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♦ अविनाश
जब नीलेश हिंदुस्तान टाइम्स की गरिमा और प्रतिष्ठा से भरी नौकरी के बीच अचानक गायब हो गये और पता चला कि उन्होंने पत्रकारिता की रोज़मर्रेदार कार्रवाइयों से छुट्टी ले ली है – तो मुझे जिज्ञासा हुई कि वे दरअसल क्या करेंगे। यह तो पता था कि वे और राहुल पंडिता मिल कर देश भर में चल रहे माओवादी या एंटी स्टेट आंदोलनों पर एक किताब लिखने में जुटे हैं – लेकिन वह लिखना तो कुछ सालों से चल रहा था और किताब लगभग पूरी होने को थी। सो इतना तो यकीन था कि इसके लिए उन्होंने छुट्टी नहीं ली होगी। हालांकि बेचैन आत्माओं के बारे में ये सारे यकीन अक्सर आपको ठगते भी हैं। खैर, एक दिन रवीश ने बताया कि नीलेश का इरादा अब गांव के स्कूल में बच्चों को पढ़ाने का है।
नीलेश के इस इरादे की सूचना से मुझे थोड़ी थकान महसूस हुई, क्योंकि अक्सर ऐसे रूमानी खयाल हमारी कल्पना का हिस्सा तो होते हैं, पर वाकई वैसा कर सकने का साहस हम कभी बटोर नहीं पाते। यही लगा कि इस फितूर के पीछे लंबे समय तक एक तरह के काम की ऊब होगी और उस ऊब में महानगर के अपने झमेले भी शामिल होंगे। नीलेश ने ही कभी मोहल्ला में अपनी इन पंक्तियों से हमारी पहचान करायी थी कि बात-बेबात पे अपनी ही बात कहता है… मेरे अन्दर मेरा छोटा सा शहर रहता है!
ये तो 27 अप्रैल की शाम को पता चला, जब दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर एनेक्स में ड्रीम चेजिंग नाम की एक किताब की रिलीज में शामिल होने का मौका मिला – कि नीलेश के इरादे की जड़ इस किताब में छिपी है। ड्रीम चेजिंग। इसके मूल ऑथर तो उनके पिता एसबी मिश्रा हैं, लेकिन नीलेश ने इसमें वेदव्यास की भूमिका निभायी है। किताब में क्या है, इससे पहले यह जानना जरूरी है कि एसबी मिश्रा कौन हैं। यूपी के एक छोटे से गांव से उनकी कहानी शुरू होती है, जहां बचपन में अपनी पढ़ाई के लिए उन्हें बारह किलोमीटर का पैदल सफर करना पड़ता था। शानदार शैक्षणिक ऊंचाइयों को छूते हुए वे कनाडा पहुंचे और चार साल वहां रहने के बाद उन्हें लगा कि अपना मुल्क दरअसल ज्यादा सही जगह है और उन्हें लौटकर 82 फीसदी अशिक्षित भारत के लिए अपनी प्रतिभा का उपयोग करना चाहिए।
जीयोलॉजी के प्रोफेसर एसबी मिश्रा वतन लौटे। अपनी “नयी-नवेली” पत्नी निर्मला के साथ ऐसे एक गांव में स्कूल की नींव रखी, जहां दूर-दूर तक कोई स्कूल नहीं था। यह लगभग चालीस साल पहले की बात है। तब उन इलाकों में पांचवीं कक्षा के बाद लड़कियों को पढ़ाने का रिवाज नहीं था। निर्मला जी ने गांव गांव जाकर लोगों को समझाया और अपनी बच्चियों को पढ़ाने के लिए प्रेरित किया। अब हर सेशन में कुल बच्चों की संख्या करीब आठ सौ होती है, तो उनमें आधी लड़कियां होती हैं।
[ स्कूल के बारे में एक छोटी-सी फिल्म भी दिखायी गयी, जिसमें कुछ अधेड़ उम्र की महिलाएं, जिनकी साड़ी और जिनकी तरतीब देख कर उनके संभ्रात होने का एहसास होता है - उनके नाम के नीचे एक्स स्टूडेंट का टैग देख कर उस स्कूल के कंट्रीब्यूशन को समझा जा सकता है। ]
