यदि वॉल स्ट्रीट जर्नल के बुक्स एडिटर न्यूयॉर्क टाइम्स के बुक्स एडिटर जितने ही विवेकशील होते तो संभव है कि नरेंद्र मोदी जोसेफ लेलीवेल्ड की किताब द ग्रेट सोल पर कभी प्रतिबंध नहीं लगाते। मैनहट्टन के दैनिक अखबारों ने उसी सप्ताहांत इस किताब की समीक्षाएं प्रकाशित की थीं, लेकिन वे शैली या विषयवस्तु के स्तर पर जर्नल से बहुत अलग थीं। टाइम्स के समीक्षक, जो स्वयं भारत पर बहुत अच्छी किताबें लिख चुके हैं, ने लेलीवेल्ड के रवैये की खूबियों और खामियों का तर्कसंगत आकलन किया है, गांधी की ऐतिहासिक स्थिति की पड़ताल की है और महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने हरमन कालेनबाख का कतई जिक्र नहीं किया है।
दूसरी तरफ जर्नल ने यह किताब एक ऐसे ब्रिटिश समीक्षक के हाथों में सौंप दी, जिनकी विवेकशीलता का यह आलम है कि एक दफे उन्होंने टोनी ब्लेयर को भविष्य का विंस्टन चर्चिल बता दिया था। बोअर नस्लवादियों से एकात्मता व्यक्त करने वाले इन समीक्षक ने इस अवसर का उपयोग ब्रिटिश साम्राज्य के महान शत्रु की चरित्र हत्या करने के लिए किया। संदर्भ से हटकर उद्धरण देते हुए उन्होंने गांधी के व्यक्तित्व की एक अलग ही व्याख्या की। उन्होंने गांधी और कालेनबाख की मित्रता को पूरे दो पैराग्राफ समर्पित किए। समीक्षा 26 मार्च को छपी थी। इसके दो दिन बाद ब्रिटिश टैब्लॉइड डेली मेल ने इससे प्रभावित होकर एक स्टोरी छाप दी। द ग्रेट सोल पर भारत के कुछ हिस्सों में प्रतिबंध लगाने का निर्णय वास्तव में पुस्तक के आधार पर नहीं, बल्कि उन ब्रितानियों की पक्षपातपूर्ण व्याख्याओं के आधार पर लिया गया था, जो अभी तक अपने साम्राज्य के पतन को स्वीकार नहीं कर पाए हैं। मैं यह लेख अमेरिका से लिख रहा हूं और द ग्रेट सोल की एक प्रति मेरे पास है। यहां दो प्रश्न पूछे जाने चाहिए। पहला यह कि कालेनबाख से गांधी की मित्रता के प्रसंग को इस किताब ने कितनी जगह दी है और दूसरा यह कि इस बारे में किताब का अपना क्या मंतव्य है?
मेरी गणना के अनुसार 349 पृष्ठों की इस किताब में कालेनबाख का नाम पृष्ठ क्रमांक 33 पर आता है। मैं सोचता हूं कि लेलीवेल्ड ने दक्षिण अफ्रीका में गांधी के जीवन में कालेनबाख के महत्व को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया है। उनकी किताब में हेनरी पोलक का क्षणिक उल्लेख किया गया है और प्राणजीवन मेहता के बारे में तो उन्होंने एक शब्द भी नहीं कहा, जबकि उस दौरान गांधी के लिए ये दो व्यक्ति भी इतने ही महत्वपूर्ण थे। लेलीवेल्ड ने अपने निष्कर्ष कालभ्रम के आधार पर निकाले हैं, जिसमें सौ वर्ष पूर्व की एक मित्रता को आज के एक प्रगतिशील न्यूयॉर्कर के चश्मे से देखने की प्रवृत्ति झलकती है। लेलीवेल्ड ने अतीत के लिखित साक्ष्यों के आधार पर अनुभव किया कि उन्हें यह निष्कर्ष निकालने का विशेषाधिकार है। अहमदाबाद में कोई व्यक्ति उन्हें बताता है कि कालेनबाख और गांधी ‘कपल’ थे, ऑस्ट्रेलिया में कोई व्यक्ति उनके संबंधों को ‘होमोइरोटिक’ बताता है, लेकिन लेलीवेल्ड को स्वयं कालेनबाख द्वारा कही गई एक बात को रेखांकित करना था, जिसमें उन्होंने जून १९क्८ को अपने भाई को पत्र लिखते हुए कहा था कि गांधी से मिलने के बाद उन्होंने ‘अपने यौन जीवन को तिलांजलि दे दी है।’
