‘एक समय की बात है। एक राजा था..’ इस तरह की कहानियां हम सभी बचपन से सुनते आ रहे हैं। लेकिन मुझे नहीं लगता हममें से किसी ने भी ऐसी कहानियां सुनी होंगी, जिनकी शुरुआत इस तरह होती हो : ‘एक समय की बात है।
एक लोकतंत्र था। जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि चुनावी प्रक्रिया, अदालतों और लोकपाल के मार्फत जनता के प्रति उत्तरदायी थे।’ हम सभी पहली पंक्ति से बखूबी वाकिफ हैं, लेकिन दूसरी पंक्ति के बारे में हम ज्यादा नहीं जानते। लोकपाल बिल लागू करने में आ रही समस्याएं भी इसी में निहित हैं।
हम यह तो जानते ही हैं कि हमारे मौजूदा सिस्टम में कहीं कुछ गड़बड़ है। इसके बावजूद बदलाव हमें असहज कर देता है। अन्ना के नेतृत्व में भ्रष्टाचार के विरुद्ध चलाए गए आंदोलन में हम एकजुट हुए और आंदोलन को सफल बनाया। लेकिन जब हम भ्रष्टाचाररोधी लोकपाल बिल का मसौदा बनाने बैठे तो अंतर्विरोध सामने आने लगे।
ड्राफ्टिंग कमेटी के सदस्यों पर निजी टिप्पणियां की गईं, दुर्गति के अंदेशे लगाए जाने लगे और यह भी कहा गया कि स्वयं लोकपाल भी तो भ्रष्ट हो सकता है। कुछ बुद्धिजीवियों ने इस आंदोलन को लोकतंत्र पर एक आक्रमण बताया।
नागरिकों के असुरक्षा बोध और भ्रमों का लाभ उठाते हुए सरकार ने वही किया, जिसे करने में उसे महारत हासिल है : हमारे साथ छल। नया शिगूफा यह है कि सांसदों और प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे से बाहर रखा जाए। यदि ऐसा होता है तो यह कानून बनने से पहले ही अशक्त व बेतुका हो जाएगा। बुनियादी चीजों के बारे में बात करें।
लोकपाल बिल और उसके लिए चलाया गया आंदोलन लोकतंत्र पर हमला नहीं है। वास्तव में यह बिल तो भारतीय लोकतंत्र को एक उचित स्वरूप देगा और आंदोलन ने इसी के लिए एक उत्प्रेरक की भूमिका निभाई थी। हमारे शिक्षक हमें स्कूलों में चाहे जो पढ़ाते रहें, लेकिन सच्चाई तो यही है कि अभी हम पूर्णत: लोकतांत्रिक नहीं हैं।
वास्तव में हमारे यहां निर्वाचितों का साम्राज्य या राजशाही है। हम अपने नेताओं को चुनते हैं, लेकिन उनके हाथ में खूब ताकत भी सौंप देते हैं। यदि वे कुछ गलत करते हैं तो उनकी जांच करने वाले भी उनके मातहत ही होते हैं।
दूसरे शब्दों में वे राजनेता नहीं, छोटे-मोटे शहंशाह हैं, जिनके इर्द-गिर्द उनके जूते चमकाने वाले चाटुकार घूमते रहते हैं और जिनकी शोभायात्रा निकलने पर सड़कों पर ट्रैफिक जाम हो जाता है।
इसके कुछ कारण हैं।
हजारों सालों तक हमारे यहां राजतंत्र था। ब्रितानी आए और हम पर ढाई सौ साल राज किया। वे अपने पीछे एक लोकतांत्रिक तंत्र छोड़ जरूर गए, लेकिन अंतत: भारत उनके लिए एक उपनिवेश ही था, जिस पर वे पूरी निरंकुशता के साथ शासन करते थे।
ऐसी स्थिति में जनता के प्रतिनिधि लोकपाल के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता था। अंग्रेज चले गए, लेकिन हमारे निर्वाचित नेताओं ने उनकी जगह ले ली। चुनाव प्रक्रिया बहुत अच्छी थी, लेकिन निर्वाचितों के लिए कुर्सी सत्ता की आरामगाह बन गई। सभी उनके समक्ष हाजिरी लगाते थे, जबकि वे स्वयं किसी के प्रति जवाबदेह नहीं थे।
