श्रवण गर्ग
अन्ना को चाहिए कि वे जंतर-मंतर के आभामंडल से बाहर निकल आएं और अपनी सिविल सोसायटी का रुख देश की तरफ मोड़ दें। अन्ना हजारे को समझाया जाना चाहिए, उन्हें मनाया जाना चाहिए और जरूरत पड़े तो उनके सामने सामूहिक अनशन किया जाना चाहिए कि वे लोकपाल की स्थापना के मुद्दे पर दोबारा अनशन पर नहीं बैठें। अपने पहले अनशन के जरिए अन्ना सिविल सोसायटी आंदोलन के लिए सरकार से जितना कुछ वसूल सकते थे, वह अब आकार ले रहा है।
दोबारा अनशन पर बैठकर अन्ना सरकार से या तो कुछ प्राप्त ही नहीं कर पाएंगे और अगर कर लिया तो भी व्यवस्था पर निहित स्वार्थो का इतना मजबूत शिकंजा है कि वे समूचे सिविल सोसायटी आंदोलन को स्वामी निगमानंद बना देंगे। दूसरे यह भी कि लोकपाल की स्थापना की मांग को लेकर अन्ना अनशन पर नहीं बैठना चाहेंगे तो उनके समर्थक अथवा देश की जनता उनका गला पकड़कर उन्हें ऐसा करने के लिए बाध्य नहीं करेगी।
देश को अभी अन्ना जैसे नेतृत्व की सशरीर उपस्थिति की खासी जरूरत है। लंबे-लंबे अनशन कर सकने वाले आराधकों की तो एक बड़ी फौज देश में मौजूद है, पर जिनकी उपस्थिति सरकारों की भूख हवा कर सके, ऐसे लोग बस उंगलियों पर गिनती करने लायक ही बचे हैं। उन्हें और भी बड़े उद्देश्यों के लिए सहेजकर रखे जाने की जरूरत है। उन्हें आसानी से सरकारों के हत्थे नहीं चढ़ने देना चाहिए।
अन्ना के अनशन से अधिक जरूरत अब इस बात की है कि सिविल सोसायटी के झंडे तले जो चेतना इस समय देश मंे खड़ी हुई है उसे जंतर-मंतर से आजाद कर उन साठ-सत्तर करोड़ गरीब लोगों तक ले जाया जाए, जो बीस रुपए रोज से कम पर गुजारा कर रहे हैं और कर्ज नहीं पटा पाने की स्थिति में आत्महत्या करने पर मजबूर हो रहे हैं। सिविल सोसायटी के आंदोलन ने वर्तमान भ्रष्ट व्यवस्था की अंतरात्माओं को उनके अंतर्वस्त्रों में देश की जनता के सामने खड़ा कर दिया है।
सरकार और विपक्षी दल पूरी तरह से ‘एक्सपोज’ हो गए हैं कि वे भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कितने ईमानदार हैं और देश की जनता को अपने मतदाताओं के अलावा भी कुछ समझते हैं या नहीं। सिविल सोसायटी ने सरकार के तलवों में जो घाव पैदा कर दिए हैं, उन्हें अब खुला छोड़ देना चाहिए। अन्ना का अनशन उस पर पट्टी बांधने में ही मदद करेगा।
सिविल सोसायटी की जागरूकता ने व्यवस्था की इस बेबसी को नंगा कर दिया है कि वह गैरराजनीतिक आंदोलनों और चुनौतियों का सामना करने में पूरी तरह असमर्थ है। सामना करने के लिए उसे कोई राजनीतिक चुनौती ही चाहिए। अगर चुनौती ‘निर्दलीय’ है तो सत्ताएं उसे दलीय बना देने अथवा उसे वैसा सिद्ध कर देने में अपनी पूरी ताकत झोंक देती हैं। इतना ही नहीं, सरकार/व्यवस्था ‘निर्दलीय’ विरोध से भी निपटने का हौसला रखती है, बशर्ते चुनौती अहिंसक नहीं हो।
देश के कोई एक तिहाई जिले एक लंबे समय से माओवादियों की हिंसक गतिविधियों की गिरफ्त में हैं। माओवादियों का न तो लोकतंत्र में, न चुनावों में और न ही लोकतांत्रिक संस्थाओं में ही कोई भरोसा है, पर सरकार/सरकारें इससे बहुत चिंतित नहीं हैं। माओवादी हिंसा का मुकाबला राज्य की हिंसा से किया जा रहा है और साथ ही बातचीत के लिए दरवाजे भी खोलकर रखे गए हैं। हिंसक प्रतिरोध हर तरह के सत्ता प्रतिष्ठान को सूट करता है। अत: अन्ना हजारे की छोटी-सी सेना के सामने सरकार की विशाल फौज अगर डरी-सहमी दिखाई पड़ती है और लोकपाल की स्थापना को लेकर चहल-कदमी कर रही है तो उसका एक बड़ा कारण यह है कि आंदोलन के पीछे वह अब तक किसी राजनीतिक उद्देश्य या सत्ता प्राप्ति के इरादे की तलाश नहीं कर पाई है।
