर की मनोहर गालियों को जितने सुरुचिपूर्ण ढंग से संयोजित किया है, वह यथार्थ से भी ज्यादा यथार्थ लगता है। क्या यह गलत है? रचना और समाज के बीच में लेखक या निर्देशक को परदे का काम करना चाहिए? ये ऐसे सवाल हैं, जिन पर अरसे से अदब के हर मंच पर बात होती रही है और हमेशा से ही इस मसले पर लोगों के बीच दो राय रही है।
चंद लोग, जो परदा होने की जगह बेपरदा होने के हामिल रहे हैं, हैं, उन्हें इस विनिमय केंद्रित समय में संदेह की निगाह से देखा जाता है कि वे समाज की गंदगी बेचते हैं। लोग जैसे चाहें, देखें… रचनाकार किसी की निगाहों की परवाह नहीं करता। अनुराग कश्यप को बधाई दीजिए कि उन्होंने गैंग्स ऑफ वासेपुर बनाते हुए समाज के चरित्रवान लोगों के कानों की परवाह नहीं की है।
थोड़ी झलकी देखिए…
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--- संजय सेन सागर