इसी तरह भ्रष्ट नेताओं की एक परंपरा की शुरुआत हुई, जिन्होंने एक भ्रष्ट शासन तंत्र का निर्माण किया। राजनेताओं को मिलने वाले सत्तासुख ने ही अनैतिक और बेईमान लोगों को राजनीति की ओर आकृष्ट किया।
हमारी फिल्मों और लोकप्रिय संस्कृति में राजनेता स्थायी रूप से खलनायक का प्रतीक बन गया। हमने इस स्थिति को स्वीकार कर लिया। शासकों को सर्वशक्तिशाली होना ही था और वे जो चाहे, कर सकते थे।
भ्रष्टाचार का दायरा बढ़ता गया, जबकि देशवासी गरीब बने रहे। वे शिक्षा, भोजन, बुनियादी ढांचे जैसी मूलभूत जरूरतों के लिए तरसते रहे, महंगाई की मार झेलते रहे, जबकि राजनेता हजारों करोड़ों का घपला करते रहे। इसके बावजूद कोई भी उनके विरुद्ध एफआईआर दर्ज नहीं करवा पाया या स्वतंत्र जांच प्रारंभ नहीं करवा पाया।
आखिरकार लोग तंग आकर सड़कों पर उतर आए। सरकार झुकी और लोकपाल बिल के लिए राजी हो गई। लेकिन इसके साथ ही संशयवादी लोग भी उभर आए। उन्होंने कहा आखिर अवाम ने राजा से सवाल पूछने की जुर्रत कैसे की? अन्ना या अरविंद केजरीवाल कानून बनाने वाले होते कौन हैं? वे क्या चाहते हैं? क्या वे खुद राजा बनना चाहते हैं?
सरकार को ये संशयवादी बहुत रास आए। उन्होंने कहा सांसदों पर बिल लागू नहीं होना चाहिए। और चूंकि हम भारतीय शासकों से बहुत प्यार करते हैं, इसलिए हमारे बीच के ही कुछ वर्गो ने भी शासन से सहानुभूति जताई। लेकिन यदि राजनेताओं को लोकपाल के दायरे से बाहर रखा जाएगा तो उसकी तुक ही क्या है?
सरकार से सहानुभूति रखने वाले कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि अगर लोकपाल ने किसी सांसद को प्रताड़ित किया तो? मैं पूछना चाहूंगा कि क्या किसी टीवी चैनल को किसी राजनेता की कारगुजारियों को इसलिए उजागर नहीं करना चाहिए, क्योंकि इससे उसे मानसिक प्रताड़ना हो सकती है?
यदि नेता सार्वजनिक जीवन में हैं तो जनता उनसे सवाल क्यों नहीं पूछ सकती? क्या देश उनकी जागीर है? क्या यही दलील वे अदालत में भी देंगे? क्या लोगों द्वारा उन्हें वोट देने से उन्हें लूटखसोट का अधिकार मिल जाता है?
लोकपाल केवल एक अनुसंधान एवं अभियोजन अधिकारी है। वह कोई फैसले नहीं सुनाता, वह किसी को दोषी नहीं ठहराता या उन्हें दंडित नहीं करता। हां, उसे जांच करने का अधिकार जरूर है और होना भी चाहिए। यदि हम सरकार को अपने साथ छल करने का अवसर देते रहे तो अपने देश को एक उपयुक्त जनतंत्र बनाने का मौका चूक जाएंगे।
पूर्ण सत्ता का मौजूदा मॉडल कारगर साबित नहीं हुआ। वह हमारे विकास की राह में रोड़ा बन गया, जबकि इसी अवधि में दूसरे देश आगे निकल गए। हमें बदलाव से डरना नहीं चाहिए। वास्तव में हमें तो इस दोषपूर्ण तंत्र में बदलाव के लिए संघर्ष करना चाहिए और जरूरत पड़ने पर फिर सड़कों पर उतर आना चाहिए।
आखिर अंग्रेजों ने भारत को जंतर-मंतर जैसे एक आंदोलन के बाद ही नहीं छोड़ दिया था। या तो सरकार उपयुक्त लोकपाल बिल पर सहमत हो और सुनिश्चित करे कि कोई भी कानून से ऊपर नहीं है या हम फिर से सड़कों पर उतर आने के लिए अन्ना के इशारे का इंतजार करेंगे। जय हिंद।
