मुंबई डायरी
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उमेश पंत
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सजग चेतना के पत्रकार, सिनेकर्मी। सिनेमा और समाज के खास कोनों पर नजर रहती है। मोहल्ला लाइव, नयी सोच और पिक्चर हॉल नाम के ब्लॉग पर लगातार लिखते हैं। फिलहाल मुंबई में हैं। उनसे mshpant@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।
♦ उमेश पंत
डोंगरी टु दुबई का बुक लांच था। बेंड्रा की कार्टर रोड में समुद्री किनारे के पास औलिव नाम का वो बार। और उस बार का एक छोटा सा अहाता, जिसकी फर्श पर नदियों के किनारे पाये जाने वाले, पानी से घिसे मुलायम से कंकड़ बिछाये गये थे। जो दिख अच्छे रहे थे, पर उन पर चलने में एक असहजता महसूस हो रही थी। उस अहाते के बीच में एक पेड़ का कंकाल था, जिससे पत्तियां नदारद थीं। उस सूखे नंगे पेड़ को सलेटी रंग से रंग कर उसकी डालियों में कुछ लालटेनें टांक दी गयी थीं। जैसे उस पेड़ से उसकी आत्मा छीन ली गयी हो और उससे कहा गया हो कि तुम अब भी उतने ही अच्छे दिखो, जितने तब दिखते थे, जब तुम हरे-भरे थे। उस अहाते में कुर्सियां बहुत कम थीं और लोग बहुत ज्यादा। इसलिए जो जल्दी आया, वो उन कुर्सियों पर हक जमाकर बैठ गया। किनारे एक 4-5 फीट ऊंची दीवार थी, जिसके एक कोने पर मैंने अपने लिए जगह बना ली।
कार्यक्रम शुरू होने ही वाला था। मेरे बगल में एक 60-70 साल के बुजुर्ग आकर खड़े हुए। चश्मे के पीछे से झांकती, इधर-उधर तांकती उनकी आंखें कुछ तलाश रही थीं। तभी पूरे अहाते में जैसे एक हलचल सी हुई। सारे पत्रकार पीछे की दिशा में मुड़े। कैमरों के फ्लैश जगमगाने लगे। बिल्कुल वैसा ही दृश्य आंखों के सामने था, जैसा फिल्मों में दिखता है। जॉन अब्राहम की सभा में एंट्री हो रही थी। एक हीरो मंच की ओर बढ़ रहा था। एक आदमी अब भी खुद को तिरस्कृत महसूस कर रहा था। कार्यक्रम शुरू हो चुका था। स्टेज के संचालक, गीतकार नीलेश मिश्र डोंगरी टु दुबई के लेखक हुसैन जैदी से उनकी किताब के बारे में सवाल कर रहे थे। इस किताब पर आधारित अपकमिंग फिल्म शूटआउट एट वडाला के निर्देशक संजय गुप्ता भी मंच पर नीलेश के सवालों के जवाब दे रहे थे। मेरे बगल में खड़ा वो व्यक्ति बगलें झांकते हुए अब भी कुछ तलाश रहा था। कोई ऐसी अदृश्य चीज जो खो जाती है, तो फिर ढूंढे नहीं मिलती। थोड़ी देर में फिर एक हलचल हुई। फिर कैमरे मुड़े। फिर फ्लैश चमके। इस बार अनिल कपूर पार्श्व से आते दिखे। झक सफेद कमीज और छाती तक खुले बटन। अनिल मंच की ओर बढ़ रहे थे कि अचानक उनके कदम रुके। उस बूढ़े चेहरे पर उनकी नजर गयी। मुड़कर एक मुस्कुराहट उन्होंने उससे साझा की। उस आदमी से हाथ मिलाया। अपनी पहली मुलाकात का जि़क्र किया। मेरी दांयीं बांह से सटकर खड़ा वो आदमी मुस्कुराते हुए अनिल कपूर के सवालों के जवाब देता रहा और मेरी आखों के 6 इंच आगे अनिल कपूर का वो तेज भरा चेहरा आदर और सम्मान के भाव के साथ कुछ-कुछ बोलता रहा। अनिल कपूर स्टेज पर लौटे और उस आदमी को पूरे सम्मान के साथ स्टेज पे बुलाया। एक अतिरिक्त