पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अपने प्रांत में उनके काटरून बनाने वाले को कैद कर लिया, साथ ही अपनी प्रिय जनता से कहा है कि टेलीविजन पर खबरें न देखकर केवल मनोरंजन के कार्यक्रम देखें। दूसरी ओर केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्रालय ने ऐन मौके पर एकता कपूर की ‘द डर्टी पिक्चर’ का प्रसारण नहीं होने दिया। क्या सत्तासीन लोग कैरीकेचर को डर्टी पिक्चर मानते हैं और डर्टी पिक्चर को अपनी आलोचना समझते हैं? आम जनता क्या देखे, क्या न देखे का निर्णय सरकार लेना चाहती है।
हम क्या खाएं या उपवास पर रहें, इसका निर्णय भी सरकार ही कर रही है। सरकारें सुचारू प्रशासन चलाना छोड़कर बाकी सब काम करना चाहती हैं। किसी दिन गरीबी को डर्टी पिक्चर कह दें या मनुष्य के जीवन को व्यंग्य चित्र कहकर प्रतिबंधित कर देंगे। गरीबी को मिटाने का दावा करते-करते गरीब को ही मिटा देना उनके लिए सुविधाजनक हो सकता है।
गौरतलब यह है कि क्या सत्तासीन लोग जिसमें धनाढ्य वर्ग शामिल है, सचमुच गरीबी को मिटाना चाहते हैं? दरअसल ऐसा वे नहीं चाहते और गरीबी मिटाने का स्वांग करते रहते हैं, क्योंकि उनके निजाम में गरीब की जबर्दस्त आवश्यकता है। गरीब का अस्तित्व मिटते ही उनके ऐश्वर्य, धन-दौलत का सारा तमाशा अपना अर्थ खो देता है। सरकारों की गहरी आवश्यकता है गरीब तमाशबीन।
दर्शक ही न रहे तो उनके नाटक पर ताली कौन बजाएगा। दूसरी बात, उनकी व्यवस्था सेवक के बिना एक दिन नहीं चल सकती। उनकी शतरंज पर प्यादे नहीं हों तो राजा-रानी की चाल अर्थहीन हो जाती है। वे गरीब और गरीबी को बनाए रखना चाहते हैं और कभी-कभी गरीबी के दंश को कम कर देते हैं।
सत्ता का एक गुण यह भी है कि सिंहासन पर बैठते ही सब एक जैसे हो जाते हैं। कम्युनिस्ट सरकार को अपदस्थ करके ममता से परिवर्तन की आशा थी, परंतु उनका कम्युनिस्टीकरण हो गया है। अखिलेश यादव की सरकार में भी उतने ही दागदार मंत्री हैं, जितने मायावती के जमाने में थे।
ममता तो अपना खबरिया चैनल और अखबार भी शुरू करना चाहती हैं। केंद्र सरकार ने दूरदर्शन और आकाशवाणी का जो हाल कर दिया है, उसे ही वे प्रांतीय स्तर पर दोहराना चाहती हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्राय: आदर्श स्वप्न ही रहती है। प्राइवेट चैनल भी बिके हुए से हैं। पहले वे चमत्कारी बाबाओं का मिथ रचते हैं, फिर उन्हें ध्वस्त करते हैं। दोनों ही सूरतों में उनके दर्शक बढ़ जाते हैं। प्राइवेट चैनल या अखबार के बिके होने का यह अर्थ नहीं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को ही बदनाम कर दें।
दरअसल सरकारें, धनाढ्य वर्ग और बाजार का असली निशाना स्वतंत्र सोच को समाप्त करना है। असली भय स्वतंत्र सोच से है और उनके अनुदान तथा चंदे पर चलने वाली संस्थाएं यह काम बखूबी कर रही हैं। इस खेल में रेशम की सारी डोरें इतनी उलझी हुई हैं कि आम आदमी के हाथ कोई सिरा नहीं आता।
