अनुराग कश्यप से अजय ब्रह्मात्मज की बातचीत
संदर्भ : कान फिल्म फेस्टिवल और गैंग्स ऑफ वासेपुर
फिल्मकार अनुराग कश्यप से वरिष्ठ फिल्म समीक्षक अजय ब्रह्मात्मज की यह बातचीत उनके कान फिल्म फेस्विल जाने के पहले हुई थी। जैसा कि अजय ब्रह्मात्मज सूचना देते हैं, उस दिन अनुराग कश्यप बहुत व्यस्त थे। बड़ी मुश्किल से देश-विदेश के पत्रकारों से बातचीत और इंटरव्यू के बीच-बीच में मिले समय में यह साक्षात्कार हो पाया। इसका पहला अंश पढ़िए…मॉडरेटर
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कान में चार फिल्मों का चुना जाना बड़ी खबर है, लेकिन फिल्म इंडस्ट्री में जैसे कोई हलचल ही नहीं है?
हम क्या कर सकते हैं। कुछ लोगों के व्यक्तिगत संदेश आये हैं। कुछ नहीं कह सकते। हमारी इंडस्ट्री ऐसी ही है। मेनस्ट्रीम की कोई फिल्म चुनी गयी रहती, तो बड़ी खबर बनती। इंडस्ट्री कभी हमारी कामयाबी को सेलिब्रेट नहीं करती।
हर छोटी बात पर ट्विट की बाढ़ सी आ जाती है। इस बार वहां भी सन्नाटा छाया है?
उन्हें लगता होगा कि हम योग्य फिल्ममेकर नहीं हैं। ये कौन से लोग हैं, जिनकी फिल्में जा रही हैं? इनसे अच्छी फिल्में तो हम बनाते हैं। इंडस्ट्री की यह भी तो भावना है। इंडस्ट्री का एक ही मानना है कि मैं जो फिल्में बनाता हूं, वह बहुत ही डार्क और वाहियात होती हैं। उन्हें यह भी लगता होगा कि ऐसी फिल्में कैसे चुन ली गयीं? समस्या यह है कि यहां के लोग फैशन के तहत कान जरूर जाते हैं, लेकिन जाकर वहां फिल्में नहीं देखते। ये नहीं देखते कि कैसी फिल्में बन रही हैं? उन फिल्मों को देख लें तो फिर मेरी फिल्में कैंडीप्लॉस लगेगी।
कान फिल्म फेस्टिवल कितना महत्वपूर्ण है?
सबसे पहले तो लोगों को यही नहीं मालूम कि फेस्टिवल का उद्देश्य क्या होता है? बहुत सामान्य उदाहरण दूं तो यह गांव का मेला है। मेले में हर तरह की चीजें बिकने आती हैं। फिल्म फेस्टिवल के मेले में फिल्में बेची जाती हैं। दिखायी जाती हैं। प्रदर्शित की जाती हैं। कान एक सांस्कृतिक बाजार की तरह है। एक स्थान है? फ्रांस के संस्कृति मंत्रालय से कान में ऐसे आयोजन की मंजूरी मिली हुई है। वहां हर तरह के फेस्टिवल होते हैं। फिल्म फेस्टिवल के बाद पोर्न फिल्म फेस्टिवल होता है। उसके बाद एड फिल्मों का, फिर टीवी शोज का … इस तरह सालो भर कोई न कोई फेस्टिवल चलता रहता है। कान की अर्थव्यवस्था फेस्टिवल पर निर्भर है। होटल, समुद्रतट, सैरगाह है। वेमोस में विएवाल है। विएनाव में हर समय फेस्टिवल चलते रहते हैं। कान में 1946 में एक बॉडी ने फिल्म फेस्टिवल शुरू की। तब कंपीटिशन होता था। पहले साल ही भारत की ‘नीचा नगर’ को पुरस्कार मिला था। फिर ‘Un Certain Regard’ चालू हुआ, क्योंकि अलग ढंग और सोच की फिल्मों को कंपीटिशन में जगह नहीं मिलती थी। ‘Un Certain Regard’ में मतलब ‘ए सर्टन पाइंट ऑफ व्यू’ यानि अलग दृष्टिकोण। 