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अच्छा लिखनेवालों की कीमत समाज में निर्धारित होती है!

कॉपीराइट के मसले पर पर्यावरणविद अनुपम मिश्र से संजय तिवारी की बातचीत


अनुपम मिश्र के नाम के साथ पर्यावरणविद का विशेषण हालांकि आम प्रचलन में है, पर उन्‍हें जानने वाले जानते हैं कि वे एक बेहतरीन पत्रकार हैं, पत्र लेखक हैं, मददगार इंसान हैं और इस बेदिल दिल्‍ली में एक दुर्लभ शख्‍सीयत हैं। गांधी शांति प्रतिष्‍ठान में, जहां वे काम करते हैं – पिछले कई दशकों से एक ही कुर्सी पर बैठते हैं, जिस पर लिखा है : पावर विदाउट परपस। 90 के दशक में जब उनकी दो किताबें एक साथ प्रकाशित हुईं, तो उन पर किसी का कॉपीराइट नहीं था। राजस्‍थान की रजत बूंदे और आज भी खरे हैं तालाब। शीना उनकी सहयोगी लेखिका थी। मुखपृष्‍ठ पर लेखक का नाम नहीं था। अंदर बहुत छोटे फॉन्‍ट में अनुपम जी का नाम लिखा था और कॉपीराइट की जगह एक दो वाक्‍य लिखे थे : इस पुस्‍तक में छपी सामग्री का उपयोग कहीं भी किसी भी रूप में किया जा सकता है। स्रोत का उल्‍लेख करेंगे तो अच्‍छा लगेगा। आज भी खरे हैं तालाब की अब तक एक लाख से ज्‍यादा प्रतियां बिक चुकी हैं और कई भारतीय और विदेशी भाषाओं में इसका अनुवाद हो चुका है।
मॉडरेटर



कॉपीराइट को लेकर आपका नजरिया यह क्यों है कि हमें अपने ही लिखे पर अपना दावा (कॉपीराइट) नहीं करना चाहिए?


कॉपीराइट क्या है, इसके बारे में मैं बहुत जानता नहीं हूं। लेकिन मेरे मन में जो सवाल आये और उन सवालों के जवाब में मैंने जो जवाब तलाशे, उसमें मैंने पाया कि आपका लिखा सिर्फ आपका नहीं है। आप एक जीवन में समाज के किस हिस्से से कब और कितना सीखते, ग्रहण करते हैं, इसकी कोई लाइन खींचना कठिन काम है। पहला सवाल तो यही है कि मेरे दिमाग में जो है, वह क्या केवल मेरा ही है? अगर आप यह मानते हैं कि आपका लिखा सिर्फ आपका है, तो फिर आपको बहुत कुछ नकारना होगा। अपने आपको एक ऐसी ईकाई साबित करना होगा, जिसका किसी से कोई व्यवहार नहीं है। न कुल परिवार से, न समाज से। क्योंकि हम कुल, परिवार, समाज में बड़े होते हुए ही बहुत कुछ सीखते हैं और उसी से हमारी समझ बनती है। अगर आप कॉपीराइट का इतिहास देखें, तो पाएंगे कि हमारे समाज में कभी कॉपीराइट की कोई प्रवृत्ति नहीं थी। अपने यहां कठिनतम श्रम से प्राप्त की गयी सिद्धि को भी सिर्फ सेवा के निमित्त उपयोग की जाती है। मीरा, तुलसी, सूरदास नानक ने जो कुछ बोला, लिखा वह सब हाथ से कापियां लिखी गयीं। तमिलनाडु में ऐसे हजारों ग्रंथ हैं, जो हाथ से लिखे गये और हाथ से लिखे ग्रंथ भी दो-ढाई हजार साल अनवरत शुद्धतम स्वरूप में जिंदा रहे हैं। इसलिए यह कहना कि कॉपीराइट से मूल सामग्री से छेड़छाड़ होनी बच जाती है, ऐसा नहीं है। जिनका जिक्र मैं कर रहा हूं, वे सब बिना कॉपीराइट के भी शुद्धतम स्वरूप में लंबे समय तक बची रही हैं और आज भी विद्यमान हैं। उनको तो किसी कॉपीराइट एक्ट की जरूरत महसूस नहीं हुई, फिर आपको क्यों होती है?
कॉपीराइट का नियम अंग्रेजों के साथ भारत में आया लेकिन दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि किसी के मन में कभी यह सवाल और संदेह नहीं उठा कि आखिर हम कॉपीराइट का इस्तेमाल क्यों करें? महात्मा गांधी तक ने अपना कॉपीराइट एक ट्रस्ट नवजीवन ट्रस्ट को पचास साल के लिए दे दिया था। अब पचास साल बाद गांधी के लिखे पर फिर कॉपीराइट हट गया है। तो फिर महज पचास साल के लिए इसका पालन करने से गांधी विचार भी नहीं बच सका। यह सब देखकर आश्चर्य होता ही है।


लेकिन आज के इस व्यावसायिक युग में किसी का लिखा उसका व्यवसाय भी हो सकता है, जिससे उसकी जिंदगी की गाड़ी चलती है। वो भला अपना लिखा समाज को अर्पित कर दे, तो अपना गुजारा कैसे करेगा?


