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क्‍या है सरकारी लोकपाल और क्‍या है जनता का लोकपाल?


♦ हरबंस दीक्षित

राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करतीं, लेकिन इस देश में लोकपाल के लिए 42 साल से इंतजार चल रहा है। किसी भी कौम के जीवनकाल में 42 साल एक लंबा वक्त होता है। जिस कानून को आजादी के वक्त ही अस्तित्व में आ जाना चाहिए था, उसको लेकर वर्ष 1969 से लगातार लुका-छिपी का खेल चल रहा है। अब जाकर उसके लिए ठोस हलचल हुई है।
स्वतंत्र भारत में पहली बार किसी कानून के लिए इतना बड़ा जन समुदाय उठ खड़ा हुआ है। अब बहस इस बात पर नहीं हो रही है कि लोकपाल कब स्थापित हो। अब तो केवल यह तय करना बाकी है कि लोकपाल कैसा हो। वह सरकारी विधेयक में प्रस्तावित एक कमजोर संस्था हो या फिर जन लोकपाल विधेयक द्वारा प्रस्तावित एक सर्वशक्तिमान निकाय हो।
ऊंचे पदों पर भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए प्रशासनिक सुधार आयोग की ओर से वर्ष 1967 में लोकपाल की स्थापना का सुझाव आया था। 1969 में उसे लोकसभा ने पारित भी कर दिया, लेकिन उसके बाद से अब तक वह मृग मरीचिका ही साबित हुआ। इस दौरान छोटी-बड़ी कुल चौदह कोशिशें की गयीं। आठ बार सरकारी विधेयक के रूप में और छह बार गैर सरकारी विधेयक के रूप में इसे स्थापित करने की कोशिश की गयी, लेकिन किसी न किसी बहाने उसमें रोड़ा अटकाया जाता रहा है।
शुरू में प्रधानमंत्री को इसके दायरे में रखे जाने को लेकर मतभेद थे, किंतु ऊंचे पदों पर आसीन लोगों से जुड़े भ्रष्टाचार के प्रकरण इस प्रकार उजागर हो चुके हैं और उनका आभामंडल इतना क्षीण हो चुका है कि सार्वजनिक जीवन का कोई भी पदधारक अब अपने को जांच के दायरे से अलग रखने की सिफारिश करने का साहस नहीं कर सकता।
लोकपाल की स्थापना के लिए मशहूर समाजसेवी व गांधीवादी नेता अन्ना हजारे की मौजूदा पहल ऐसे समय पर हुई है, जब देश की जनता भ्रष्टाचार से आजिज आ चुकी है। मामला केवल कॉमनवेल्थ खेलों या टूजी स्पेक्ट्रम घोटालों तक ही सीमित नहीं है। जहां कहीं भी पाखंड का सुरक्षा कवच थोड़ा-सा दरकता है, उसके नीचे भ्रष्टाचार का काला समंदर नजर आने लगता है। अदालतों से जुड़े भ्रष्टाचार के प्रकरणों के उजागर होने के बाद अब जनता के धैर्य का बांध टूटने लगा है।
अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य ने भी इस मुहिम को मजबूती दी है। मिस्र जैसे देशों में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर मुबारक सरकार को कुछ समय पहले ही गद्दी छोड़नी पड़ी है। ऐसे समय में लोकपाल पर होने वाली बहस कई मामलों में बिल्कुल अलग है। अब यह बहस सिर्फ कानून बनाने तक नहीं सीमित है, बल्कि उस कानून के स्वरूप को लेकर है। लोग सरकारी विधेयक को नाकाफी मानकर उसका विरोध कर रहे हैं। उसकी जगह जन लोकपाल विधेयक का एक वैकल्पिक प्रारूप तैयार किया गया है।
सरकारी विधेयक का अधिकार क्षेत्र केवल राजनेताओं तक सीमित है। सरकारी अधिकारियों के लिए सतर्कता आयुक्त जैसी संस्थाएं हैं, जो अब तक निष्प्रभावी साबित हुई हैं। न्यायपालिका के भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए कोई संस्था नहीं है। जनता के लिए राजनेता के भ्रष्टाचार, सरकारी कारकूनों की रिश्वतखोरी और न्यायाधीशों की बेईमानी में कोई अंतर नहीं है। इस पृष्ठभूमि में जन लोकपाल विधेयक के उपबंध सरकारी विधेयक की तुलना में ज्यादा प्रभावी और प्रासंगिक हैं।