लेलीवेल्ड ने साक्ष्यों को तोड़-मरोड़कर दावा किया कि कालेनबाख से गांधी की मित्रता (उन्होंने मित्रता के स्थान पर ‘संबंध’ शब्द का उपयोग किया है) उनके जीवन का ‘सबसे अंतरंग संबंध’ था। उनके द्वारा यह कहना कि ‘गांधी अपनी पत्नी को छोड़कर उसके साथ रहने चले गए थे’ तो और भी लचर सूचना है। तथ्य यह है कि ट्रांसवाल के भारतीयों को संगठित करने के लिए गांधी का वहां रहना जरूरी था। इस दौरान कस्तूरबा और उनके बेटे नाटाल स्थित उनके आश्रम में थे, जहां गांधी समय-समय पर उनसे मिलने आया करते थे। कालेनबाख से अपने संबंध के बारे में स्वयं गांधी ने कहा है कि उनका रिश्ता दो भाइयों जैसा था। जब वे एक ही स्थान पर रहते थे, तब गांधी के साथ ही कालेनबाख ने भी ब्रह्मचर्य का संकल्प लिया था। हालांकि बाद में कालेनबाख अपने ब्रह्मचर्य के संकल्प का पालन नहीं कर पाए थे और उन्होंने एक महिला से संबंध स्थापित किए थे। लेलीवेल्ड ने अपनी किताब में इसका उल्लेख नहीं किया है या संभव है कि वे इस बारे में जानते ही न हों। लेलीवेल्ड के तर्क चाहे कितने ही भ्रमित हों, लेकिन उनकी गद्यशैली सधी हुई और गरिमावान है। किताब के 90 फीसदी पृष्ठों पर कालेनबाख का कोई उल्लेख नहीं है और यहां सामाजिक व राजनीतिक महत्व के मामलों को यथेष्ट स्थान दिया गया है। जो भारतीय टैब्लाइड प्रेस की गलत व्याख्याओं से ही परिचित हैं, उन्हें किताब के अंतिम पैराग्राफ के इन शब्दों पर विचार करना चाहिए : ‘आज भारत में ‘गांधीवाद’ सामाजिक चेतना का पर्याय बन गया है। गांधी के आदर्शो में आज भी इतनी शक्ति है कि वे हमें प्रेरित कर सकें..’
ऐसे में जोसेफ लेलीवेल्ड को एक तरफ प्रतिक्रियावादी ब्रिटिश पत्रकारों और दूसरी तरफ उन अवसरवादी भारतीय राजनेताओं का दयनीय शिकार माना जाना चाहिए, जो महात्मा के आदर्शो का पालन करने में अपनी विफलता को उनकी स्मृति के प्रति आस्था प्रदर्शित करने के दावों में छुपाने की कोशिश कर रहे हैं। गांधी के दो पौत्रों, जो स्वयं जाने-माने लेखक हैं, ने सरकार से अनुरोध किया है कि वह इस पुस्तक को भारत में प्रकाशित और वितरित करने की अनुमति प्रदान करे। यहां भारतीय राष्ट्रवाद की परिपक्वता और भारतीय लोकतंत्र की विश्वसनीयता दांव पर है। क्या हमारे राष्ट्रनायक इतने दुर्बल हैं कि हमें उनकी रक्षा करने के लिए देशप्रेम का दिखावा करने वालों की जरूरत है? क्या हमारा लोकतंत्र इतना भंगुर है कि हम व्यक्तियों और घटनाओं पर किसी मुक्त बहस के लिए स्थान नहीं निर्मित कर सकते? लेलीवेल्ड प्रकरण ने हमारे राष्ट्रीय राजनेताओं मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी, एलके आडवाणी, सुषमा स्वराज, प्रकाश करात सभी के समक्ष परीक्षा की घड़ी प्रस्तुत की है। विचारों पर प्रतिबंध की कोशिशें हमारे लोकतांत्रिक दावों के समक्ष चुनौतियां खड़ी करती हैं। एक किताब का जवाब दूसरी किताब ही हो सकती है, पाबंदियां नहीं।