1966 में लोगों ने विद्रोह कर के डायरेक्टर्स फोर्टनाइट शुरू किया। तब गोरार सबसे आगे थे। फिर क्रिटिक वीक आरंभ हुआ। इस प्रकार तीन बॉडी तीन फेस्टिवल चलाती है, जिनमें कुल मिलाकर छह कैटेगरी होती है। उसमें लोग बदले जाते हैं। फेस्टिवल चलता रहता है। कान में चल रहे इस फेस्टिवल को सम्मिलित रूप से कान फिल्म फेस्टिवल कहा गया।
फिर इसके बाद मार्केट आता है। मार्केट में सभी खरीदारों की नजर पहले उन फिल्मों पर होती हैं, जो चुनी गयी रहती हैं। जिनकी नहीं चुनी जाती है, वे भी मार्केट में थिएटर किराये पर लेकर अपनी फिल्में दिखा सकते हैं। वहां फर्स्ट कम फर्स्ट सिस्टम है। वहां स्क्रीनिंग बुक करनी होती है। मार्केट में नेटवर्किंग चलती है। मार्केट में उन फिल्मों पर ज्यादा ध्यान रहता है, जो पहले दूसरे फेस्टिवल में जा चुकी हैं, लेकिन अभी बिकी नहीं हैं।
फेस्टिवल में जब फिल्में चुनी जाती हैं, तो उस पर दुनिया का ध्यान जाता है। ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ की बात करूं तो हर लिस्ट में उसका नाम है। इसका मतलब भीड़ होगी। लोग देखेंगे। फिल्म को नया बाजार मिल सकता है। फिल्म सभी की नजर में आ जाती है, तो उसे एक पुश मिल जाता है। कान की अपनी एक प्रतिष्ठा है। कान का चुनाव बेहतर माना जाता है। आपकी फिल्म वहां चुन ली गयी। इसका मतलब है कि साल की बेहतरीन फिल्मों में आपकी फिल्म है। इससे फायदा होगा। हमारी (भारत की) फिल्मों को कभी उस तरह का दर्जा नहीं मिला। हमारी फिल्में सिर्फ हिंदुस्तानी दर्शकों के लिए बनती हैं। ऐसी फिल्म के बारे में पश्चिम की धारणा भी सीमित रही है। वे बॉलीवुड को ही पूरा इंडियन सिनेमा मान लेते हैं, जो कि है नहीं। तमिल और मराठी में जो फिल्में बन रही हैं, उसे लोग देख ही नहीं पा रहे हैं। फेस्टिवल की एक मुख्य शर्त होती है कि फिल्म वहां से पहले कहीं देखी नहीं गयी हो। मराठी और तमिल की बेहतरीन फिल्मों की जानकारी रिलीज के बाद मिलती है। कई बार वह भी नहीं मिलती। वे हमसे बेहतर फिल्में बना रहे हैं। रास्ता खुलेगा उन लोगों के लिए भी।
इस साल की भागीदारी तो अच्छी है?
इस साल तो बहुत ही अच्छा है। फिर भी कंपीटिशन में एक भी फिल्म नहीं है। याद नहीं कि आखिरी भारतीय फिल्म कब कंपीटिशन में गयी थी। शायद एमएस सथ्यू की ‘गर्म हवा’ आखिरी फिल्म थी। वहां पहुंचना जरूरी है। वहां पहुंचने पर ही हम फोड़ेंगे। अभी तक हम फोड़ नहीं पाये हैं। अभी हम अंदर घुसे हैं।
क्यों नहीं पहुंच या फोड़ पा रहे हैं हमलोग?