एक लोकतंत्र था। जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि चुनावी प्रक्रिया, अदालतों और लोकपाल के मार्फत जनता के प्रति उत्तरदायी थे।’ हम सभी पहली पंक्ति से बखूबी वाकिफ हैं, लेकिन दूसरी पंक्ति के बारे में हम ज्यादा नहीं जानते। लोकपाल बिल लागू करने में आ रही समस्याएं भी इसी में निहित हैं।
हम यह तो जानते ही हैं कि हमारे मौजूदा सिस्टम में कहीं कुछ गड़बड़ है। इसके बावजूद बदलाव हमें असहज कर देता है। अन्ना के नेतृत्व में भ्रष्टाचार के विरुद्ध चलाए गए आंदोलन में हम एकजुट हुए और आंदोलन को सफल बनाया। लेकिन जब हम भ्रष्टाचाररोधी लोकपाल बिल का मसौदा बनाने बैठे तो अंतर्विरोध सामने आने लगे।
ड्राफ्टिंग कमेटी के सदस्यों पर निजी टिप्पणियां की गईं, दुर्गति के अंदेशे लगाए जाने लगे और यह भी कहा गया कि स्वयं लोकपाल भी तो भ्रष्ट हो सकता है। कुछ बुद्धिजीवियों ने इस आंदोलन को लोकतंत्र पर एक आक्रमण बताया।
नागरिकों के असुरक्षा बोध और भ्रमों का लाभ उठाते हुए सरकार ने वही किया, जिसे करने में उसे महारत हासिल है : हमारे साथ छल। नया शिगूफा यह है कि सांसदों और प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे से बाहर रखा जाए। यदि ऐसा होता है तो यह कानून बनने से पहले ही अशक्त व बेतुका हो जाएगा। बुनियादी चीजों के बारे में बात करें।
लोकपाल बिल और उसके लिए चलाया गया आंदोलन लोकतंत्र पर हमला नहीं है। वास्तव में यह बिल तो भारतीय लोकतंत्र को एक उचित स्वरूप देगा और आंदोलन ने इसी के लिए एक उत्प्रेरक की भूमिका निभाई थी। हमारे शिक्षक हमें स्कूलों में चाहे जो पढ़ाते रहें, लेकिन सच्चाई तो यही है कि अभी हम पूर्णत: लोकतांत्रिक नहीं हैं।
वास्तव में हमारे यहां निर्वाचितों का साम्राज्य या राजशाही है। हम अपने नेताओं को चुनते हैं, लेकिन उनके हाथ में खूब ताकत भी सौंप देते हैं। यदि वे कुछ गलत करते हैं तो उनकी जांच करने वाले भी उनके मातहत ही होते हैं।
दूसरे शब्दों में वे राजनेता नहीं, छोटे-मोटे शहंशाह हैं, जिनके इर्द-गिर्द उनके जूते चमकाने वाले चाटुकार घूमते रहते हैं और जिनकी शोभायात्रा निकलने पर सड़कों पर ट्रैफिक जाम हो जाता है।
इसके कुछ कारण हैं।
हजारों सालों तक हमारे यहां राजतंत्र था। ब्रितानी आए और हम पर ढाई सौ साल राज किया। वे अपने पीछे एक लोकतांत्रिक तंत्र छोड़ जरूर गए, लेकिन अंतत: भारत उनके लिए एक उपनिवेश ही था, जिस पर वे पूरी निरंकुशता के साथ शासन करते थे।
ऐसी स्थिति में जनता के प्रतिनिधि लोकपाल के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता था। अंग्रेज चले गए, लेकिन हमारे निर्वाचित नेताओं ने उनकी जगह ले ली। चुनाव प्रक्रिया बहुत अच्छी थी, लेकिन निर्वाचितों के लिए कुर्सी सत्ता की आरामगाह बन गई। सभी उनके समक्ष हाजिरी लगाते थे, जबकि वे स्वयं किसी के प्रति जवाबदेह नहीं थे।
इसी तरह भ्रष्ट नेताओं की एक परंपरा की शुरुआत हुई, जिन्होंने एक भ्रष्ट शासन तंत्र का निर्माण किया। राजनेताओं को मिलने वाले सत्तासुख ने ही अनैतिक और बेईमान लोगों को राजनीति की ओर आकृष्ट किया।