इस मायने में गौर करें तो सिविल सोसायटी का वर्तमान आंदोलन 1974 के बिहार आंदोलन से भी कुछ कदम आगे और अलग हटकर है। वह इसलिए कि सिविल सोसायटी के वर्तमान नेतृत्व को केंद्र में राजनीतिक नेतृत्व बदलकर सत्ता में भागीदारी नहीं करनी है, इसलिए नई दिल्ली में सरकारें चाहे जिसकी बनती रहें, अन्ना और उनके उत्तराधिकारियों की निर्दलीय लड़ाई तो सतत चलने वाली है।
पूरी बहस में जिस एक और महत्वपूर्ण तथ्य को नजरअंदाज किया जा रहा है, वह यह है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई के लिए लोकपाल जैसी किसी सशक्त संस्था की स्थापना का मामला अब केवल सरकार की इच्छाशक्ति तक ही सीमित नहीं रह गया है। देश की समूची अर्थव्यवस्था आज कापरेरेट घरानों, विदेशी पूंजी निवेशकर्ताओं और बाजार की शक्तियों के हाथों में है। दूरसंचार घोटाले ने इसी हकीकत को बेनकाब कर दिया है कि बाजार की शक्तियां आज शासन व्यवस्था के निर्णय तंत्र पर इस कदर हावी हैं कि नीति निर्धारण ‘चुने हुए प्रतिनिधियों’ द्वारा कम और ‘चुनाव नहीं लड़ने वाले’ औद्योगिक घरानों और बीच के दलालों द्वारा ज्यादा हो रहा है।
देश में अगर भ्रष्टाचार पर अंकुश लग गया तो बाजार की इन ताकतों और राजनीति के बीच पिछले छह दशकों में मजबूत हुआ गठबंधन पूरी तरह से ध्वस्त हो जाएगा और उसका असर देश की उस चमकीली विकास दर पर भी पड़ेगा, जिस पर इतना गर्व किया जा रहा है। अत: एक ईमानदार प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह यदि अन्ना हजारे की मांग को मंजूर करना चाहें तो भी बाजार की शक्तियों का दबाव उनकी सरकार को सिविल सोसायटी के सामने झुकने से रोकने के लिए अपने तमाम संसाधनों को झोंक देगा। ‘जन लोकपाल’ के स्थान पर यदि ‘सरकारी लोकपाल’ की स्थापना संभव हो गई तो भी निहित स्वार्थो का गठबंधन उसे विफल बनाने के लिए सुपारियां बांटेगा।
अत: अन्ना को चाहिए कि लोकपाल के मसले को सरकार और विपक्षी दलों के गले में घंटियों की तरह लटका छोड़कर वे जंतर-मंतर के आभामंडल से बाहर निकल आएं और अपनी सिविल सोसायटी का रुख देश की तरफ मोड़ दें। भ्रष्टाचार का मुद्दा अब इतना सर्वव्यापी बन चुका है कि सरकार के लिए कुछ न कुछ सार्थक करके दिखाना उसकी मजबूरी बन चुका है। जनता प्रतीक्षा कर रही है कि सिविल सोसायटी का आंदोलन कब लोक संगठन के रूप में गांव-गांव तक पहुंचेगा। इसके लिए जरूरी होगा कि अन्ना अपनी बची हुई ताकत को अनशन में खर्च न करें। वैसे सरकार में शामिल एक वर्ग की रुचि इस बात में भी हो सकती है कि अन्ना अनशन पर जरूर बैठें।
लेखक भास्कर के समूह संपादक हैं।
अन्ना को चाहिए कि वे जंतर-मंतर के आभामंडल से बाहर निकल आएं और अपनी सिविल सोसायटी का रुख देश की तरफ मोड़ दें। अन्ना हजारे को समझाया जाना चाहिए, उन्हें मनाया जाना चाहिए और जरूरत पड़े तो उनके सामने सामूहिक अनशन किया जाना चाहिए कि वे लोकपाल की स्थापना के मुद्दे पर दोबारा अनशन पर नहीं बैठें। अपने पहले अनशन के जरिए अन्ना सिविल सोसायटी आंदोलन के लिए सरकार से जितना कुछ वसूल सकते थे, वह अब आकार ले रहा है।