रामचंद्र गुहा
लेखक जाने-माने इतिहासकार हैं।
दूसरी तरफ जर्नल ने यह किताब एक ऐसे ब्रिटिश समीक्षक के हाथों में सौंप दी, जिनकी विवेकशीलता का यह आलम है कि एक दफे उन्होंने टोनी ब्लेयर को भविष्य का विंस्टन चर्चिल बता दिया था। बोअर नस्लवादियों से एकात्मता व्यक्त करने वाले इन समीक्षक ने इस अवसर का उपयोग ब्रिटिश साम्राज्य के महान शत्रु की चरित्र हत्या करने के लिए किया। संदर्भ से हटकर उद्धरण देते हुए उन्होंने गांधी के व्यक्तित्व की एक अलग ही व्याख्या की। उन्होंने गांधी और कालेनबाख की मित्रता को पूरे दो पैराग्राफ समर्पित किए। समीक्षा 26 मार्च को छपी थी। इसके दो दिन बाद ब्रिटिश टैब्लॉइड डेली मेल ने इससे प्रभावित होकर एक स्टोरी छाप दी। द ग्रेट सोल पर भारत के कुछ हिस्सों में प्रतिबंध लगाने का निर्णय वास्तव में पुस्तक के आधार पर नहीं, बल्कि उन ब्रितानियों की पक्षपातपूर्ण व्याख्याओं के आधार पर लिया गया था, जो अभी तक अपने साम्राज्य के पतन को स्वीकार नहीं कर पाए हैं। मैं यह लेख अमेरिका से लिख रहा हूं और द ग्रेट सोल की एक प्रति मेरे पास है। यहां दो प्रश्न पूछे जाने चाहिए। पहला यह कि कालेनबाख से गांधी की मित्रता के प्रसंग को इस किताब ने कितनी जगह दी है और दूसरा यह कि इस बारे में किताब का अपना क्या मंतव्य है?
मेरी गणना के अनुसार 349 पृष्ठों की इस किताब में कालेनबाख का नाम पृष्ठ क्रमांक 33 पर आता है। मैं सोचता हूं कि लेलीवेल्ड ने दक्षिण अफ्रीका में गांधी के जीवन में कालेनबाख के महत्व को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया है। उनकी किताब में हेनरी पोलक का क्षणिक उल्लेख किया गया है और प्राणजीवन मेहता के बारे में तो उन्होंने एक शब्द भी नहीं कहा, जबकि उस दौरान गांधी के लिए ये दो व्यक्ति भी इतने ही महत्वपूर्ण थे। लेलीवेल्ड ने अपने निष्कर्ष कालभ्रम के आधार पर निकाले हैं, जिसमें सौ वर्ष पूर्व की एक मित्रता को आज के एक प्रगतिशील न्यूयॉर्कर के चश्मे से देखने की प्रवृत्ति झलकती है। लेलीवेल्ड ने अतीत के लिखित साक्ष्यों के आधार पर अनुभव किया कि उन्हें यह निष्कर्ष निकालने का विशेषाधिकार है। अहमदाबाद में कोई व्यक्ति उन्हें बताता है कि कालेनबाख और गांधी ‘कपल’ थे, ऑस्ट्रेलिया में कोई व्यक्ति उनके संबंधों को ‘होमोइरोटिक’ बताता है, लेकिन लेलीवेल्ड को स्वयं कालेनबाख द्वारा कही गई एक बात को रेखांकित करना था, जिसमें उन्होंने जून १९क्८ को अपने भाई को पत्र लिखते हुए कहा था कि गांधी से मिलने के बाद उन्होंने ‘अपने यौन जीवन को तिलांजलि दे दी है।’