हमारी फिल्मों और लोकप्रिय संस्कृति में राजनेता स्थायी रूप से खलनायक का प्रतीक बन गया। हमने इस स्थिति को स्वीकार कर लिया। शासकों को सर्वशक्तिशाली होना ही था और वे जो चाहे, कर सकते थे।
भ्रष्टाचार का दायरा बढ़ता गया, जबकि देशवासी गरीब बने रहे। वे शिक्षा, भोजन, बुनियादी ढांचे जैसी मूलभूत जरूरतों के लिए तरसते रहे, महंगाई की मार झेलते रहे, जबकि राजनेता हजारों करोड़ों का घपला करते रहे। इसके बावजूद कोई भी उनके विरुद्ध एफआईआर दर्ज नहीं करवा पाया या स्वतंत्र जांच प्रारंभ नहीं करवा पाया।
आखिरकार लोग तंग आकर सड़कों पर उतर आए। सरकार झुकी और लोकपाल बिल के लिए राजी हो गई। लेकिन इसके साथ ही संशयवादी लोग भी उभर आए। उन्होंने कहा आखिर अवाम ने राजा से सवाल पूछने की जुर्रत कैसे की? अन्ना या अरविंद केजरीवाल कानून बनाने वाले होते कौन हैं? वे क्या चाहते हैं? क्या वे खुद राजा बनना चाहते हैं?
सरकार को ये संशयवादी बहुत रास आए। उन्होंने कहा सांसदों पर बिल लागू नहीं होना चाहिए। और चूंकि हम भारतीय शासकों से बहुत प्यार करते हैं, इसलिए हमारे बीच के ही कुछ वर्गो ने भी शासन से सहानुभूति जताई। लेकिन यदि राजनेताओं को लोकपाल के दायरे से बाहर रखा जाएगा तो उसकी तुक ही क्या है?
सरकार से सहानुभूति रखने वाले कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि अगर लोकपाल ने किसी सांसद को प्रताड़ित किया तो? मैं पूछना चाहूंगा कि क्या किसी टीवी चैनल को किसी राजनेता की कारगुजारियों को इसलिए उजागर नहीं करना चाहिए, क्योंकि इससे उसे मानसिक प्रताड़ना हो सकती है?
यदि नेता सार्वजनिक जीवन में हैं तो जनता उनसे सवाल क्यों नहीं पूछ सकती? क्या देश उनकी जागीर है? क्या यही दलील वे अदालत में भी देंगे? क्या लोगों द्वारा उन्हें वोट देने से उन्हें लूटखसोट का अधिकार मिल जाता है?
लोकपाल केवल एक अनुसंधान एवं अभियोजन अधिकारी है। वह कोई फैसले नहीं सुनाता, वह किसी को दोषी नहीं ठहराता या उन्हें दंडित नहीं करता। हां, उसे जांच करने का अधिकार जरूर है और होना भी चाहिए। यदि हम सरकार को अपने साथ छल करने का अवसर देते रहे तो अपने देश को एक उपयुक्त जनतंत्र बनाने का मौका चूक जाएंगे।
पूर्ण सत्ता का मौजूदा मॉडल कारगर साबित नहीं हुआ। वह हमारे विकास की राह में रोड़ा बन गया, जबकि इसी अवधि में दूसरे देश आगे निकल गए। हमें बदलाव से डरना नहीं चाहिए। वास्तव में हमें तो इस दोषपूर्ण तंत्र में बदलाव के लिए संघर्ष करना चाहिए और जरूरत पड़ने पर फिर सड़कों पर उतर आना चाहिए।
आखिर अंग्रेजों ने भारत को जंतर-मंतर जैसे एक आंदोलन के बाद ही नहीं छोड़ दिया था। या तो सरकार उपयुक्त लोकपाल बिल पर सहमत हो और सुनिश्चित करे कि कोई भी कानून से ऊपर नहीं है या हम फिर से सड़कों पर उतर आने के लिए अन्ना के इशारे का इंतजार करेंगे। जय हिंद।
मूल प्रकाशित दैनिक भास्कर
aachi jankari
ReplyDeletemere blog par bhi aaye
mere blog ki link "samrat bundelkhand"
सच में आपका लेख गजब है, मिलते रहेंगे,
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