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दिबाकर बनर्जी की पॉलिटिकल थ्रिलर ‘शांघाई’


-अजय ब्रह्मात्‍मज 
 हर फिल्म पर्दे पर आने के पहले कागज पर लिखी जाती है। लेखक किसी विचार, विषय, मुद्दे, संबंध, भावना, ड्रामा आदि से प्रेरित होकर कुछ किरदारों के जरिए अपनी बात पहले शब्दों में लिखता है। बाद में उन शब्दों को निर्देशक विजुअलाइज करता है और उन्हें कैमरामैन एवं अन्य तकनीशियनों की मदद से पर्दे पर रचता है। ‘शांघाई’ दिबाकर बनर्जी की अगली फिल्म है। उन्होंने उर्मी जुवेकर के साथ मिल कर इसका लेखन किया है। झंकार के लिए दोनों ने ‘शांघाई’ के लेखन के संबंध में बातें कीं।  

पृष्ठभूमि 

उर्मी - ‘शांघाई’ एक इंसान की जर्नी है। वह एक पाइंट से अगले पाइंट तक यात्रा करता है। दिबाकर से अक्सर बातें होती रहती थीं कि हो गया न ! समाज खराब है, पॉलिटिशियन करप्ट हैं, पढ़े-लिखे लोग विवश और दुखी हैं। ऐसी बातों से भी ऊब हो गई है। आगे क्या बात करती है? 

दिबाकर - अभी तो पॉलीटिशयन बेशर्म भी हो गए हैं। वे कहते हैं कि तुम ने मुझे बुरा या चोर क्यों कहा? अभी अन्ना आंदोलन में इस तरह की बहस चल रही थी। ‘शांघाई’ में तीन किरदार हैं। वे एक सिचुएशन में अपने ढंग से सोचते और कुछ करते हैं। ‘लव सेक्स और धोखा’ के बाद मैंने उर्मी से चालू अंदाज में कहा कि भारत में पॉलिटिकल थ्रिलर फिल्में नहीं बनतीं। चलो हम बनाते हैं। कोस्टा गवारस की ‘जी’ (1969) जैसी फिल्म बनाते है। उर्मी ने उसी समय मुझ से पूछा कि तुम ने किताब पढ़ी है क्या? वसिलिस वसिलिकोस ने वह किताब लिखी थी। मुझे तब तक पता नहीं था कि ऐसी कोई किताब भी है। उर्मी के पास वह किताब बीस सालों से है।  

उर्मी - मैंने दिबाकर को वह किताब दी।  दिबाकर ने किताब पढऩे के बाद कहा कि हम इसे आज के समय में लिखेंगे। आज की कहानी लिखने में हम एक लेयर नीचे उतरे कि कैसे नियम-कानून में रह कर भारत में भ्रष्टाचार चल रहा है। हम सभी अच्छी दुनिया में जीना चाहते हैं, लेकिन एक समय के बाद सिनिकल हो जाते हैं कि कुछ भी बदला नहीं जा सकता।  

दिबाकर - यहां से हमारी फिल्म का विचार बढ़ा। उस समय मैंने पॉलिटिक्स को समझने की कोशिश की। क्या है पॉलिटिक्स? फिल्मों और टीवी ने बताया है कि कुछ सफेदपोश लोग सफेद घरों में कुछ कर रहे होते हैं। मेरे खयाल में अगर आप को अपने घर से दफ्तर की आधे घंटे की दूरी ढाई घंटे में तय करनी पड़ती है तो वह पॉलिटिक्स है। इसका मतलब है किसी ने कहीं बैठ कर कुछ ऐसा किया है या नहीं किया है, जिसकी वजह से आपकी यात्रा ढाई घंटे की हो गई है। रात के दस बजे आपका सोने का मन कर रहा है, लेकिन बिल्डिंग के नीचे या पड़ोस में इतनी जोर से लाउडस्पीकर बज रहा है कि आप को नींद नहीं आ रही है ... फिर भी आप कुछ कर नहीं सकते। यह पॉलिटिक्स है। मुंबई में कभी बिजली नहीं जाती, लेकिन कुछ इलाकों में कभी बिजली नहीं आती। यह पॉलिटिक्स है।  पॉलिटिक्स का सीधा असर हमारे दैनिक जीवन पर पड़ता है। इसे ज्यादातर लोग नहीं समझ पाते। हम सभी पॉलिटिकल एनीमल हैं और राजनीति के परिणाम हैं। हमारी जिंदगी राजनीति तय करती है। यह फिल्म उस पॉलिटिक्स की बात कर रही है।  

उर्मी - फिल्ममेकर ऐसे मुद्दों को नहीं छूते। राजनीति पर फिल्म बनाते समय हम एक बुरा पॉलीटिशियन रख लेते हैं और उसे अंत में मार देते हैं।  दिबाकर - उससे राहत मिल जाती है। पहले बुरा पॉलिटिशियन दिखाओ। फिल्म के अंत में हीरो उसे मार देगा। इस से बहुत राहत मिलती है कि देखो बुरे का अंत हो गया।   