लेलीवेल्ड ने साक्ष्यों को तोड़-मरोड़कर दावा किया कि कालेनबाख से गांधी की मित्रता (उन्होंने मित्रता के स्थान पर ‘संबंध’ शब्द का उपयोग किया है) उनके जीवन का ‘सबसे अंतरंग संबंध’ था। उनके द्वारा यह कहना कि ‘गांधी अपनी पत्नी को छोड़कर उसके साथ रहने चले गए थे’ तो और भी लचर सूचना है। तथ्य यह है कि ट्रांसवाल के भारतीयों को संगठित करने के लिए गांधी का वहां रहना जरूरी था। इस दौरान कस्तूरबा और उनके बेटे नाटाल स्थित उनके आश्रम में थे, जहां गांधी समय-समय पर उनसे मिलने आया करते थे। कालेनबाख से अपने संबंध के बारे में स्वयं गांधी ने कहा है कि उनका रिश्ता दो भाइयों जैसा था। जब वे एक ही स्थान पर रहते थे, तब गांधी के साथ ही कालेनबाख ने भी ब्रह्मचर्य का संकल्प लिया था। हालांकि बाद में कालेनबाख अपने ब्रह्मचर्य के संकल्प का पालन नहीं कर पाए थे और उन्होंने एक महिला से संबंध स्थापित किए थे। लेलीवेल्ड ने अपनी किताब में इसका उल्लेख नहीं किया है या संभव है कि वे इस बारे में जानते ही न हों। लेलीवेल्ड के तर्क चाहे कितने ही भ्रमित हों, लेकिन उनकी गद्यशैली सधी हुई और गरिमावान है। किताब के 90 फीसदी पृष्ठों पर कालेनबाख का कोई उल्लेख नहीं है और यहां सामाजिक व राजनीतिक महत्व के मामलों को यथेष्ट स्थान दिया गया है। जो भारतीय टैब्लाइड प्रेस की गलत व्याख्याओं से ही परिचित हैं, उन्हें किताब के अंतिम पैराग्राफ के इन शब्दों पर विचार करना चाहिए : ‘आज भारत में ‘गांधीवाद’ सामाजिक चेतना का पर्याय बन गया है। गांधी के आदर्शो में आज भी इतनी शक्ति है कि वे हमें प्रेरित कर सकें..’
ऐसे में जोसेफ लेलीवेल्ड को एक तरफ प्रतिक्रियावादी ब्रिटिश पत्रकारों और दूसरी तरफ उन अवसरवादी भारतीय राजनेताओं का दयनीय शिकार माना जाना चाहिए, जो महात्मा के आदर्शो का पालन करने में अपनी विफलता को उनकी स्मृति के प्रति आस्था प्रदर्शित करने के दावों में छुपाने की कोशिश कर रहे हैं। गांधी के दो पौत्रों, जो स्वयं जाने-माने लेखक हैं, ने सरकार से अनुरोध किया है कि वह इस पुस्तक को भारत में प्रकाशित और वितरित करने की अनुमति प्रदान करे। यहां भारतीय राष्ट्रवाद की परिपक्वता और भारतीय लोकतंत्र की विश्वसनीयता दांव पर है। क्या हमारे राष्ट्रनायक इतने दुर्बल हैं कि हमें उनकी रक्षा करने के लिए देशप्रेम का दिखावा करने वालों की जरूरत है? क्या हमारा लोकतंत्र इतना भंगुर है कि हम व्यक्तियों और घटनाओं पर किसी मुक्त बहस के लिए स्थान नहीं निर्मित कर सकते? लेलीवेल्ड प्रकरण ने हमारे राष्ट्रीय राजनेताओं मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी, एलके आडवाणी, सुषमा स्वराज, प्रकाश करात सभी के समक्ष परीक्षा की घड़ी प्रस्तुत की है। विचारों पर प्रतिबंध की कोशिशें हमारे लोकतांत्रिक दावों के समक्ष चुनौतियां खड़ी करती हैं। एक किताब का जवाब दूसरी किताब ही हो सकती है, पाबंदियां नहीं।
रामचंद्र गुहा
लेखक जाने-माने इतिहासकार हैं।
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आपका बहुत - बहुत शुक्रिया जो आप यहाँ आए और अपनी राय दी,हम आपसे आशा करते है की आप आगे भी अपनी राय से हमे अवगत कराते रहेंगे!!
--- संजय सेन सागर