काटरून विधा बिंब से तीखा प्रहार करती है और पीटने तथा पिटने वाले दोनों की मुस्कराहट रोके नहीं रुकती। इस विधा के महानतम पुरोधा आरके नारायण हैं। आम आदमी जब काटरून देखता है, व्यंग्य रचना पढ़ता है या सार्थक हास्य फिल्म देखता है तो उसके भय कम हो जाते हैं। दरअसल ये विधाएं सामाजिक हनुमान चालीसा हैं, जो भय से मुक्तिदिलाती हैं और अपने बदतर हालात का दंश कम कर देती हैं। अनगिनत दर्शकों को चार्ली चैपलिन की ‘द ग्रेट डिक्टेटर’ देखकर हिटलर का भय कम हो गया था। वॉकवाटर मीडिया की अभिषेक शर्मा निर्देशित ‘तेरे बिन लादेन’ भी लादेन के हव्वा की हवा निकाल देती है।
दरअसल हास्य का माद्दा असमान जीवन युद्ध में नि:शस्त्र होकर भी लड़ने का साहस देता है। काटरून बिहारी सतसई के दोहों की तरह ‘देखन में छोटे लगे, घाव करें गंभीर’ हैं। ममताजी तिलमिला गईं। केंद्रीय सरकार पहले ‘द डर्टी पिक्चर’ को राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजती है, अंग प्रदर्शन को अभिनय मानकर पुरस्कृत करती है, फिर टेलीविजन पर प्रसारण रोक देती है।
दरअसल सरकार को सिनेमा की समझ ही नहीं है, इसलिए उसे पुरस्कार और प्रतिबंध दोनों से दूर रहना चाहिए। टेक्नोलॉजी ने सेंसरशिप को बेमानी कर दिया है, क्योंकि कुछ लोगों को इंटरनेट पर सब कुछ उपलब्ध है। जनता को अपनी समझ पर छोड़ दें। उसे अपना मनोरंजन चुनने दें। वह अपने प्रतिनिधि चुनने में जितनी गलतियां करती है, उससे कम अपना मनोरंजन चुनने में करती है।
हम क्या खाएं या उपवास पर रहें, इसका निर्णय भी सरकार ही कर रही है। सरकारें सुचारू प्रशासन चलाना छोड़कर बाकी सब काम करना चाहती हैं। किसी दिन गरीबी को डर्टी पिक्चर कह दें या मनुष्य के जीवन को व्यंग्य चित्र कहकर प्रतिबंधित कर देंगे। गरीबी को मिटाने का दावा करते-करते गरीब को ही मिटा देना उनके लिए सुविधाजनक हो सकता है।
गौरतलब यह है कि क्या सत्तासीन लोग जिसमें धनाढ्य वर्ग शामिल है, सचमुच गरीबी को मिटाना चाहते हैं? दरअसल ऐसा वे नहीं चाहते और गरीबी मिटाने का स्वांग करते रहते हैं, क्योंकि उनके निजाम में गरीब की जबर्दस्त आवश्यकता है। गरीब का अस्तित्व मिटते ही उनके ऐश्वर्य, धन-दौलत का सारा तमाशा अपना अर्थ खो देता है। सरकारों की गहरी आवश्यकता है गरीब तमाशबीन।
दर्शक ही न रहे तो उनके नाटक पर ताली कौन बजाएगा। दूसरी बात, उनकी व्यवस्था सेवक के बिना एक दिन नहीं चल सकती। उनकी शतरंज पर प्यादे नहीं हों तो राजा-रानी की चाल अर्थहीन हो जाती है। वे गरीब और गरीबी को बनाए रखना चाहते हैं और कभी-कभी गरीबी के दंश को कम कर देते हैं।
सत्ता का एक गुण यह भी है कि सिंहासन पर बैठते ही सब एक जैसे हो जाते हैं। कम्युनिस्ट सरकार को अपदस्थ करके ममता से परिवर्तन की आशा थी, परंतु उनका कम्युनिस्टीकरण हो गया है। अखिलेश यादव की सरकार में भी उतने ही दागदार मंत्री हैं, जितने मायावती के जमाने में थे।