कुर्सी स्टेज पर लायी गयी। लोगों को पता चल चुका था कि वो आदमी वक्त के किसी हिस्से में जरूरी रहा होगा। और एक रिटायर्ड सीनियर पुलिस आफीसर के तौर पर शायद इस किताब में उसकी भी अहम भूमिका है। उस आदमी की तलाश शायद पूरी हो चुकी थी। वो अदृश्य चीज उसके सम्मान के रूप में उसे मिल चुकी थी। और मेरे लिए एक रील लाइफ हीरो, एक पुराने रीयल लाइफ हीरो को सम्मान देकर एक नया रीयल लाइफ हीरो बन चुका था। एक नायक जो बाकियों से अलग सम्मान देना भी जानता है।
मुंबई की ट्रेनें मुझे छोटे शहर से बड़े शहर आये एक आम भारतीय नागरिक का समाजशास्त्र समझने की किसी गतिशील युक्ति सी लगती हैं। वहां उनके जज्बे, उनकी जद्दोजहद, उम्मीदों, हताशाओं और यहां तक कि उनकी मनोवैज्ञानिक और मानसिक स्थिति तक का एक सतही अध्ययन किया जा सकता है। एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन के बीच जीवन की कई इकाइयां और उन इकाइयों के कई पहलू निरंतर गतिशील दिखाई देते हैं। वैस्टर्न, सेंट्रल और हार्बर लाइन से दिन रात गुजरती ये ट्रेनें न जाने कितनी भावनाओं के बहाव का एक जरिया बन गयी हैं। जैसे हर दिन इन पटरियों के इर्द गिर्द लाखों जीवनों के अंश एक दूसरे में घुलकर अनंत अदृश्य और अधूरी कहानियों का मिश्रण इन ट्रेनों में जमा कर रहे हों। तय है कि इनसे होकर गुजरे कई सफरनामों को लोग किसी न किसी वजह से याद रखेंगे। कई भावी लेखक, राजनेता, अभिनेत्रियां, बैंकर आंखों में उम्मीदें लिये आम आदमी की शक्ल में अपने अपने पुढ़े स्टेशन तक पहुंचेंगे। और कई बस रोज यूं ही, अपनी पूरी अधूरी यात्राएं करते आम आदमी की तरह शून्य में विलीन हो जाएंगे। जगजीत सिंह की गायी गजल की उन पंक्तियों को सार्थक सी करती… उम्र जलवों में बसर हो, ये जरूरी तो नहीं। हरे शबे गम की सहर हो, ये जरूरी तो नहीं।
दादर से मलाड के बीच का वो सफर लगभग बीस मिनटों का था। और इन बीस मिनटों में एक छोटी सी फिल्म सा था वो एक छोटा सा वाकया। सरसराती ट्रेन में माहौल गर्म था और उस सीट पर हालात शायद नाजुक। पार्श्व में यात्रियों के मुखारविंदों से फिसल रही मां-बहन की गालियां मौसम में बह रही गर्माहट की पुष्टि कर रही थी। भरी हुई ट्रेन में जगह बहुत कम थी, लेकिन ट्रेन की एक पूरी सीट दो छोटे-छोटे बच्चों और उनके जन्मदाताओं के द्वारा घेर ली गयी थी। भौगोलिक रूप से पास बैठे उन दो वयस्कों के हाव-भाव उनके बीच पनप रही दूरियों को बयां कर रहे थे। किसी बात पर झगड़ कर आये थे शायद। दोनों एक दूसरे से मुंह फेर कर बैठे रहने के बीच कभी अपने बच्चों की हरकतों, तो कभी खिड़की के बाहर गुजरते वक्त में बदलती दुनिया को तिरछी निगाहों से निहारे जा रहे थे। ऐसे जैसे उस दुनिया की हर चीज से उन्हें भारी कोफ्त हो रही हो। बीच बीच में एक दूसरे से आंखें चुराकर एक दूसरे को देखते हुए वो ऐसे लग रहे थे, जैसे किसी चुंबक के दोनों ध्रुव अपनी टूटन के उस आखिरी क्षण का इंतजार कर रहे हों, जिसके बाद वो पलक झपकते ही या तो एक दूसरे से चिपक जाएंगे या फिर कभी पास ही नहीं आएंगे। दोनों बच्चों को उनकी बचकानी हरकतों