दोबारा अनशन पर बैठकर अन्ना सरकार से या तो कुछ प्राप्त ही नहीं कर पाएंगे और अगर कर लिया तो भी व्यवस्था पर निहित स्वार्थो का इतना मजबूत शिकंजा है कि वे समूचे सिविल सोसायटी आंदोलन को स्वामी निगमानंद बना देंगे। दूसरे यह भी कि लोकपाल की स्थापना की मांग को लेकर अन्ना अनशन पर नहीं बैठना चाहेंगे तो उनके समर्थक अथवा देश की जनता उनका गला पकड़कर उन्हें ऐसा करने के लिए बाध्य नहीं करेगी।
देश को अभी अन्ना जैसे नेतृत्व की सशरीर उपस्थिति की खासी जरूरत है। लंबे-लंबे अनशन कर सकने वाले आराधकों की तो एक बड़ी फौज देश में मौजूद है, पर जिनकी उपस्थिति सरकारों की भूख हवा कर सके, ऐसे लोग बस उंगलियों पर गिनती करने लायक ही बचे हैं। उन्हें और भी बड़े उद्देश्यों के लिए सहेजकर रखे जाने की जरूरत है। उन्हें आसानी से सरकारों के हत्थे नहीं चढ़ने देना चाहिए।
अन्ना के अनशन से अधिक जरूरत अब इस बात की है कि सिविल सोसायटी के झंडे तले जो चेतना इस समय देश मंे खड़ी हुई है उसे जंतर-मंतर से आजाद कर उन साठ-सत्तर करोड़ गरीब लोगों तक ले जाया जाए, जो बीस रुपए रोज से कम पर गुजारा कर रहे हैं और कर्ज नहीं पटा पाने की स्थिति में आत्महत्या करने पर मजबूर हो रहे हैं। सिविल सोसायटी के आंदोलन ने वर्तमान भ्रष्ट व्यवस्था की अंतरात्माओं को उनके अंतर्वस्त्रों में देश की जनता के सामने खड़ा कर दिया है।
सरकार और विपक्षी दल पूरी तरह से ‘एक्सपोज’ हो गए हैं कि वे भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कितने ईमानदार हैं और देश की जनता को अपने मतदाताओं के अलावा भी कुछ समझते हैं या नहीं। सिविल सोसायटी ने सरकार के तलवों में जो घाव पैदा कर दिए हैं, उन्हें अब खुला छोड़ देना चाहिए। अन्ना का अनशन उस पर पट्टी बांधने में ही मदद करेगा।
सिविल सोसायटी की जागरूकता ने व्यवस्था की इस बेबसी को नंगा कर दिया है कि वह गैरराजनीतिक आंदोलनों और चुनौतियों का सामना करने में पूरी तरह असमर्थ है। सामना करने के लिए उसे कोई राजनीतिक चुनौती ही चाहिए। अगर चुनौती ‘निर्दलीय’ है तो सत्ताएं उसे दलीय बना देने अथवा उसे वैसा सिद्ध कर देने में अपनी पूरी ताकत झोंक देती हैं। इतना ही नहीं, सरकार/व्यवस्था ‘निर्दलीय’ विरोध से भी निपटने का हौसला रखती है, बशर्ते चुनौती अहिंसक नहीं हो।
देश के कोई एक तिहाई जिले एक लंबे समय से माओवादियों की हिंसक गतिविधियों की गिरफ्त में हैं। माओवादियों का न तो लोकतंत्र में, न चुनावों में और न ही लोकतांत्रिक संस्थाओं में ही कोई भरोसा है, पर सरकार/सरकारें इससे बहुत चिंतित नहीं हैं। माओवादी हिंसा का मुकाबला राज्य की हिंसा से किया जा रहा है और साथ ही बातचीत के लिए दरवाजे भी खोलकर रखे गए हैं। हिंसक प्रतिरोध हर तरह के सत्ता प्रतिष्ठान को सूट करता है। अत: अन्ना हजारे की छोटी-सी सेना के सामने सरकार की विशाल फौज अगर डरी-सहमी दिखाई पड़ती है और लोकपाल की स्थापना को लेकर चहल-कदमी कर रही है तो उसका एक बड़ा कारण यह है कि आंदोलन के पीछे वह अब तक किसी राजनीतिक उद्देश्य या सत्ता प्राप्ति के इरादे की तलाश नहीं कर पाई है।