फिल्म के तीन मुख्य किरदार  

टी ए कृष्णन 
टी ए कृष्‍णन(अभय देओल)- शहर के आला अफसर हैं। टी ए कृष्णन बहुत पावरफुल अधिकारी है। उसके कलम से शहर का नक्शा बदल सकता है। इस शहर में अरबों डॉलर का निवेश हो रहा है। शहर को विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाया जा रहा है। उस शहर का विकास राज्य की सत्ताधारी पार्टी के लिए उस साल के चुनाव का झंडा है। उन्हें बताना है कि हम ने इंडिया बिजनेश पार्क बना कर दिखा दिया। और कोई पार्टी अभी तक यह नहीं कर सकी। केंद्र सरकार भी नहीं कर सकी। कृष्णन को आईबीपी की विशेष जिम्मेदारी उसे मिली है। मुख्यमंत्री उस पर बहुत भरोसा करती हैं। वह आईबीपी के इनवेस्टमेंट और वेंचर की सारी डील देख रहा है। कृष्णन भी विकास पर विश्वास करता है। कृष्णन 91-92 के बाद के विकास में यकीन रखता है। वह आईआईटी से निकला है और सिविल सर्विसेज की परीक्षा देकर आईएएस ऑफिसर बना है। उसने एमबीए भी किया। उसके हाथ में पावर है। उसके हाथ में इंडिया की डेस्टिनी है। वह नेहरू के प्रभाव के अपने पिता से आगे है। वह इंडिया शाइनिंग का नमूना है। वह ‘ट्रिकल डाउन इफेक्ट’ को कारगर मानता है। ऊपर की तरक्की चूकर नीचे आ जाएगी।  

जोगिन्दर परमार 
जोगिन्‍दर परमार(इमरान हाशमी)जोधपुर के भगोड़े राजपूत हैं। जोगी परमार को इस दुनिया के बारे में कुछ नहीं पता। आज उसे महीने में 8000 मिल रहे हैं। उसको अगले महीने से दो लाख बनाने हैं। वह आम भारतीय है। उसे जल्दी से अमीर होना है। उसके लिए कोई भी तरीका गलत नहीं है। वह कुछ भी कर सकता है। रोमांटिक लडक़ा है। रोमांटिक घपले की वजह से ही उसे जोधपुर छोडऩा पड़ा था। सात-आठ साल से यहां है। अगर आप से मिलेगा तो सबसे पहले अपने परिचय में कहेगा कि मैं पत्रकार हूं। फिर शाम को दारू पीने के बाद फोटोग्राफर हो जाएगा। कभी कहेगा कि वीडियोग्राफर हूं। कोई लडक़ी आ जाए तो उसे फोटो शूट का ऑफर देगा। कभी कहेगा कि रात में आ जाओ तो ऑडिशन कर दूंगा। उसमें कुछ और शूट हो जाता है और डीवीडी बन जाती है। वह हर तरह का काम करता है।  उसके पास 3-4 विजिटिंग कार्ड हैं। 

 शालिनी सहाय
शलिनी सहाय (कल्कि कोइचलिन)-आधी फिरंग और आधी हिंदुस्तानी है , मतलब न घर की न घाट की। इस शहर में उसके पिता का पुश्तैनी घर है। वह विदेश में पढ़ती है। यहां सारा मामला संभालने आई है। उसके पिता जनरल थे। वे एक गबन के मामले में दिल्ली की जेल में है। वह आधी भारतीय है, लेकिन बाहर जाकर पढ़ाई की है। उसकी गोरी चमड़ी है। बोलती हिंदी है, लेकिन उसकी चाल-ढाल और भाषा में भिन्नता है। कस्बे में सभी उसे विदेशी ही समझते हैं। सभी उससे अंग्रेजी में बात की शुरुआत करते है। वे सभी उसे बाहर की ही मिर्ची मानते हैं। उसे ज्यादा सीरियसली भी नहीं लेते। शहर में सभी जानते हैं कि वह जनरल सहाय की बेटी है। वह इस शहर और दुनिया से बहुत नाराज है। उसके अंदर गुस्सा उबल रहा है। 24 साल की शालिनी अभी तक आदर्श ख्यालों में जीती है। 