उस पूरे इलाके को शिक्षा के मानचित्र पर इज्जत के साथ टांकने की जो कोशिश एसबी मिश्रा ने की, नीलेश को हमेशा लगता रहा कि ये कोशिश दुनिया के सामने जाहिर होनी चाहिए। इस कोशिश की कहानी दुनिया को जाननी चाहिए। उन्होंने अपने पिता से आग्रह किया कि वे इस पूरे सफर की कहानी कहें। नीलेश सुनेंगे और लिखेंगे। नीलेश ने सुना और लिखा, रोली बुक्स ने इसे छापा और जिद, सपना और संघर्ष की इस प्रेरणादायक कहानी को हमसे रूबरू कराया। हालांकि जब एसबी मिश्रा सभागार में बोल रहे थे, तो उन्होंने कहा कि एक सामान्य नागरिक की अपनी कहानी है और इसमें सामान्य से इतर कुछ भी नहीं है, सिवाय इसके कि बस उसे लिख दिया गया है।
एसबी मिश्रा का एक्सेंट उस हिंदुस्तानी आदमी का एक्सेंट था, जो मिट्टी-पानी में रचा बसा होता है। उनमें एक ऐसे शिक्षक को देखा जा सकता है, जो ज्ञान को प्रदर्शन से अधिक व्यक्तित्व की मौलिकता का हिस्सा मानता हो। वे जब कुछ पुराने लोगों को याद कर रहे थे, तो इस हार्दिकता के साथ कि क्या ब्रिलिएंट लोग थे वे।
एक युवक करन दलाल भी वहां मौजूद थे, जिनके बारे में बताया गया कि वे सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं और जिन्होंने अपना ब्राइट करियर छोड़ कर इस जमीनी काम का हिस्सा बनना तय किया। नीलेश के साथ उनकी संक्षिप्त सार्वजनिक वार्ता हुई, जिसमें पता चला कि कैसे अंग्रेजी, फास्ट फूड और देर रात की जीवन शैली से निकल कर वे गांव आये और अब कैसे वे महीनों से मुंबई को याद नहीं कर रहे हैं। भाषा के स्तर पर कंप्यूटर के तकनीकी तिलिस्मी दरवाले को हिंदी के हथौड़े से उन्होंने कैसे तोड़ा, इसकी भी कहानी सुनायी।
करन दलाल को सुनना सचमुच बहुत दिलचस्प था।
आखिर में मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी साहब ने कहा कि यूं तो वे स्लो रीडर हैं – और इसके पीछे उनका पेशा भी बाधक है – दुनिया में लोकतंत्र के सबसे बड़े पर्व की तैयारियों से जुड़ी आपाधापियों के बीच किताबों की ओर बरसों तक देखना नहीं हो पाता है – ऐसे में ड्रीम चेजिंग ने उन्हें एहसास दिलाया कि पढ़ना भी एक जरूरी काम है और इसे हल्के में नहीं लेना चाहिए। कुरैशी साहब ने किताब के बहुत सारे प्रसंग ऐसे सुनाये, जैसे कोई रामचरितमानस के दोहे सुनाता है।
सब कुछ अच्छा था और सबसे अच्छा था, एक विमोचन समारोह का बेहद अनौपचारिक होना। नीलेश कभी भी डैस से उठ कर चहलकदमी करते हुए कुछ बात कहने लग जाते थे और कई सारी छूटी हुई कड़ियों को जोड़ने लग जाते थे।
[ रिपोर्टर मोहल्ला लाइव के मॉडरेटर हैं। उनसे avinashonly@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।
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आपका बहुत - बहुत शुक्रिया जो आप यहाँ आए और अपनी राय दी,हम आपसे आशा करते है की आप आगे भी अपनी राय से हमे अवगत कराते रहेंगे!!
--- संजय सेन सागर