पर बारी-बारी बेवजह डांटते हुए वो दोनों एक दूसरे के प्रति अपनी नाराजगी को शब्द दे रहे थे। तभी दोनों बच्चों में से एक के हाथ से पानी पीते हुए बोतल का ढक्कन सीट के नीचे गिरा। होंठों से गालों पर लुढ़क आयी पानी की बूंदों को पोंछता बच्चा खिड़की की ओर दुबक गया। पत्नी बोतल का ढक्कन उठाने के लिए सीट पर खिसकी और पति और पत्नी के बीच का रिक्त स्थान जाता रहा। पति ने झुक कर ढक्कन उठा लिया और पत्नी को देखकर ऐसे मुस्कुराया, जैसे वो किसी अजनबी लड़की से पहली बार कोई मुस्कुराहट साझा करना चाहता हो। उसके चेहरे पर पहली ही मुलाकात में एक नवयुवती की मदद कर देने के बाद आने वाले गर्व के भाव ताजा-ताजा मुस्कुराने लगे। पत्नी ने भी अपने चेहरे पर एक ताजा मुस्कुराहट बिखेर कर दूरियों के गणित के सारे समीकरण एक पल में बदल दिये। फिर दोनों बच्चों की ओर देख कर उनकी बाल सुलभ हरकतों पर एक साथ मुस्कुराने लगे। बच्चों की हरकतों में अब कोई कोफ्त न बची थी। हवा शायद उतनी गर्म नहीं रह गयी थी। नजरें मिलाने में हो रही असहजता अब सिरे से गायब हो गयी थी। पुढ़े स्टेशन गोरेगांव कहती हुई उस मशीनी आवाज की ओर ध्यान जाते ही वो बच्चों को लेकर अपनी सीट से उठ खड़े हुए। दूरियों को पाटकर नजदीक आया एक परिवार अपनी मंजिल आ जाने की खबर पा चुका था। और मुझे समझ आ रहा था कि नाराजगी कितनी अर्थहीन और क्षणभंगुर भावना है। एक ऐसी अनावश्यक झिल्ली, जिसका होना बस तब तक ही मतलब रखता है, जब तक उसके गैरजरूरी होने का एहसास न हो जाए।
कल ही देर रात वर्सोवा के किनारे पत्थरों पर बैठकर दोस्तों के साथ फिल्मों पर कुछ बातें हो रही थीं। तभी गैंग्स ऑफ वासेपुर का जि़क्र आया। इतने में एक 30-32 साल के आदमी ने बगल में खड़े होकर पूछा… वासेपुर का ट्रेलर आ गया न? हमने हामी भरी और पूछा, आपने देखा? तो वो बोला मैंने तो पूरी फिल्म देख ली है। उसमें तिग्मांशु की जवानी का रोल मैंने ही तो किया है। फिर परिचय हुआ, तो महसूस हुआ कि रजत भगत नाम के उस शख्स की बातों में एक टीस थी कि वो पूरा रोल उन्हें नहीं मिल पाया। उसके लिए अब भी एक पहचान का संकट है और वो लगातार उस संकट से मुक्त होने के संघर्ष में जुटा है। एक स्ट्रगलिंग एक्टर, जिसे लोग तब जान पाते हैं, जब वो खुद लोगों को बताता है कि वो पहले सात साल दिल्ली से थिएटर करके आया और अब 10 साल से मुंबई में है। और स्टाइल से लेकर भिंडी बाजार तक लगभग सात फिल्मों में काम कर चुका है। ऐसे लोगों को देखकर हमें क्या महसूस होता है ये बिल्कुल गैरजरूरी है, जरूरी ये है कि उन्हें इस संघर्ष का हिस्सा होने में कितना मजा है। रात के अंधेरे में बहुत देर तक अकेले समंदर की लहरों को निहारते रजत भगत जब इस संघर्ष को मजेदार बताते हैं, तो मुझ जैसे नये लोगों का उत्साह कई गुना बढ़ जाता है।
मोहल्ला लाइव से साभार प्रकाशित :
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आपका बहुत - बहुत शुक्रिया जो आप यहाँ आए और अपनी राय दी,हम आपसे आशा करते है की आप आगे भी अपनी राय से हमे अवगत कराते रहेंगे!!
--- संजय सेन सागर