मशहूर उपन्यासकार चेतन भगत का आज दैनिक भास्कर के संपादकीय पेज पर एक लेख प्रकाशित हुआ जिसमे उन्होंने बाबा रामदेव के आंदोलन की मजबूत एवं कमजोर पहलुओं पर बात की है,एक बार तो लगता है चेतन भगत खुद बाबा रामदेव के सलाहकार बनना चाहते है। खैर जो भी लेख आपके सामने है आप तय कीजिये की आखिर मुद्दा क्या है..
कुछ सप्ताह पहले तक बाबा रामदेव (मैं उन्हें केवल ‘बाबा’ के नाम से पुकारूंगा, क्योंकि भारतीय बाबा जगत में उनकी उपस्थिति बहुत सशक्त है) एक सर्वप्रिय व्यक्ति थे। अगर उनके हाल के दिनों के अस्थिर मिजाज पर ध्यान न दें तो वे बड़े खुशमिजाज और वाकपटु व्यक्ति हैं।
वे योग शिक्षक हैं और पूरी तरह भारतीय परंपराओं में रचे-बसे हैं। वे एक बेहद मनोरंजक व्यक्ति भी हैं। हिंदी के उनके अद्भुत शब्दज्ञान का मैं प्रशंसक हूं। लेकिन इसके बावजूद मुझे यह कहते हुए खेद हो रहा है कि बाबा ने एक बेहतरीन मौका गंवा दिया। यह हम सबके लिए भी एक सबक है कि जब हम लक्ष्य के इतने करीब पहुंच जाएं, तब हमें अवसर गंवाना नहीं चाहिए।
भ्रष्टाचार की समस्या पर बाबा का रवैया पूरी तरह ठीक है। उनका अब तक का सफर भी बहुत प्रेरक रहा है। वे सामान्य पृष्ठभूमि से उभरे और सबसे बड़े योगगुरु बन गए। अपने व्यक्तित्व के करिश्मे और योग (जो यदा-कदा हमारे आसपड़ोस के पार्को में मुफ्त ही सिखाया जाता है) के जरिये उन्होंने हजारों करोड़ का साम्राज्य खड़ा कर लिया।
बाबा ने समाजसेवा और निजी महत्वाकांक्षा का मेल किया, जो कोई बुरी बात नहीं थी। जब वे योग के शिखर पर पहुंच गए और लाखों लोगों द्वारा उनकी बातें सुनी जाने लगीं तो वे राजनीतिक विचार व्यक्त करने लगे। उन्होंने भ्रष्टाचार की समस्या पर विशेष रूप से ध्यान केंद्रित किया, लेकिन एक ऐसे भारत का विचार भी उनके मन में था, जैसा वे देखना चाहते थे।
बाबा की कुछ योजनाएं अच्छी थीं, लेकिन उनमें से कई ऐसी भी थीं, जिनके पीछे कोई तार्किक या व्यावहारिक आधार नहीं था। मिसाल के तौर पर बाबा ने कहा कि काले धन की समस्या से निजात पाने के लिए 1000 और 500 के नोटों पर पाबंदी लगा दी जाए। लेकिन यदि काले धन वालों ने डॉलर या सोना जमा करना शुरू कर दिया तो?
और ऐसा करने पर आम लोगों को जो असुविधा होगी, उसके बारे में क्या? नीतियों को लेकर भी बाबा के विचार पूरी तरह स्पष्ट नहीं थे। बाबा चाहते थे कि गैरतकनीकी बहुराष्ट्रीय कापरेरेशन को निकाल बाहर कर दिया जाए, लेकिन इसका क्या मतलब था?
