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लोकतंत्र में शॉर्टकट नहीं होता

हर्ष मंदर 

वह भारतीय लोकतंत्र के लिए एक अत्यंत महत्वपूर्ण क्षण था, जब देशभर के मध्यवर्गीय युवा भ्रष्ट प्रशासन के प्रति आक्रोश व्यक्त करने के लिए एकजुट हुए। हमारा देश कई विरोध प्रदर्शनों का साक्षी रहा है। कुछ हिंसक तो कुछ शांतिपूर्ण। कुछ वेतन व भूमि के लिए तो कुछ आत्मसम्मान व मानवाधिकारों के लिए। लेकिन यह आंदोलन कुछ अलग था। दशकों बाद हमने शिक्षित और संपन्न युवाओं को इतने बड़े पैमाने पर सड़कों पर उतरकर विरोध-प्रदर्शन करते, नारे लगाते और मोमबत्तियां जलाकर रैली निकालते देखा। ये युवा एक बेहतर भारत के लिए उम्मीदों की तलाश कर रहे थे।

प्रारंभ में तो राजनीतिक वर्ग ने इस आंदोलन के प्रति द्वेषपूर्ण रवैया रखा, लेकिन जैसे-जैसे लोग जुटते गए, सरकार की मनोदशा बदलने लगी। जल्द ही आंदोलनकारियों की सभी मांगें स्वीकार कर ली गईं और उनके लिए जनसमर्थन बढ़ता गया। आंदोलन को जिस तरह का समर्थन मिला, वह सतही नहीं था। इस विरोध के पीछे गहरी बेचैनी और आक्रोश था। लोग अब किसी तरह के भ्रष्टाचार को बर्दाश्त करने को तैयार नहीं थे। ऐसे आंदोलनों की अनदेखी करना किसी भी राजनीतिक नेतृत्व के लिए संभव नहीं है।

मेरा मानना है कि युवा और आकांक्षाओं से भरे मध्यवर्ग का लोकतांत्रिक असहमति व्यक्त करने के लिए एकत्र होना हमारे गणतंत्र के लिए बहुत महत्वपूर्ण साबित हो सकता है। केबल टीवी देखने वाले लोग या वे लोग जो सोशल नेटवर्किग साइटों या मोबाइल फोन मैसेजिंग के माध्यम से आपस में जुड़े हैं, उन लाखों मेहनतकश लोगों की तुलना में बहुत कम हैं, जिन्हें पेटभर भोजन भी नसीब नहीं हो पाता है। फिर भी यह स्पष्ट है कि इस मध्यवर्ग के विचार भारत के राजनीतिक तंत्र के लिए कितने मायने रखते हैं। सत्ता तंत्र के लिए यह बुरी खबर थी कि देश के युवा चमचमाते मॉल, क्रिकेट और सिनेमा से भी ज्यादा दिलचस्पी इस आंदोलन में ले रहे थे। आखिर वे भी अपने देश में एक साफ-सुथरी सरकार चाहते हैं।

सरकारें आईं और गईं, लेकिन कोई भी सरकार भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए लोकपाल विधेयक पास नहीं करवा पाई। इस विधेयक को सबसे पहले वर्ष 1969 में संसद में पेश किया गया था। तब से अब तक 42 वर्षो में इसे कई बार लाया जा चुका है, लेकिन कोई भी सरकार इस बिल को तो दूर, इसके किसी दुर्बल संस्करण को भी पास नहीं कर पाई। राजनीतिक दल इस बिल को पास कराने की मांग केवल तभी करते हैं, जब वे विपक्ष में होते हैं, लेकिन सत्ता में आते ही वे इससे कतराने लगते हैं।

