आईबी मिनिस्ट्री की नींद खुली, अश्लील विज्ञापनों की बेलगाम बाढ़ पर रोक लगेगी
♦ देवांशु कुमार झा
आप घर बैठे अपने माता-पिता, भाई-बहन, छोटे-छोटे बच्चों के साथ टीवी पर आखें गड़ाये कुछ देख रहे होते हैं कि अचानक एक विज्ञापन आता है। कंडोम का वह प्रचार जीवों में यौनेच्छा की सहज प्रकृति को तकरीबन उसी तरह से दिखाता है, जैसे सेक्स परोसने वाली बी ग्रेड की फिल्मों में फोर प्ले को दिखाया जाता है। बस फर्क इतना ही होता है कि उन मॉडलों के बदन पर थोड़े बहुत कपड़े होते हैं। पूरा प्रस्तुतिकरण अत्यंत ही अश्लील, भौंडा और आक्रामक। अगर आपके जीवन में रिश्तों की मर्यादा मौजूद है और आप नैतिक-अनैतिक जैसे शब्दों का अर्थ समझते हैं, तो बगलें झांकने को मजबूर हो जाएंगे। नजरें चुराएंगे, ध्यान बंटाने की कोशिश करेंगे। आप उस विज्ञापन बनाने वाले को सौ बार कोसेंगे। अफसोस करेंगे कि टीवी देख क्यों रहे थे और सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को भी मन ही मन गरियाएंगे कि उन्हें यह नग्नता नजर क्यों नहीं आती।
पिछले कुछ वर्षों में ऐसे तमाम बेहया विज्ञापनों की बाढ़ आयी है। उसमें आम जनता के डूबने-उतराने और दम फूल जाने के बाद अब सूचना प्रसारण मंत्रालय ने एक सूचना का संज्ञान लिया है कि ऐसे विज्ञापन निहायत ही अश्लील, भौंडे और भद्दे हैं। अब इन विज्ञापनों पर मंत्रालय की कैंची चलेगी। सरकार ने विज्ञापन बनाने वाली इन कंपनियों को आदेश दिया है कि या तो वह अश्लील विज्ञापनों को देखे जाने के काबिल बनाकर पेश करें या फिर एडवरटाइजिंग काउंसिल ऑफ इंडिया उन्हें बुद्धू बक्से से बेदखल कर दे। मंत्रालय ने एडवरटाइजिंग काउंसिल ऑफ इंडिया से फौरन कार्रवाई करने और इस बारे में पांच दिनों के अंदर रिपोर्ट दाखिल करने को कहा है।
सरकार की नींद तब टूटी है, जब उन्हें इन विज्ञापनों की ढेर सारी शिकायतें मिलीं। अब तक अपनी आंख और ज्ञान के कपाट बंद कर टीवी देखने वाले मंत्रालय को इन नंगे विज्ञापनों से कोई एतराज नहीं था लेकिन जब शिकायतों का पुलिंदा भारी पड़ गया तो वो हरकत में आये। मंत्रालय ने अपनी जांच में ऐसे सात विज्ञापनों को ऐडवरटाइजिंग कोड का उल्लंघन करते पाया है।
सूचना और प्रसारण मंत्रालय के आदेश में कहा गया है कि टीवी पर दिखाये जाने वाले विज्ञापन भद्दे, अश्लील और गलत संकेत देने वाले हैं। इनसे ऐडवरटाइजिंग कोड के नियम 7(8) का उल्लंघन होता है। साथ ही इन विज्ञापनों से केबल टेलिविजन नेटवर्क्स के नियमों का भी हनन हो रहा है।
मंत्रालय के इस फैसले से थोड़ी राहत तो मिली है, लेकिन हैरानी भी हुई है कि उन्हें निहायत ही अश्लील विज्ञापनों की संख्या सिर्फ सात नजर आती है। दावे के साथ कहा जा सकता है कि ऐसे विज्ञापन थोक के भाव में टीवी पर परोसे जाते हैं। तन की दुर्गंध दूर करने वाले इत्र फुलेल बेचने के बहाने समाज के सामने ऐसी सड़ांध बिखेरी जा रही है कि कोफ्त होती है। यह पिछले कुछ वर्षों की प्रगति है। पिछले पांच-सात वर्षों में ऐसे विज्ञापन बेतहाशा बढ़े हैं, जिसमें देह बोलती है। अगर एक सीमेंट बनाने वाली कंपनी भी अपने उत्पाद का प्रचार करती है, तो नग्न लड़की दिखती है। अगर कोई पेय पदार्थ बेचता है तो भोजन का रस और यौन उल्लास बराबर होता है। कामसूत्र से प्रेरणा लेते हुए विज्ञापन बनाने वाले एक रचनात्मक दिमाग