हमलोग परवाह नहीं करते। हमारी सोच संकीर्ण हो गयी है। हम यही सोच कर खुश होते हैं कि अपने दर्शकों के बीच फिल्म चल रही है न? तमिल सिनेमा को हिंदी में एक टिकट नहीं बेचना पड़ता। वे आत्मनिर्भर हैं। हिंदी सिनेमा हिंदुस्तान के बाहर की परवाह नहीं करता। बीच में हुआ भी तो एनआरआई के बारे में सोचा गया। हमें किसी कान या फेस्टिवल की जरूरत नहीं होती। इसका बुरा असर है कि हम ग्रो भी नहीं करते। कूपमंडूक बने हुए हैं। हम कंजरवेटिव और मौरिलिस्टिक फिल्में बनाते हैं। मुझे इसलिए जाने की जरूरत पड़ती है कि भारत के दर्शक मेरी फिल्म देख कर बोलते हैं कि अरे ये क्या बना दिया? इंडियन डायस्पोरा तो और संकीर्ण है। वह तो भाग जाएगा। मेरा मार्केट मुझे मालूम है। वह फेस्टिवल के रास्ते से ही मिलेगा।
क्यों ऐसा हुआ है?
सच कहूं तो मेरी फिल्में यहीं के परिवेश की हैं। दर्शकों तक पहुंचती हैं तो वे पसंद भी करते हैं। समस्या एक्जीबिटर्स और डिस्ट्रिब्यूटर्स की है। उन्हें मेरी फिल्में यहां की नहीं लगतीं। मैं थोड़ा अलग काम कर रहा हूं। उन्हें लगता है कि मेरी फिल्मों का परिवेश हिंदुस्तानी नहीं है। वे मुझे स्पेस नहीं देते। मेरी फिल्में दर्शकों तक नहीं पहुंच पातीं। आज ‘गुलाल’ के कितने प्रशंसक हैं? ज्यादातर वे हैं, जिन्होंने टीवी पर देखी हैं। थिएटर में लगी ही नहीं। डिस्ट्रिब्यूटर एक्जीविटर दीवार बन कर खड़ा है। उसका माइंडसेट बदलेगा। तभी सीनेरियो बदलेगा।
गैंग्स ऑफ वासेपुर क्या है?
यह ठेठ हिंदुस्तानी फिल्म है। सच्ची कहानी है। यह धनबाद की कहानी है। माफिया की उत्पत्ति कैसे हुई। क्यों बना, क्या बना, क्या हाल है आज? लेकिन कहानी कहने के लिए डाक्यूमेंट्री नहीं बना सकता था। एक परिवार के जरिये कहानी कही है। एक परिवार की तीन पीढ़ियों की कहानी है। अगर यह वर्क करती है तो ऐसी और भी बहुत चीजें करने का मौका मिलेगा।
फिल्म का ढांचा शुरू से ही तय था क्या?
मैंने तो पहले पूरी कहानी लिखी। इसे तीन हिस्सों में भी बना सकता था। 240 पन्नों की कहानी है। कहानी काटना नहीं चाहता था। कहानी काटकर ‘ब्लैक फ्राइडे’ में देख चुका था। दो हिस्सों में होने के बावजूद कहानी भागती है। लोगों ने कहा कि थोड़ी और लंबी होनी चाहिए थी। कहानी ठहरती नहीं, भागती है।
भारत में इसकी रिलीज कैसे होगी? एक तो 22 जून को रिलीज होगी।
दूसरे हिस्से का अभी तक नहीं किया है। भारतीय दर्शक एक साथ यह फिल्म नहीं देख सकेंगे। थिएटर वालों को लगता है कि साढ़े पांच घंटे की फिल्म कैसे लगाएंगे? दो इंटरवल दें तो भी पता नहीं दर्शक आएंगे या नहीं? दिन में दो ही शो दिखा पाएंगे? फिर टिकट का क्या होगा? अच्छी बात है कि दोनों इंपेपेंडेट फिल्म भी है। 80 प्रतिशत फिल्म पूरी हो जाती है। पहले और दूसरे हिस्से का अंत होता है। कहानी पकड़ेगी नहीं तो दूसरा पार्ट अगले दिन रिलीज होने पर भी दर्शक देखने नहीं जाएंगे। कहानी पकड़ लेगी तो एक-दो महीने का इंतजार भी चलेगा। ‘लॉर्ड ऑफ द रिंग्स’ तीन पार्ट में बनी थी और पूरी कहानी तीसरे पार्ट में आकर खत्म होती है। तीन साल में रिलीज हुई। इस फिल्म के तीनों पार्ट को लोगों ने देखा।
वायकॉम 18 के आने से ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ को कितना लाभ हुआ?