ममता तो अपना खबरिया चैनल और अखबार भी शुरू करना चाहती हैं। केंद्र सरकार ने दूरदर्शन और आकाशवाणी का जो हाल कर दिया है, उसे ही वे प्रांतीय स्तर पर दोहराना चाहती हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्राय: आदर्श स्वप्न ही रहती है। प्राइवेट चैनल भी बिके हुए से हैं। पहले वे चमत्कारी बाबाओं का मिथ रचते हैं, फिर उन्हें ध्वस्त करते हैं। दोनों ही सूरतों में उनके दर्शक बढ़ जाते हैं। प्राइवेट चैनल या अखबार के बिके होने का यह अर्थ नहीं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को ही बदनाम कर दें।
दरअसल सरकारें, धनाढ्य वर्ग और बाजार का असली निशाना स्वतंत्र सोच को समाप्त करना है। असली भय स्वतंत्र सोच से है और उनके अनुदान तथा चंदे पर चलने वाली संस्थाएं यह काम बखूबी कर रही हैं। इस खेल में रेशम की सारी डोरें इतनी उलझी हुई हैं कि आम आदमी के हाथ कोई सिरा नहीं आता।
काटरून विधा बिंब से तीखा प्रहार करती है और पीटने तथा पिटने वाले दोनों की मुस्कराहट रोके नहीं रुकती। इस विधा के महानतम पुरोधा आरके नारायण हैं। आम आदमी जब काटरून देखता है, व्यंग्य रचना पढ़ता है या सार्थक हास्य फिल्म देखता है तो उसके भय कम हो जाते हैं। दरअसल ये विधाएं सामाजिक हनुमान चालीसा हैं, जो भय से मुक्तिदिलाती हैं और अपने बदतर हालात का दंश कम कर देती हैं। अनगिनत दर्शकों को चार्ली चैपलिन की ‘द ग्रेट डिक्टेटर’ देखकर हिटलर का भय कम हो गया था। वॉकवाटर मीडिया की अभिषेक शर्मा निर्देशित ‘तेरे बिन लादेन’ भी लादेन के हव्वा की हवा निकाल देती है।
दरअसल हास्य का माद्दा असमान जीवन युद्ध में नि:शस्त्र होकर भी लड़ने का साहस देता है। काटरून बिहारी सतसई के दोहों की तरह ‘देखन में छोटे लगे, घाव करें गंभीर’ हैं। ममताजी तिलमिला गईं। केंद्रीय सरकार पहले ‘द डर्टी पिक्चर’ को राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजती है, अंग प्रदर्शन को अभिनय मानकर पुरस्कृत करती है, फिर टेलीविजन पर प्रसारण रोक देती है।
दरअसल सरकार को सिनेमा की समझ ही नहीं है, इसलिए उसे पुरस्कार और प्रतिबंध दोनों से दूर रहना चाहिए। टेक्नोलॉजी ने सेंसरशिप को बेमानी कर दिया है, क्योंकि कुछ लोगों को इंटरनेट पर सब कुछ उपलब्ध है। जनता को अपनी समझ पर छोड़ दें। उसे अपना मनोरंजन चुनने दें। वह अपने प्रतिनिधि चुनने में जितनी गलतियां करती है, उससे कम अपना मनोरंजन चुनने में करती है।
दैनिक भास्कर डोट कॉम से साभार प्रकाशित :
--निश्चय ही यह बेहूदा पोस्ट व विचार हैं.....
ReplyDelete-----निश्चय ही सरकार का ही यह काम है कि देखे आप क्या खायें , क्या पहनें, क्या देखें व क्या दिखायें....और सत्ता/ सरकार होती किस लिये है क्या सिर्फ़ आपके लिये बिजली-पानी-खेल कूद , खाने-पीने की व्यवस्था के लिये....कि आप मस्त रहें...सरकार व्यस्त रहे...
----आपकी, जनता की स्वय्ं के क्या दायित्व हैं फ़िर...आप किसलिये इस देश का खाना-पानी चर रहे हैं....