जिस दिन हम केवल कमाने के लिए लिखने लगेंगे, उस दिन हमारे लिखने की गुणवत्ता भी गिर जाएगी। लिखना केवल पैसे के लिए नहीं होना चाहिए। कुछ लोग पैसे के लिए काम करते हैं तो भी उनको ध्यान रखना चाहिए कि वे जो लिखना चाहते हैं, वह लिखें न कि पैसे देकर उनसे कोई कुछ लिखवाता है तो केवल वही लिखते रहें। समाज ऋण भी कुछ होता है, जिसको चुकाने की नैतिक जिम्मेदारी महसूस होनी चाहिए। अगर आप सिर्फ पैसे के लिए लिखेंगे तो कभी वह नहीं लिख पाएंगे, जो आप लिखना चाहते थे। आप बाजार में अपना लिखा एक तराजू पर लेकर खड़े हो जाएं और अशर्फियों में बोली लगाना शुरू करेंगे तो मुश्किल होगी। फिर जो अशर्फी देगा, वह आपके लिखे को ले जाएगा। असल में कॉपीराइट का व्यवसाय यह अशर्फी देनेवाला समाज पैदा करता है। क्योंकि उसको आपके लिखे से मुनाफा कमाना है। इसलिए लिखनेवालों को यह जरूर सोचना चाहिए कि आखिर वे किसके लिए लिख रहे हैं? एक बात जान लीजिए, अशर्फी लेकर लिखनेवाले लोग अस्तित्व में लंबे समय तक उपलब्ध नहीं रह पाते हैं। एक समय के प्रवाह में आते हैं और अशर्फी में तुलकर समाप्त हो जाते हैं। मुंबई फिल्म उद्योग में कम पैसा है? लेकिन जरा देखिए, कल के स्टार आज किस गर्त में पड़े हैं? यही आज के स्टारों के साथ कल होगा। यही बात लेखकों पर भी लागू होती है। अच्छाप लिखनेवालों की कीमत बाजार में नहीं समाज में निर्धारित होनी चाहिए।
जहां तक आजीविका चलाने की बात है तो इसमें व्यावहारिक दिक्कत कम और मानसिक संकट ज्यादा है। अगर हम बुद्धि के श्रम के साथ थोड़ा शरीर का श्रम भी जोड़ दें, तो दिक्कत नहीं होगी। आखिर क्यों हम केवल बुद्धि के श्रम की कमाई ही खाना चाहते हैं? यह तो विकार है। सड़क पर कूदने से अच्छा है कि थोड़ी देर खेत में कूद लो। थोड़ा श्रम करके पूंजी अर्जित कर लो। केवल अपने लिखे का मत खाओ। तब शायद ज्यादा अच्छा लिख सकोगे। ऐसा जीवन मत जियो, जो केवल लिखने पर टिका हो।


टेक्नॉलॉजी के इस युग में कॉपीराइट कितना प्रासंगिक रह गया है?


टेक्नॉलॉजी और कॉपीराइट दो विरोधाभासी तत्व हैं। जब टेपरिकार्डर आया, तो वह सूटकेस के आकार में था। आप किसी जगह भाषण देते थे, तो वह रिकार्ड होना शुरू हो गया। इसके बाद टेपरिकार्डर का आकार छोटा होता गया और आज हम मोबाइल में ही सब कुछ रिकार्ड कर सकते हैं। अब सोचिए किसी के भाषण पर कॉपीराइट का अब क्या मतलब? मेरे बोले को कौन कैसे रिकार्ड करके कहां पहुंचा देगा, मैं भला कैसे जान पाऊंगा? जैसे टेपरिकार्डर ने एक तरह के कॉपीराइट को खत्म किया, उसी तरह फोटोकॉपी मशीन ने लिखे के कॉपीराइट को अप्रासंगिक बना दिया। अब कंप्यूुटर ने तो सारी हदें तोड़ दी हैं। पहले तो हाथ से मजदूरी करके कॉपी करना होता था, लेकिन टेक्नॉुलॉजी ने शेयरिंग का सब काम आसान कर दिया है। फिर क्यों झंझट मोल लेते हो? संभवत: टेक्नॉ लॉजी हमें बता रही है कि देखो राजा! शब्दों की चौकीदारी संभव नहीं। इसलिए इसका आग्रह छोड़ दो। जो संभव नहीं, उसका आग्रह रखने की क्या जरूरत है?