वायकॉम 18 आगे नहीं आता तो फिल्म बन ही नहीं पाती। यह फिल्म और भी लोगों ने सुनी। सब घबराये हुए थे कि कैसी फिल्म होगी। दो पार्ट में है। स्टार नहीं है। महंगी भी है। वायकॉम ने यह सब नहीं देखा। उन्होंने कहानी सुनी। विश्वास जताया कि करते हैं। महंगी तो उन्हें भी लगी थी, लेकिन उन्होंने विश्वास किया। इसलिए फिल्म बन पायी। वायकॉम मेरे साथ जुड़ा रहा। यही नहीं ‘शैतान’, ‘येलो बूट्स’ और ‘अय्या’ भी बनायी। ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ भी बनायी मेरे साथ डिफिकल्ट फिल्में कीं।
आप बार-बार महंगी फिल्में क्यों कह रहे हैं। इन दिनों जितनी भी फिल्में बन रहीं हैं, उनमें तो आप ऐसी दस फिल्में बना सकते हैं?
यह फिल्म मेरे हिसाब से महंगी है। मैंने अभी तक इतनी महंगी फिल्म नहीं बनायी। मार्केट के हिसाब से महंगी फिल्म नहीं है। ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ बीस करोड़ में बनी है। इन दिनों तो सौ-दो सौ करोड़ की भी फिल्में बन रही हैं। इसके पहले मेरी फिल्म ‘देव डी’ छह करोड़ की फिल्म थी।
रिलीज की क्या प्लानिंग है?
हमलोग इसे मल्टीप्लेक्स और सिंगल स्क्रीन दोनों जगह रिलीज करेंगे। अभी तक की यह मेरी सबसे बड़ी रिलीज होगी। मेरे ख्याल में लगभग हजार प्रिंट तो रिलीज होंगे ही।
आपने कहा कि कान फिल्म फेस्टिवल जाने से आपकी फिल्म को नये खरीददार मिल सकते हैं। अभी क्या स्थिति है?
हमें एक इंटरनेशनल एजेंट मिला है – एलड्राइवर। हमलोगों की कोशिश है कि पूरे यूरोप में बिके। इस फिल्म को लेकर हमलोग ऑस्ट्रेलिया भी जा रहे हैं। वहां यह फिल्म कंपीटिशन सेक्शन में है। यह फिल्म ऐसे-ऐसे मार्केट में जाएगी जो उन देशों के मेनस्ट्रीम मार्केट हैं। मैं सिर्फ इंडियन डायस्पोरा पर निर्भर नहीं रहना चाहता हूं।
इंटरनेशनल स्तर पर आज अनुराग कश्यप की एक पहचान है। मुझे मालूम है आप कितने धैर्य, लगन और अपमान के बावजूद इस कोशिश में लगे रहे। हालांकि ऊपरी तौर पर लगता है कि आपने अपने लिए जगह बनायी है। लेकिन यह भी सच है कि आपके माध्यम से भारतीय सिनेमा और प्रतिभाएं वहां पहुंच रही हैं। आप भारत के प्रतिनिधि हो जाते हैं।
अभी एक झरोखा खुला है। यों समझिए कि बंबई की लोकल ट्रेन में किसी तरह चढ़ने की जगह मिल गयी है। अब ट्रेन चल रही है। विंडो सीट मिलना अभी बहुत दूर है। हां, यह विश्वास है कि हमारी मेहनत का नतीजा बच्चों को मिलेगा। अगली पीढ़ी को मिलेगा। हमलोग जिस तरह का सिनेमा बना रहे हैं, उससे यह उम्मीद बनती है कि हम इंटरनेशनल मंच पर रेगुलर दिखाई पड़ते रहेंगे। अगले दो-तीन सालों में हमें कंपीटिशन सेक्शन में भी जगह मिलेगी।
अनुराग कश्यप अब एक ब्रांड हैं। वह एक ऐसी खूंटी बन गये हैं, जहां कोट के साथ लंगोट भी टंगे रहते हैं।
यह तो अच्छी बात है। यह आजादी अच्छी है। मेरी कोशिश रहेगी कि हर एक कोट के बाद दो लंगोट टंगे। मेरी यही शैली रहेगी। ‘वासेपुर’ के बाद एक ‘अगली’ बनाऊंगा और ‘मुंबई बेलवेट’ के बाद दो छोटी फिल्में बनाऊंगा। आपने सही कहा मैं हर एक डिजायनर कोट के बाद दो लंगोट टांगता रहूंगा। कोट में आदमी बहुत बंधा-बंधा रहता है। आजादी तो लंगोट में ही रहती है।
‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ की संरचना, अवधारणा और प्रस्तुति के बारे में कुछ बताएं?