 ... और डा अली अहमदी 
डॉ. अली अहमदी (प्रसेनजीत) सोशल वर्कर है। यह भूमिका प्रसेनजीत निभा रहे हैं। वे डायनैमिक इंसान हैं। देश में जिस तेजी से करपशन बढ़ा है, उसी तेजी से ऐसे विद्रोही नेता बढ़े हैं। उनकी प्रतिष्ठा यही है कि वे झटपट विकास के कई प्रोजेक्ट बंद करवा चुके हैं। वे इस शहर में आने वाले हैं। उनके आने की खबर से सरगर्मी है। शहर के प्रशासन में खलबली है। वे एहतियात बरत रहे हैं। डॉ. अहमदी आते हैं। भाषण देते हैं। यहां एक पेंच है कि शालिनी सहाय न्यूयार्क में डॉ ़ अहमदी की स्टूडेंट रही हैं। उनके बीच एक अजीब सा अट्रैक्शन और केमिस्ट्री है। शालिनी अपने जज्बात कह नहीं पाती। डॉ. अहमदी ऊर्जावान और जुझारू सोशल रिफार्मर हैं। ऐसे लोग पॉलिटिशयन और फिल्म स्टार के मिक्स होते हैं। उनका चमत्कारी व्यक्तित्व है। एक स्टार पावर है उनमें। डॉ. अहमदी की बातों का शहर में असर हुआ है। स्थानीय लोग मान जाते हैं कि आईबीपी के लिए मिला मुआवजा उचित नहीं है। वह कम नहीं है। डॉ. अहमदी इस मुहिम में हैं। तभी एक्सीडेंट होता है और डॉ. अहमदी कोमा में चले जाते हैं।  शहर उस शहर में अनेक गतिविधियां जारी हैं। आईबीपी बन चुका है। पैसे लग रहे हैं। एक लोकल पार्टी यहां मजबूत है, जो राज्य की सरकार में भी शामिल है। दोनों पार्टियों का गठबंधन है। आईबीपी उनके लिए मंदिर है। वे उसे बनाने की ठान चुके हैं। उन्होंने शहर, राज्य और देश को सपना दिया है कि यह शहर रातों रात शांघाई बन जाएगा। मॉल, फ्लायओवर, स्काई स्क्रैपर सब आ जाएंगे। सबके लिए नौकरी होगी। हर घर में खुशहाली होगी। हर घर में चार टीवी होंगे। हर कमरे के लिए एक। इस तरह के सपने सभी देख रहे हैं। राजधानी में कुछ नया करना थोड़ा मुश्किल रहता है। सबकी नजर रहती है। ऐसे स्पेशल जो ना छोटे शहरों या कस्बे में ही खोले जाते हैं। स्थानीय पार्टी की सांठगांठ से सब होता है। जंगल कटते, बस्ती बसते, खान-खदान चालू होते और स्पेशल जोन बनने के किससे आप जानते ही हैं। स्थानीय पार्टी जन जागरण मोर्चा  इस मुहिम में है। राज्य सरकार तरक्की चाहती है। एक महिला मुख्यमंत्री हैं। उनका इंटरनेशनल आउटलुक है। प्रो बिजनेश हैं। किसी कारपोरेट कंपनी की सीईओ जैसी हैं। विकास चाहती हैं। देश में उनके प्रति धारणा है कि यह सीएम तो एक दिन पीएम बनेंगी।     

ड्रामा   
हमारी फिल्म की वास्तविक शुरुआत यहां से है। शालिनी सहाय को कहीं से भनक लगी थी कि अगर डॉ . अहमदी आए तो उन्हें वापस नहीं जाने दिया जाएगा। इस भनक की वजह से शालिनी मानती हैं कि यह हत्या है। चूंकि दुर्घटना सभी के सामने हुई है और ड्रायवर ने मान लिया है कि वह नशे में था। वह किसी भी सजा के लिए तैयार है। डॉ . अहमदी की पत्नी यहां आती हैं। वह पेशे से वकील हैं। यहां आईबीपी का उद्घाटन होने वाला है। डॉ . अहमदी की बीवी इनक्वायरी की मांग करती है। राज्य सरकार मान लेती है। कृष्णन को जांच की जिम्मेदारी दी जाती है। मुख्यमंत्री लोकप्रिय फैसला लेती हैं कि जांच होगी। कृष्णन उलझन में आ जाता है। यहां तक तो हम ने सोचा था  ...इसके बाद तीनों की क्रियाएं-प्रतिक्रियाएं सिचुएशन और सीन से तैयार होता है। कृष्णन कहता है कि यह तो पॉलिटिकल मामला है। वह द्वंद्व में है। कृष्णन को मुख्यमंत्री ने जिम्मेदारी दे दी है। वह एक स्कूल में जांच कमेटी की मीटिंग कर रहा है, जहां बाहर में बच्चे वालीबाल खेल रहे हैं। कृष्णन का पाला गंदे अविकसित भारत के लोगों से होता है। उसे वहां भी कूलर, कछुआ छाप, मिनरल वाटर और गुडनाइट चाहिए।   यहां से हम रियल कहानी में प्रवेश करते हैं। हमने सभी किरदारों को रियल इंडिया में रखा है। कोई भी किरदार फिल्मी और हीरोइक नहीं है। रियल इंडिया की समस्या उठायी जा रही है। 

(अजय ब्रह्मात्‍मज। मशहूर फिल्‍म समीक्षक। दैनिक जागरण के मुंबई ब्‍यूरो प्रमुख। सिनेमा पर कई किताबें – जैसे, ऐसे बनी लगान, समकालीन सिनेमा और सिनेमा की सोच। महेश भट्ट की किताब जागी रातों के किस्से : हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री पर अंतरंग टिप्पणी के संपादक। चवन्‍नी चैप नाम का ब्‍लॉग। उनसे brahmatmaj@gmail.com पर संपर्क करें।)

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