♦ प्रभात रंजन
एमएफ हुसैन की मृत्य की खबर जबसे सुनी, यही सोचता रहा कि आखिर क्या थे हुसैन! कई अर्थों में वे बहुत बड़े प्रतीक थे। राजनीतिक अर्थों में वे सांप्रदायिकता-विरोध के जितने बड़े प्रतीक थे, बाद में भगवाधारियों ने उनको उतने ही बड़े सांप्रदायिक प्रतीक में बदल दिया। उनका कहना था कि हुसैन ने एक मुसलमान होते हुए हिंदू देवियों को नग्न चित्रित किया, भारत माता को नंगा कर दिया – हुसैन धार्मिक द्वेष फैलाता है, हुसैन भारतद्रोही है। हुसैन पर हमले हुए, हुसैन पर मुकदमे हुए। आधुनिक भारत के उस पेंटर पर जो अपने प्रगतिशील विचारों के लिए जाना जाता रहा, जिसे भारत की सामासिक संस्कृति का एक बड़ा कला-प्रतीक माना जाता रहा, जिसे हिंदू मिथकों को बारीकी से पेंट करने वाले पेंटर के रूप में जाना जाता रहा – वह देखते-देखते घृणा के एक बहुत बड़े प्रतीक में बदल गया। वह घृणा के प्रतीकों को गढ़े जाने का दौर था, सांप्रदायिक ताकतों को हुसैन की अमूर्त कला में मूर्त प्रतीक के दर्शन होने लगे। उनकी वह कला पीछे रह गयी, जिसके कारण उनको भारत का पिकासो कहा जाता था। हुसैन को अकसर इन दो विपरीत राजनीतिक ध्रुवांतों से देखा जाता रहा।
निस्संदेह हुसैन की उपस्थिति चित्रकला के जगत में विराट के रूप में देखी जाती है। एक ऐसा कलाकार, जिसकी ख्याति उस आम जनता तक में थी, जिसकी पहुंच से उसकी कला लगातार दूर होती चली गयी। हुसैन देश में पेंटिंग के ग्लैमर के प्रतीक बन गये। कहा जाता है कि अपने जीवन-काल में उन्होंने लगभग साठ हजार कैनवास चित्रित किये, लेकिन धीरे-धीरे वे अपनी कला के लिए नहीं अपने व्यक्तित्व के लिए अधिक जाने गये।
हुसैन को इस रूप में देखना भी दिलचस्प होगा कि जब तक देश में सेक्युलर राजनीति का दौर प्रबल रहा, उन्होंने अनेक बार समकालीन राजनीति से अपनी कला को जोड़कर प्रासंगिक बनाया। इसका एक उदाहरण साठ के दशक में राम मनोहर लोहिया के साथ उनके जुडाव के रूप में देखा जा सकता है, उनके द्वारा आयोजित रामायण मेले से उनके जुडाव के रूप में, तो सत्तर के दशक में इंदिरा गांधी को बांगलादेश युद्ध के बाद दुर्गा के रूप में चित्रित करने के रूप में देखा जा सकता है।
राम मंदिर आंदोलन के बाद के दौर में राजनीतिक का सांप्रदायिक ध्रुवीकरण बढ़ने लगा, तो उस दौर में हुसैन ने राजनीति नहीं मनोरंजन के प्रतीकों के माध्यम से अपनी कला को लोकप्रिय बनाया। उन्होंने उस दौर कि सबसे लोकप्रिय अभिनेत्री माधुरी दीक्षित को पेंट किया, चालीस के दशक में सिनेमा के पोस्टर बनानेवाले इस चित्रकार ने उसको लेकर बेहद महंगी फिल्म बनायी। उनकी लोकप्रियता बढ़ती गयी, बाजार में उनकी कला की कीमत बढ़ती गयी। यह दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि जिस दौर में हुसैन ने ‘पोलिटिकली करेक्ट’ होने का ढब छोड़ दिया, उसी दौर में उनके पुराने चित्रों के आधार पर इस सबसे बड़े जीवित कला-प्रतीक को एक ऐसे मुसलमान में बदला जाता रहा, जिसने हिंदू देवियों को गलत तरीके से चित्रित किया।
हुसैन को बाद के दौर में उनकी कला के लिए नहीं, विवादों, घृणा के लिए जाना गया। एक तरफ उन्होंने बाजार को अपनाया या बाजार ने उनको बेहतर तरीके से अपना बनाया, लेकिन वे चित्रकला जगत के सबसे बड़े शोमैन बन गये। उनका अपना व्यक्तित्व इतना बड़ा प्रतीक बन गया कि 15 सेकेंड की प्रसिद्धि के इस दौर में भी उनकी ख्याति बढ़ती ही गयी। लेकिन इसी दौर में उनको देश-बदर होना पड़ा। जिस देश की सामासिक संस्कृति और कला को वे विश्वस्तर पर लेकर गये, उसी देश से। हुसैन का देश छोड़ना एक तरह से देश से उस सेक्युलर राजनीति के सिमटने जाने का भी प्रतीक कहा जा सकता है, जिसकी दृष्टि ने हुसैन जैसे कलाकार को संपूर्णता में अभिव्यक्त करने का अवसर दिया। बनते-बिगड़ते प्रतीकों के इस दौर में हुसैन एक अभिशप्त मिथक की तरह जिये और मरे।
(प्रभात रंजन। युवा कथाकार और समालोचक। पेशे से प्राध्यापक। जानकी पुल नाम की कहानी बहुत मशहूर हुई। इसी नाम से ब्लॉग भी। उनसे prabhatranja@gmail.com पर संपर्क करें।)
मूलत : प्रकाशित मोहल्ला लाइव डाट कॉम
badla jaata raha se kya matlab hai, hussain ne wo chitra nahi banaye the.
ReplyDeleteek aap bhi banao aisa hi kisi muslim vyaktitv ka, sari samajh badal jaayegi.