कल्कि का नाटक चल रहा था। मैं बाहर बैठा हुआ था। वहां दो लड़के आये। उनमें एक जामिया का था। उन्होंने एक कहानी सुनायी। वह बहुत ज्यादा ‘सिटी ऑफ गॉड’ जैसी थी। मैंने कहा भी कि क्या ‘सिटी ऑफ गॉड’ सुना रहे हो? उन्हें बुरी लगी मेरी बात। उन्होंने जोर देकर कहा कि नहीं सर, ऐसा होता है। प्रूव करने के लिए वे जीशान चौधरी को लेकर आये… और पेपर कटिंग्स लाये। मुझे लगा कि वे सिनेमा देखते आये हैं। उन्होंने फार्मेट चुना और वैसे ही घटनाएं डाल दी। सुनने में लगता है कि कोई अलग फिल्म है? वे बार-बार कह रहे थे कि ऑस्कर जाएगी। उन्होंने न्यूज कटिंग्स दिखायी। मैंने कहा कि फिल्म तो इन कटिंग्स में है। वहां ओरिजनल फिल्म है। मैं गैंगस्टर फिल्म क्यों बनाऊं। ‘सत्या’ हो गयी। ‘ब्लैक फ्राइडे’ हो गयी। बनाने का इच्छुक नहीं था। मुझे फिर भी वे लोग, वह जगह इंटरेस्टिंग लगी। मैंने जीशान को बोला तुम जाकर रिसर्च करो और पूरी कहानी लिख कर दो। उसने फिर 150 पन्नों का हिंदी में उपन्यास लिखा। उस उपन्यास पर मैंने स्क्रिप्ट लिखी। पूरी कहानी कमाल की है, जो सुल्ताना डाकू से शुरू होती है। सुल्ताना डाकू पर रिसर्च किया तो पता चला कि इसने तो अपने विश्वास से लिखा है कि सुल्ताना डाकू वासेपुर का था। यह विश्वास इसलिए है कि वासेपुर का हर आदमी मानता है कि सुल्ताना डाकू वहीं का था। रिसर्च कुछ और था। सुल्ताना डाकू का मिथ लिया – सुल्ताना डाकू के मिथ से वासेपुर की कहानी कही गयी है। एक फैमिली में कहानी रखी। आज वे बड़े माफिया माने जाते हैं। छोटी सी रायवेलरी कैसे बड़ी हो गयी। कहां से बाहर का मिनिस्टर आया जो नेता था, जो यूनियन लीडर था। इनकी जो कहानी है, वह नया संसार रचती है। माफिया शब्द कहां से शुरू हुआ। हर माफिया फिल्म के साथ दिक्कत है कि वे केवल गोली भरते दिखाई पड़ते हैं। माफिया का नाम क्या है? उसका बिजनेस क्या है? उसे माफिया कहते क्यों है? फिर धीरे-धीरे समझ में आया।
जहां भी इस तरह की समस्या शुरू हुई है। वह नैचुरल रिसोर्सेज से शुरू हुई है। आदमी को लगता है कि हमारी जमीन के नीचे कोयला है, तो उस पर हमारा भी हक है। यह सरकारी कैसे हो गया? लोगों को लगता है कि गिने-चुने लोग ही इसका फायदा क्यों उठा रहे हैं। सब को फायदा क्यों नहीं हो रहा है? कानूनी नहीं तो गैरकानूनी तरीके से वह चोरी करने लग गया। चोरी पकड़ी जाती है तो बचने के लिए चार चोर मिल जाते हैं। धीरे-धीरे यह माफिया का रूप ले लेता है। यहां से माफिया चालू हुआ। फिर यूनियन बना तो यूनियनबाजी होनी लगी। यूनियन का माफिया चलने लगा। उसे रोकने के लिए राष्ट्रीयकरण किया गया तो सरकारी माफिया बन गया। माफिया की धूरी बदलती गयी। मुझे लगा कि सिर्फ कोयले की कहानी कहूंगा तो बात नहीं बनेगी। इसलिए मैंने परिवार की कहानी चुनी। वे जब तक कोयले के धंधे में थे, तब तक कहानी कोयले की