इस मायने में गौर करें तो सिविल सोसायटी का वर्तमान आंदोलन 1974 के बिहार आंदोलन से भी कुछ कदम आगे और अलग हटकर है। वह इसलिए कि सिविल सोसायटी के वर्तमान नेतृत्व को केंद्र में राजनीतिक नेतृत्व बदलकर सत्ता में भागीदारी नहीं करनी है, इसलिए नई दिल्ली में सरकारें चाहे जिसकी बनती रहें, अन्ना और उनके उत्तराधिकारियों की निर्दलीय लड़ाई तो सतत चलने वाली है।
पूरी बहस में जिस एक और महत्वपूर्ण तथ्य को नजरअंदाज किया जा रहा है, वह यह है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई के लिए लोकपाल जैसी किसी सशक्त संस्था की स्थापना का मामला अब केवल सरकार की इच्छाशक्ति तक ही सीमित नहीं रह गया है। देश की समूची अर्थव्यवस्था आज कापरेरेट घरानों, विदेशी पूंजी निवेशकर्ताओं और बाजार की शक्तियों के हाथों में है। दूरसंचार घोटाले ने इसी हकीकत को बेनकाब कर दिया है कि बाजार की शक्तियां आज शासन व्यवस्था के निर्णय तंत्र पर इस कदर हावी हैं कि नीति निर्धारण ‘चुने हुए प्रतिनिधियों’ द्वारा कम और ‘चुनाव नहीं लड़ने वाले’ औद्योगिक घरानों और बीच के दलालों द्वारा ज्यादा हो रहा है।
देश में अगर भ्रष्टाचार पर अंकुश लग गया तो बाजार की इन ताकतों और राजनीति के बीच पिछले छह दशकों में मजबूत हुआ गठबंधन पूरी तरह से ध्वस्त हो जाएगा और उसका असर देश की उस चमकीली विकास दर पर भी पड़ेगा, जिस पर इतना गर्व किया जा रहा है। अत: एक ईमानदार प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह यदि अन्ना हजारे की मांग को मंजूर करना चाहें तो भी बाजार की शक्तियों का दबाव उनकी सरकार को सिविल सोसायटी के सामने झुकने से रोकने के लिए अपने तमाम संसाधनों को झोंक देगा। ‘जन लोकपाल’ के स्थान पर यदि ‘सरकारी लोकपाल’ की स्थापना संभव हो गई तो भी निहित स्वार्थो का गठबंधन उसे विफल बनाने के लिए सुपारियां बांटेगा।
अत: अन्ना को चाहिए कि लोकपाल के मसले को सरकार और विपक्षी दलों के गले में घंटियों की तरह लटका छोड़कर वे जंतर-मंतर के आभामंडल से बाहर निकल आएं और अपनी सिविल सोसायटी का रुख देश की तरफ मोड़ दें। भ्रष्टाचार का मुद्दा अब इतना सर्वव्यापी बन चुका है कि सरकार के लिए कुछ न कुछ सार्थक करके दिखाना उसकी मजबूरी बन चुका है। जनता प्रतीक्षा कर रही है कि सिविल सोसायटी का आंदोलन कब लोक संगठन के रूप में गांव-गांव तक पहुंचेगा। इसके लिए जरूरी होगा कि अन्ना अपनी बची हुई ताकत को अनशन में खर्च न करें। वैसे सरकार में शामिल एक वर्ग की रुचि इस बात में भी हो सकती है कि अन्ना अनशन पर जरूर बैठें।
लेखक भास्कर के समूह संपादक हैं।
विद्वान लेखक द्वारा व्यक्त विचारों से मेरी पूर्ण सहमति है। गांव-गांव, नगर-नगर में अलग जगाने का समय आ गया है। हिन्दी समाचार पत्र आज़ादी की इस लड़ाई में जनता का साथ दे रहे हैं जबकि अंग्रेज़ी समाचार पत्र अपने कार्पोरेट / सरकारी आकाओं के इशारे पर चलते हुए इस आंदोलन को कमज़ोर करने का भरसक प्रयास कर रहे हैं। सोशल मीडिया के रूप में इंटरनेट ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनता द्वारा छेड़ी गई इस लड़ाई को जन-जन तक पहुंचाने में बहुत महत्वपूर्ण योगदान दिया है। भले ही टी.आर.पी. रेटिंग के लिये सही, पर इलेक्ट्रानिक मीडिया ने भी अन्ना व बाबा रामदेव के आंदोलन को विश्व के कोने - कोने में पहुंचाया है और भारत की जनता क्या चाहती है, इसे स्पष्ट रूप से रेखांकित किया है।
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