यूपीए सरकार का मसौदा विधेयक लोकपाल बिल की चार दशक लंबी परंपरा में एक और कमजोर कड़ी था। इसमें जिस लोकपाल का उल्लेख किया गया था, उसे नागरिकों की शिकायतें सुनने का अधिकार नहीं होता, न ही वह स्वयं किसी मामले को उठाने के लिए अधिकृत होता। उसे केवल इतना ही अधिकार होता कि वह राज्यसभा स्पीकर और सभापति द्वारा निर्दिष्ट मामलों पर विचार करे। नौकरशाही भी उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर होती। लेकिन वैकल्पिक जनलोकपाल विधेयक पर भी विचार किया जाना चाहिए। यह वैकल्पिक विधेयक लोकपाल को अनुसंधान, अभियोजन और दंड की अनुशंसा के समस्त अधिकार सौंप देता है। मुझे चिंता है कि इस तरह कहीं हम वस्तुत: कोई वैधानिक अधिनायक न रच दें। शासकीय प्रक्रियाओं में भ्रष्टाचार पर लगाम कसने के लिए कहीं न्याय की ‘निश्चित प्रक्रियाओं’ को ही ताक पर न रख दिया जाए। वर्चस्वशाली लोकपाल कहीं दमनकारी न हो जाए। इससे बचने के लिए उस पर कुछ नियंत्रण लगाना जरूरी है।

मैं आंदोलनकारियों की इस मांग का जरूर समर्थन करूंगा कि नागरिकों को प्रभावित करने वाले कानूनों और नीतियों का निर्माण करने और उन्हें लागू करने से पूर्व नागरिकों से सलाह ली जानी चाहिए। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का गठन कर सरकार ने एक छोटे पैमाने पर यह काम जरूर किया है, लेकिन परिषद के दायरों से बाहर भी शिष्ट समाज में कई तरह के विचार और धारणाएं होती हैं। इन व्यक्तियों और समूहों को भी पूरा अधिकार है कि उनकी बातें सुनी जाएं और उन पर विचार हो। सदन में किसी भी महत्वपूर्ण कानून पर विचार करने से पहले नागरिक समूहों से सलाह-मशविरा करने की अनिवार्य प्रक्रिया को संस्थागत स्वरूप देने का यही सबसे सही समय है। दक्षिण अफ्रीका के संविधान में भी इसी तरह ड्राफ्टिंग में आमजन के विचारों पर विस्तार से चिंतन-मनन किया जाता था।

फिर भी मैंने जंतर-मंतर पर हुए अनशन में सम्मिलित होकर इस आंदोलन में अपना सक्रिय सहयोग क्यों नहीं दिया? इसका एक अहम कारण था आंदोलनकारियों द्वारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तर्ज पर अपनाए गए प्रचार के तौर-तरीके और आंदोलन में संतों-बाबाओं की सक्रिय भूमिका। जब अन्ना हजारे ने नरेंद्र मोदी को एक ‘मॉडल’ मुख्यमंत्री बताया तो मेरे संदेहों की पुष्टि हो गई। एक साफ-सुथरे और अच्छे प्रशासन तंत्र की मेरी धारणा है - भ्रष्टाचार और वित्तीय अनियमितताओं से मुक्त शासन प्रणाली। यह एक ऐसी न्यायप्रिय, संवेदनशील और लोकतांत्रिक प्रणाली है, जो सभी नागरिकों के साथ समान व्यवहार करती हो, फिर चाहे वे किसी भी धर्म, जाति, लिंग या आर्थिक स्थिति के क्यों न हों। भ्रष्टाचार की समस्या भ्रष्टों को दंडित करने वाली किसी संस्था के अभाव से कहीं ज्यादा व्यापक है। यह असमानता और अन्याय के कारण पैदा होती है। इसकी जड़ें सत्ता व आधिपत्य की भावना में हैं।

कई युवाओं के लिए यह छोटा-सा आंदोलन लोकतंत्र की खोज की तरह था। महात्मा गांधी ने हमें सिखाया है सत्याग्रह की बुनियाद है प्रेम, आत्मत्याग और सत्यनिष्ठा। अनुचित साधनों से कभी उचित लक्ष्यों को प्राप्त नहीं किया जा सकता। लोकतंत्र में कोई शॉर्टकट नहीं होता। भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई का गहरा संबंध अन्याय, अत्याचार, घृणा और भय के विरुद्ध संघर्ष से भी है।



दैनिक भास्कर से साभार प्रकाशित. 

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