है। फिर वह लोहे लक्कड़ और बालू के धंधे में गये। इस तरह हम माफिया को व्यापक रूप में देख सके। कोयला का खनन चालू हुआ, तो कहानी कोयले तक रही। तब रेलगाड़ी आयी। जब नयी चीजें पुरानी होने लगी तो माफिया ने भी अपना रंग-ढंग बदला। कबाड़ का ही बड़ा बिजनेस है। कबाड़ के धंधे में बहुत बड़ा फायदा है। रेलगाड़ी का कबाड़ बेचा जाता है तो बहुत आमदनी होती है। इन सारी घटनाओं की परिप्रेक्ष्य में बदले की कहानी भी चल रही है। बहुत सारी चीजें हमने जोड़ी भी। हर दस साल में एक नया विलेन खड़ा हो जाता है। हमने सारे विलेन को जोड़कर एक विलेन बना दिया। यह कहानी हीरो से नहीं चलकर विलेन से चलती है। उस भूमिका में तिग्मांशु धूलिया हैं। माफिया में बदले की इतनी प्लानिंग नहीं होती है। वे तो बस ताक में रहते हैं। वे थेथर लोग हैं। उन्हें जहां भी मौका मिलता है, वहीं घुस कर गोली मार देते हैं। वहां ऐसे ही बदला लिया जाता है। उन्हें मौके का इंतजार रहता है। इसी इंतजार में मेरी कहानी आगे बढ़ती जाती है। वे लोग मौका खोज रहे हैं कि वह कब वापस धनबाद आये और हमलोग उसे निशाना बना दें। वहां जिस तरह से घटनाएं घटती हैं वैसे ही हमने कहानी लिखी है। हमने फिल्म का अप्रोच वैसा ही रखा है। आपको अचानक नहीं लगेगा कि कोई किरदार बहुत इंटेलिजेंट हो गया है। वे सब शुरू से इंटेलिजेंट नहीं हैं। ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ की कहानी इस तरह बुनी गयी।
संगीत के लिए हमने तय किया था कि जमीन का म्यूजिक लेंगे। जमीन का म्यूजिक कई बार लोगों को बोरिंग भी लगता है। लोगों को लगता है कि आज कल के धिन चक धिन चक के जमाने में यह कौन सा म्यूजिक लेकर आ गये। हमने वहां की आवाजों, धुनों और संगीत को लेकर काम किया। ‘जियs हो बिहार के लाला’ का मुखड़ा ट्रेडिशनल है। अंतरे बाद में जोड़े गये। ‘तनि नाचि तनि घूमि सब के मन बहलावs रे भइया’ बाद में जोड़ा गया। हमने बहुत सारे गाने ऐसे ही उठाये हैं। उन्हें आज के संगीत और वाद्य से जोड़ा। उन्हें समकालीन बनाया।
‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ फिल्म की कहानी बढ़ने के साथ टेकनीक भी आधुनिक होती जाती है। हम लोगों ने क्लासिक तरीके से शुरू किया है। धीरे-धीरे सब कुछ कंटेंपरेरी होता चला जाता है। बहुत सारी चीजें हमें छोड़नी पड़ी। फिल्म में जंप है। फैमिली में जब कुछ नहीं हो रहा होता है, तो कहानी सीधे जंप मारती है। जो लोग वहां के भूगोल, राजनीति और इतिहास से परिचित हैं, वे सभी किरदारों को पहचान लेंगे। कई किरदारों के हम लोगों ने नाम नहीं रखे हैं। उनकी केवल शक्ल मिलती है। धनबाद के लोग आराम से पहचान जाएंगे कि किसके साथ क्या हुआ था? हम लोगों ने सबके नाम बदल दिये हैं। अच्छे लोगों के नाम वही रहने दिये हैं। अच्छे आदमी को अच्छा-अच्छा दिखाओ तो कोई बुरा नहीं मानता।