क्या बैंकें गैरतकनीकी श्रेणी में आती हैं? क्या हमें विदेशी बैंकों को बाहर का रास्ता दिखा देना चाहिए और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के कारण उत्पन्न हो रही रोजगार की स्थितियों से हाथ धो लेना चाहिए? बाबा के कुछ सुझाव अजीब थे, लेकिन इसके बावजूद इन सब बातों से बहुत फर्क नहीं पड़ा, क्योंकि बाबा का करिश्मा बरकरार था। लाखों लोग उनके अनुयायी थे, क्योंकि भारतीय लोग राजनीति के तार्किक स्वरूप से अधिक महत्व करिश्माई शख्सियतों को देते हैं।
बाबा के उदय ने केंद्र सरकार को चिंतित कर दिया। जो काम भाजपा नहीं कर पाई थी, वह अकेले बाबा कर सकते थे। 4 जून से अनशन की घोषणा कर बाबा ने एक बड़ा कदम उठाया। अलबत्ता कई लोगों को लगा कि उनका यह कदम कारगर साबित नहीं होगा।
आखिर ‘मैं भी अन्ना’ जैसी स्थितियां कौन चाहता था? लेकिन बाबा ने यह कर दिखाया। अनशन शुरू होने से भी पहले उन्हें सफलताएं मिलने लगीं। प्रधानमंत्री ने उन्हें अनशन न करने के लिए मनाने की कोशिश की। देश के वरिष्ठ राजनेता उनकी अगवानी करने हवाई अड्डे पहुंचे। क्लैरिजेस होटल में मंत्रियों से उनकी भेंट हुई।
आरएसएस, भारतीय जनता पार्टी और लगभग सभी कांग्रेस विरोधियों ने बाबा का समर्थन किया। यहां तक कि टीम अन्ना ने भी उनका हौसला बढ़ाया। उन्हें यह उम्मीद थी कि योगगुरु लोकपाल बिल के लिए सरकार पर दबाव बढ़ाने में कामयाब होंगे।
दर्जनों स्थापित राष्ट्रीय संस्थाएं बाबा के कदम से कदम मिलाने को तैयार हो गईं। हमारे न्यूज बुलेटिन ‘बाबा बुलेटिन’ बन गए। बाबा दिल्ली पहुंच चुके थे और सरकार को बिल्कुल नहीं पता था कि इस ‘बाबामेनिया’ का क्या इलाज किया जाए। अन्ना के उलट बाबा की मांगें मानना इतना आसान नहीं था। जल्द ही सरकार के हाथ-पैर फूल गए। एक बड़ी भूल करते हुए उसने बलप्रयोग कर आंदोलनकारियों को अनशनस्थल से खदेड़ दिया।
यह एक महत्वपूर्ण क्षण था। बाबा के पास न केवल प्रसिद्धि थी, बल्कि अब उनके पास वह चीज भी थी, जिसे भारतीय राजनीति में सबसे बेशकीमती संपत्ति माना जाता है : आमजन की सहानुभूति। जिस रात पुलिस ने अहिंसक आंदोलनकारियों पर डंडे बरसाए, तभी बाबा भारतीय राजनीति के उभरते हुए वैध सितारे बन गए।
और यही वह क्षण भी था, जब बाबा ने एक बड़े अवसर को गंवा दिया। जब देश पुलिसिया कार्रवाई से स्तब्ध था, तब बाबा की खामोशी चमत्कार कर सकती थी, लेकिन बाबा जल्द ही टीवी पर अवतरित हुए। उन्होंने चीख-चीखकर दुनिया को बताया कि उनके साथ कितना गलत हुआ है। भारत में केवल उन लोगों के प्रति सहानुभूति जताई जाती है, जो चुपचाप मर्यादा के साथ कष्ट सहते रहते हैं। लेकिन बाबा चुप नहीं रह सकते और टीवी कैमरों के सामने तो कतई नहीं।
बाबा नई रणनीति के साथ वापसी कर सकते थे, लेकिन वे चूक गए। अगले ही दिन उन्होंने घोषणा कर दी कि वे एक सशक्त निजी सेना बनाएंगे। अलबत्ता बाद में उन्होंने यह बयान वापस ले लिया, लेकिन तक तक नुकसान हो चुका था। बाबा ने कई राजनीतिक लाभों को गंवाया।
लगता है बाबा की टीम के पास कोई उपयुक्त सलाहकार नहीं था। उनके लिए देश के सर्वश्रेष्ठ विधिवेत्ताओं, अर्थशास्त्रियों और समाज कल्याण व जनसंपर्क क्षेत्र के विशेषज्ञों की सेवाएं लेना आसान था, लेकिन उन्होंने टेंट पर 18 करोड़ रुपए खर्च करना ज्यादा बेहतर समझा।
बाबा के लिए यह बहुत महंगा सबक था। यदि वे वापसी करना चाहते हैं तो उन्हें अगली प्रेस कांफ्रेंस बुलाने से पहले अपने कमजोर बिंदुओं पर बेहतर ढंग से ध्यान केंद्रित करना चाहिए। मैं इस समूची स्थिति को लेकर इसलिए ज्यादा चिंतित हूं, क्योंकि पिछले दिनों हुई घटनाओं ने भ्रष्टाचार विरोधी अभियान को खासा नुकसान पहुंचाया है।
बाबा से हम कई सबक सीख सकते हैं। बाबा भले ही यह जान न पाएं, लेकिन एक योगगुरु होने के नाते उन्होंने जाने-अनजाने हमें कुछ बहुत जरूरी सबक सिखा दिए हैं।
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आपका बहुत - बहुत शुक्रिया जो आप यहाँ आए और अपनी राय दी,हम आपसे आशा करते है की आप आगे भी अपनी राय से हमे अवगत कराते रहेंगे!!
--- संजय सेन सागर