ने आम के रस की एक बूंद को जिह्वा पर गिरते दिखलाया है और कामसूत्र आमसूत्र हो जाता है। तन की दुर्गंध दूर करने वाले इत्र के विज्ञापनों की तो चर्चा ही व्यर्थ है। क्योंकि उन विज्ञापनों में तो एक पुरुष के बदन से लिपटी खुशबू का एक झोंका दिमाग को इस कदर बेकाबू करता है कि नवयौवना के हाथ से पूजा की थाली गिर जाती है और वह कल्पनालोक में उस खुशबूदार अपरिचित व्यक्ति से बिस्तर साझा कर बैठती है, जिससे उसकी टक्कर हुई थी। ताज्जुब होता है कि सेक्स किस हद तक बिकाऊ हो चुका है।
आधुनिकीकरण और उपभोक्तावाद की अंधी दौड़ में हम सबसे आगे निकलने को बेताब हैं। हम ताल ठोंक कर अमरीकियों से कह रहे हैं कि देखो, देह दिखाने में हम तुम्हारे भी गुरु हैं और यह बात सिर्फ देह दिखाने की भी नहीं बल्कि देह के आत्मा पर हावी होने की है। नैतिक-अनैतिक, श्लील-अश्लील, सही-गलत इन तमाम बातों का वहां कोई अर्थ नहीं रह जाता। ऐसा लगता है कि सूचना क्रांति के इस दौर में हमने अपनी मौजूदा पीढ़ी और आने वाली नस्ल को पशु बनाने का बीड़ा उठा लिया है। हम एक (बोल्ड) समाज में जी रहे हैं। इस बोल्ड समाज के ठेकेदार सबसे ईमानदार हैं। वो फ्रायडियन सिद्धातों की वकालत करते हुए कहते हैं कि सेक्स जीवन को निर्धारित करने वाला सबसे मजबूत कारक है। लिहाजा खुलकर दिखाओ, बांटो। जिसे जितना भोगना है, भोग लेगा। लेकिन इन भौंडे विज्ञापनों के खतरे को किसने महसूस किया है। जब सूचना और प्रसारण मंत्रालय की नींद इतने वर्षों के बाद टूटी है तो आम आदमी क्या करे? इन विज्ञापनों को देखते हुए इस बात की आशंका प्रबल है कि एक दिन आपका पांच-छह साल का बच्चा कंडोम की विशद व्याख्या किये जाने की मांग कर बैठे।
मुन्नियां घर-घर बदनाम हो रही हैं और शीलाओं की जवानी जलवे दिखा रही है। दो-दो तीन-तीन साल के बच्चे इन गानों पर थिरक रहे हैं, माता-पिता आह्लादित होकर देखते हैं कि उनके बच्चों में कितनी गजब की नृत्य प्रतिभा है। अब इंसाफ की डगर पे बच्चो दिखाओ चल के, इतिहास है। वर्तमान तो मुन्नियों का दास है। फिल्म से लेकर टीवी तक सेक्स का भरा पूरा बाजार है। बाजार को अपना उत्पाद बेचना है और वह इस प्रकिया में नैतिकता के प्रश्न का उत्तर देना जरूरी नहीं समझता। लेकिन स्थिति भयावह है क्योंकि जब भोजन का रस और यौन उल्लास एक जैसे हो जाएं, तो समझ लेना चाहिए कि सोच में कुछ गंभीर संकट पैदा हो गया है। अफसोस यह है कि सूचना और प्रसारण मंत्रालय बहुत देर से जागा है, हिंसक होते समाज को खून का स्वाद लग चुका है।
देवांशु कुमार झा पिछले 11 सालों से टीवी पत्रकारिता में सक्रिय हैं। फिलहाल सीएनईबी से जुड़े हैं। उनसे devanshuk@rediffmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।
Behad sharmnak lagta hai ye sab.
ReplyDeleteShaayad ab kuch sudhar aaye.
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प्यार की परिभाषा!
ब्लॉग समीक्षा का 17वां एपीसोड--
अकेले हो तो ठीक है, सबके साथ, शर्म नाम की चीज भी कुछ होती है, इनका बस चले तो सबके साथ ही पोर्न फ़िल्म भी दिखा दे,
ReplyDeleteHello there! This article could not be written much better!
ReplyDeleteReading through this article reminds me of my previous roommate!
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