फिल्म की कास्टिंग बहुत जबरदस्त रही। बंबई, बनारस, पटना, धनबाद आदि जगहों से भी कलाकार लिये गये। सरदार खान तो लिखते समय ही तय था कि मनोज बाजपेयी करेंगे। उन दिनों मनोज और मेरे बीच बातचीत बंद थी। मैंने फोन उठा कर सीधा घुमा दिया। मैंने पूछा एक्टिंग करोगे? मेरे पास एक रोल है। रात के ग्यारह बज रहे थे उस समय। वे उस समय मेरे पास आये। मैंने पूछा क्या पीते हो? उन्होंने कहा आजकल केवल रेड वाइन पीता हूं। रेड वाइन मंगवायी गयी। रेड वाइन पीते हुए उन्होंने स्क्रिप्ट सुनी और हां कह दिया। जीशान कादरी ने तो पहले से ही तय कर लिया था कि एक रोल मैं ही करूंगा। उसने डेफिनिट का कैरेक्टर किया है। बाकी कास्टिंग मुकेश छाबड़ा ने किया। नवाज तो मेरे साथ पहले भी काम कर चुके हैं। बहुत ही उम्दा एक्टर है। इस फिल्म में लोग उनको तवज्जो देंगे।
इस फिल्म की शूटिंग आपने धनबाद में ही क्यों नहीं की?
जब रीयल घटनाओं पर कोई फिल्म बनाते हैं, तो रीयल लोकेशन पर उसे शूट करने में दिक्कत होती है। लोकल सब की कहानी जानते रहते हैं। थोड़ा भी इधर-उधर हुआ तो हंगामा हो जाता है। बाहर शूट करने का फायदा यह है कि वहां के लोग कहानी और किरदारों से परिचित नहीं होते हैं। स्थानीय लोग हमेशा सब्जेक्टिव होते हैं। शूट करते समय पूछते रहेंगे कि यह कैरेक्टर कौन सा है? कुछ भी बेमेल लगा तो उन्हें आपत्ति होगी। कोई और नाम बता दो तो पूछेंगे कि इस नाम का कोई आदमी ही नहीं था। सही नाम बताओ तो सवाल होगा कि वो तो वैसा नहीं था। बहुत टेंशन रहता है। इसलिए अच्छा है कि ऐसी जगह फिल्म बनाओ जहां किसी को कुछ पता हीं न हो। हॉलीवुड में ऐसा ही करते हैं। ‘ब्लैक फ्राइडे’ के समय मैंने यह मुसीबत झेली थी। जब आरडीएक्स की लैंडिंग दिखा रहे थे तो पूरा गांव इकट्ठा हो गया था। पूछने लगा कि यह क्यों कर रहे हो? उन्होंने कहा कि आप करोगे बाद में पुलिस आकर हमहमसे पूछेगी। दिक्कतों से बचने के लिए हमने ऐसा किया। धनबाद में हमने कोयला खदानों के अंदर शूटिंग की। वह भी हमने पांचवे-छठे दशक के सीन शूट किये। उस समय के लोग या उनके परिचित अब बचे नहीं हैं। बाहर के एक्सटीरियर सीन हमने धनबाद में लिये। झरिया में भी शूट किया। हमलोग सब जगह शूट करते गये। असल कहानी और ड्रामा दिखाने के लिए हम लोगों ने बनारस के आसपास की जगह चुनी। पहले का वासेपुर और धनबाद दिखाने के लिए हम लोगों ने मिलते-जुलते गांव चुने। शुरू में धनबाद और वासेपुर अलग-अलग थे। बाद में विकास होने पर दोनों गड्डमड्ड हो गये। यह सब क्रिएट करना बड़ा मुश्किल काम था। फिल्म ढेर सारी जगहों पर शूट की गयी।
मीडिया और कुछ हलकों में ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ को लेकर यह शिकायत की जा रही है कि इसमें जिस तरह से गाली-गलौज और हिंसा दिखायी गयी है, उससे बिहार की छवि खराब होती है।