आपने कहा कि केवल अपने लिखे का मत खाओ। क्या इसको आप थोड़ा और स्पष्ट करेंगे?


ऐसा कहने का मेरा आशय है कि इतना अच्छा लिखो कि तुम्हारे लिखे का कोई और भी खाये। मैं ऐसा नहीं कह रहा कि आपके लिखे का सिर्फ प्रकाशक खाये। कुछ ऐसा लिखिए कि समाज के लोगों को कुछ फायदा हो। उनका जीवन सुधरे। उनका पानी रुके। उनका अकाल दूर हो। बाढ़ में चार गांव तैर जाएं। कुछ ऐसा लिख दो कि संकट में लोगों के लिए वह संबल की तरह काम आये। हो सकता है कि इसके लिए पैसा न मिले लेकिन बदले में और भी बहुत कुछ मिलेगा जो पैसे से ज्यादा कीमती होगा। लिखनेवाली जमात को यह समझना होगा।


आपने अपने लिखे पर कभी कॉपीराइट नहीं रखा। क्या आपको जीवन में आर्थिक संकट नहीं उठाना पड़ा?


प्राप्ति सिर्फ पैसे की ही नहीं होती है। मुझे पैसा नहीं मिला लेकिन बदले में समाज का इतना प्यार मिला है, जिसके सामने पैसे का कोई मोल नहीं है। मैं एक सामाजिक संस्था (गांशी शांति प्रतिष्ठान) में काम करता हूं और कल्पना से भी बहुत कम मानदेय प्राप्त करता हूं। लेकिन मुझे जीवन में न कोई शिकायत है और न ही कोई संकट। मैंने पैंतीस साल पहले ही तय कर लिया था कि मुझे अपने लिखे पर कोई कॉपीराइट नहीं रखना है। और आज तक नहीं रखा और न आगे कभी होगा। कुछ अप्रिय प्रसंग जरूर आये लेकिन व्यापक तौर पर तो समाज का फायदा ही हुआ और बदले में मुझे उनका अथाह प्यार और सहयोग मिला। आप देखिए दुनिया में तो अब एक नया फैशन ही चल पड़ा है, कॉपी लेफ्ट का। खुले समाज की नयी परिभाषाएं बन रही हैं तो फिर हम अपनी ओर से उस खुले समाज के गुल्लक में एक सिक्का क्यों नहीं डालते? अच्छी चीज को रोककर आखिर हम क्या करेंगे? अगर हम सब बातों में खुलापन चाहते हैं, तो अपने ही लिखे पर प्रतिबंध क्यों लगाएं? वैसे भी अब टेक्नॉ लॉजी इसकी इजाजत नहीं देती है।


क्या अधिकार का दावा छोड़ना ही एकमात्र रास्ता है?


जी बिल्कुल। यही प्राकृतिक व्यवस्था है। क्या अनाज अपने ऊपर कॉपीराइट रखता है कि एक दाना बोएंगे तो सिर्फ एक दाना ही वापस मिलेगा? पेड़ पौधे अपने ऊपर कॉपीराइट रखते हैं? पानी अपने ऊपर कॉपीराइट रखता है? तो फिर विचार पर कॉपीराइट क्यों होना चाहिए? प्रकृति हमकों सिखाती है कि चीजें फैलाने के लिए बनायी गयी हैं।


कॉपीराइट और लाभ की मानसिकता ने क्या चौथे खंभे पत्रकारिता के सामने भी संकट पैदा किया है?


पहले तो इसे चौथा खंभा क्यों कहते हो? हमने एक काल्पनिक महल खड़ा कर लिया, जिसके चार खंभे बना लिये। मुझे तो चारो खभों के बारे में शक है। ऐसे खंभे टिकाते जाएं तो फिर बारहखंभा में क्या दुर्गुण है? सड़क पर एक हवेली थी, उसमें बारह खंभे थे, इसलिए उसका नाम बारह खंभा हो गया। ये लोकतंत्र के सभी खंभे बालू की भीत में लगे हवा के खंभे हैं। चौथा खंभा भी खंभा नहीं बल्कि खोमचा है। आप देखिए अब खबरें बिक रही हैं तो आप इसे खंभा कहेंगे या फिर खोमचा? इस खोमचे में काम करनेवाले पत्रकार भी इस पतन के लिए उतने ही जिम्मेदार हैं, जितने खोमचे के मालिक। पत्रकार अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते।
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