लोकपाल की गठन प्रक्रिया और उसके काम करने के तरीके के मामले में सरकारी और जन लोकपाल विधेयक में बहुत बड़ा फर्क है। अब तक के सभी विधेयकों में लोकपाल के लिए जरूरी था कि वह सुप्रीम कोर्ट का न्यायाधीश रह चुका व्यक्ति हो। उसकी नियुक्ति की प्रक्रिया भी संतोषजनक नहीं थी। उसकी नियुक्ति कुछ मंत्रियों, दोनों सदनों के अध्यक्षों और नेता प्रतिपक्ष की एक समिति की अनुशंसा पर की जानी थी।
लोकपाल के चयन को केवल सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों तक सीमित कर देने के कई नुकसान हैं। इससे उस पद के लिए उपयुक्त व्यक्ति की तलाश का दायरा बहुत सीमित हो जाता है। लोकपाल जैसे पदधारक के लिए सत्यनिष्ठा का गुण सबसे अहम हैं। सत्यनिष्ठ व्यक्तियों के मामले में न्यायपालिका या किसी भी एक संस्था का एकाधिकार नहीं हो सकता, इसलिए उसके लिए योग्य पात्र की तलाश करते समय पूरे समाज के अच्छे लोगों को मौका मिलना चाहिए।
लोकपाल का काम मुख्य रूप से आरोपों की जांच करना होगा, इस काम में न्यायिक अनुभव से कोई खास मदद नहीं मिलती। इसलिए जन लोकपाल विधेयक के वे उपबंध स्वागत योग्य हैं, जिनमें लोकपाल की नियुक्ति की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने की बात की गयी है और समाज में अच्छी साख रखने वाले किसी व्यक्ति को उस पद का पात्र माना गया है।
दरअसल लोकपाल की मौजूदा मुहिम सरकारी नाकामी के खिलाफ एक जन प्रतिक्रिया है। लोग सरकारी हीला-हवाली से ऊब चुके हैं। जनता अब ऊंचे पदों पर बैठे लोगों की पैंतरेबाजी से भी धीरे-धीरे वाकिफ होती जा रही है। जन विधयेक के माध्यम से ऐसी संस्था की परिकल्पना की गयी है, जो एक स्वतंत्र तथा अलग निकाय हो। उसके पास जांच करने का व्यापक अधिकार हो और अपनी मर्जी से भ्रष्टाचार की जांच वाले प्रकरण चुनने का अधिकार हो। उसका अपना पूर्णकालिक स्टाफ हो, उसकी जांच के निष्कर्ष और उसकी संस्तुति सरकार पर बाध्यकारी हो।
यदि लोकपाल भ्रष्टाचार के आरोपों को सही पाता है, तो दोषी व्यक्ति को बरखास्त कर दिया जाए। इसके अलावा व्हिसल ब्लोअर यानी भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंतरिक रूप से शंखनाद करने वाले लोगों को सुरक्षा देने की जिम्मेदारी भी लोकपाल की ही हो।
अन्ना हजारे की मौजूदा मुहिम को मिल रहे जन समर्थन से एक बात साफ हो गयी है कि जनता भ्रष्टाचार से त्रस्त हो चुकी है। सरकार की नीयत पर उसका भरोसा नहीं रहा। अन्ना हजारे जैसे लोगों के बेदाग लोकजीवन से उसे उनकी बातों पर भरोसा है, लेकिन यदि जनता यह सोचती है कि लोकपाल के पद पर बैठ जाने मात्र से ही कोई व्यक्ति ऐसा देवतुल्य हो जाएगा कि वह कभी कोई गलती नहीं करेगा, तो वह कहीं न कहीं गलती कर रही है। इस पर ठंडे दिमाग से विचार करने की जरूरत है। व्यावहारिक धरातल पर हर संभावना का आकलन करने की आवश्यकता है, ताकि दोषों को कम किया जा सके।
[ लेखक विधिशास्त्र के प्राध्यापक हैं और उनका यह आलेख दैनिक हिंदुस्‍तान से कट-पेस्‍ट किया गया है ]

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--- संजय सेन सागर

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