पहले लोगों की समस्या थी कि बिहार के विषय नहीं उठाये जाते। मुझे जो विषय और कहानी मिली, मैंने उस पर फिल्म बनायी है। अब अगर ट्रेलर देख कर कोई जज करेगा तो फिर यह उनकी नजरों का धुंधलापन है। मैं अभी कुछ नहीं कहूंगा। वे लोग पिक्चर रिलीज होने का इंतजार करें। फिल्म देखें और फिर अपनी राय दें। अगर कोई कह रहा है कि बिहार में लव स्टोरी है या दूसरी तमाम चीजें हैं तो भोजपुरी फिल्में तो वह सब दिखा ही रही है। मैंने जिस तरह की फिल्म बंबई के बारे में या दिल्ली के बारे में बनायी है, वैसी ही फिल्म बिहार के बारे में बनायी है। मैंने सारी जिंदगी जिस तरह की फिल्म बनायी है, वैसी ही फिल्म बिहार पर भी बना रहा हूं। इस तरह से कहेंगे तो मैंने हिंदुस्तान को हमेशा निगेटिव इमेज में दिखाया है। इस तथ्य को आगे बढ़ाऊं तो ज्यादातर फिल्ममेकर अपने समाज की निगेटिव चीजें या बुराइयों को ही दिखाते हैं। पॉलिटिक्स पर अगर फिल्म बनती है तो पॉलिटिक्स की बुराई होती है। ये सब कहने की बातें हैं। ऐसे लोगों से मुझे एक ही बात कहनी है कि अपनी दुनिया से जरा बाहर निकलिए। देखिए कि कैसी फिल्में बन रही हैं। समाज की पॉजिटिव चीजें दिखा-दिखा कर हिंदी सिनेमा ने दर्शकों की आंखों पर चश्मा चढ़ा दिया है। उसे उतारने की जरूरत है। इस फिल्म में यही बात कही गयी है कि कैसे फिल्मों में अच्छी-अच्छी चीजों को दिखा कर दशकों से दर्शकों को बेवकूफ बनाया जा रहा है। हमारे आसपास जो हो रहा है या जो हो चुका है, उसे भी दर्ज करना और आईना दिखाना जरूरी है। फिल्मकार के तौर पर मुझे इसी में इंट्रेस्ट है और मैं यही करता रहूंगा। अच्छी बातें तब करूंगा, जब अच्छी बातें होंगी। आज बिहार में सब कुछ बदल रहा है। अच्छा हो रहा है तो कल को अच्छा चित्रण भी होगा। हमें अच्छी कहानी मिलेगी तो अच्छी फिल्म बनाएंगे।
(अनुराग कश्यप। हिंदी सिनेमा में नये और मौलिक कंटेंट पर काम करने वाले युवा फिल्मकार। सत्या की पटकथा से चर्चा में आये। ब्लैक फ्राइडे, देवडी और गुलाल महत्वपूर्ण फिल्में। उड़ान के निर्माता। अभी 22 जून को उनकी सीक्वल फिल्म गैंग्स ऑफ वासेपुर का पहला भाग रीलीज हो रहा है। उनसे anuragkashyap2000@yahoo.co.in पर संपर्क कर सकते हैं।)
(अजय ब्रह्मात्मज। मशहूर फिल्म समीक्षक। दैनिक जागरण के मुंबई ब्यूरो प्रमुख। सिनेमा पर कई किताबें – जैसे, ऐसे बनी लगान, समकालीन सिनेमा और सिनेमा की सोच। महेश भट्ट की किताब जागी रातों के किस्से : हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री पर अंतरंग टिप्पणी के संपादक। चवन्नी चैप नाम का ब्लॉग। उनसे brahmatmaj@gmail.com पर संपर्क करें।)
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आपका बहुत - बहुत शुक्रिया जो आप यहाँ आए और अपनी राय दी,हम आपसे आशा करते है की आप आगे भी अपनी राय से हमे अवगत कराते रहेंगे!!
--- संजय सेन सागर