रेम्या, अर्चना, राकेश, निशा, अभिषेक, रिया, निमरन, काम्या, मेहर और अशोक न तो बड़ी उम्र के अनुभवी लोग हैं और न ही हार्वर्ड या ऑक्सफोर्ड से पढ़कर निकले नामचीन वैज्ञानिक। ये भारत के विभिन्न हिस्सों में स्कूलों में पढ़ रहे किशोर उम्र के छात्र हैं। पिछले सप्ताह जब नेशनल इन्नोवेशन फाउंडेशन ने इन मेधावी छात्रों को इनकी खोज के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया और इनके आविष्कारों को प्रदर्शित किया, तो बड़े-बड़े लोगों ने दांतों तले उंगली दबा ली, जिनमें कई विदेशी और वैज्ञानिक भी थे।
कितने लोगों को यह खयाल आता है कि एक ऐसी वाशिंग मशीन बनाई जाए जो साइकिल की तरह पैडल से चले ताकि कपड़े भी धुल जाएं और लगे हाथ व्यायाम भी हो जाए और बिजली की किल्लत से भी छुटकारा मिल जाए? स्टेशन पर लगातार खड़े-खड़े रेल के इंतजार में सामान की चौकसी करते हुए कितने लोग सोचते हैं कि अटैची में एक कुर्सी जुड़ी होती ताकि उसे खोलकर बैठ जाते और आराम से रेल के आने का इंतजार करते? कितनों को यह खयाल आता है कि काश एक ऐसी मशीन होती जिसमें सारा सामान डाल देते और खाना अपने आप बन जाता? पैरों से मोहताज किसी व्यक्ति को बैसाखी के सहारे चलते देखकर कितनों को यह खयाल आता है कि काश ऐसी बैसाखी होती जिसमें शॉक एब्जॉर्वर होते, रास्ता बनाने के लिए घंटी और अंधेरे में देखने के लिए लाइट भी? सड़कों को पैदल हाथ से बुहारते लोगों को देखकर कितनों को खयाल आता है कि एक ऐसी साइकिल बनाई जाए जिसमें झाड़ू लगी हों और जिसे चलाते हुए सड़क से गुजरें तो साथ ही साथ सफाई भी होती जाए?
ये छोटे-छोटे विचार हैं, लेकिन इनमें बड़ी प्रतिभा के बीज छिपे हैं। हममें से ज्यादातर लोगों को अपने आसपास की दुनिया में कोई कमी, कोई खामी, कोई जरूरत अक्सर महसूस होती है। लेकिन कम ही लोग उस कमी को दूर करने, उस खामी को ठीक करने और उस जरूरत को पूरा करने की जहमत उठाते हैं। यही फर्क है परिस्थिति के आगे हथियार डाल देने और कल्पनाशील ढंग से उसे बदलने में।
ऊपर जिन परिस्थितियों का जिक्र है, उन्हें बदलने का खयाल बड़े लोगों के नहीं, स्कूल में पढ़ने वाले छोटे-छोटे बच्चों के दिमाग में आया। रेम्या जोस के दिमाग में जब वाशिंग मशीन बनाने का खयाल आया। तो उसने विचार मात्र से ही संतोष नहीं किया, बल्कि कल्पनाशीलता से पैडल से चलने वाली वाशिंग मशीन बनाई। असम की अर्चना कंवर ने शॉक एब्जॉर्वर लगी बैसाखी बनाई, तो राकेश पात्रा ने फोल्डिंग सीट वाली बैसाखी और उसमें हॉर्न, छाता और टॉर्च भी जोड़ दी। अभिषेक भगत ने खाना बनाने की स्वचालित मशीन बनाई, तो निशा ने फोल्डिंग सीट वाला यात्रा बैग। वहीं हमेशा साथ रहने वाली चार सहेलियों ने एक ऐसी साइकिल बनाई जिससे सड़कों पर सफाई का काम बहुत तेजी और बहुत आसानी से किया जा सकता है।
क्या बात है जो इन बच्चों को दूसरों से अलग करती है? सबसे पहले अपने आसपास के प्रति गहरा जुड़ाव, लगाव और सजगता। हममें से कई लोग अपने आसपास पैरों से मोहताज लोगों को वैसाखी के सहारे गुजरते देखते हैं। लेकिन उनके दर्द और तकलीफ को पहचानने के लिए अर्चना कंवर और राकेश पात्रा जैसी संवेदनशीलता और जुड़ाव चाहिए। दूसरी जो चीज इन बच्चों को विलक्षण बनाती है, वह है रचनात्मक और विचारशील दिमाग। कई लोग स्टेशन पर खड़े रहकर रेल का इंतजार करते हुए सामान की चौकसी करने की परेशानी से गुजरते हैं। लेकिन इसके समाधान के लिए नई सोच का साहस निशा ने दिखाया।
तीसरी जो बात इन्हें दूसरों से अलग करती है, वह है फोकस और अपने विचार को हकीकत में बदलने की फितरत। इनमें से कई बच्चे लगातार कई सालों तक अपने विचार के अनुरूप आविष्कार पर काम करते रहे। उन्हें कई बार मुश्किलें आईं। कई बार उन्हें लगा कि यह आविष्कार पूरा नहीं हो सकता। लेकिन हर बार वे नए जीवट के साथ फिर जुट गए और आखिरकार उसे साकार करके ही दम लिया। सजगता, सोच और अध्यवसाय ने उन्हें कम उम्र में ही ऐसा आविष्कारक बना दिया, जिस पर किसी को भी नाज होगा। वे देश की प्रतिभा और हुनर के ऐसे नायाब हीरे हैं, जिनकी चमक तब तक कायम रहेगी, जब तक मानव सभ्यता उनके आविष्कारों से लाभ उठाती रहेगी।
रेम्या जोस: पैडल से चलने वाली वाशिंग मशीन
रेम्या जोस केरल के मलापुरम जिले के एक छोटे से गांव में रहती हैं। वह 16 साल की हैं और बारहवीं की परीक्षा दे रही हैं। रेम्या जब 14 साल की थीं, उनकी मां अचानक बीमार पड़ गईं। उनके ऊपर कपड़े धोने की जिम्मेदारी आ गई। उनके घर पर वाशिंग मशीन नहीं थी। रेम्या ने सोचा क्यों न वाशिंग मशीन बनाई जाए। उन्होंने इलेक्ट्रॉनिक वाशिंग मशीन देखी थी और उसी की तर्ज पर पैडल से चलने वाली मशीन बनाने का खयाल उनके दिमाग में आया। उन्होंने डिजाइन बनाया और गांव की एक ऑटोमोबाइल वर्कशॉप को सामान देकर डिजाइन के अनुसार मशीन बनाने को कहा। इसमें उन्होंने एल्यूमिनियम के केबिन को सिलेंडर से जोड़ा और सिलेंडर के साथ साइकिल चैन का पैडलिंग सिस्टम लगा दिया। बस वाशिंग मशीन तैयार। यह मल्टीपरपज मशीन है, जिससे व्यायाम भी किया जा सकता है और कपड़े भी धोए जा सकते हैं। बिजली पर निर्भरता से भी मुक्ति अलग। बड़ी होकर रेम्या डॉक्टर बनना चाहती हैं। नया विचार आए तो उसे साकार करने की कोशिश जरूर करें। गलतियों से न डरें, उन्हें ठीक कर सकते हैं।
रिया, निमरन, काम्या और मेहर: बाइसिकल क्लीनर
चारों सहेलियां दिल्ली के एक स्कूल में पढ़ती हैं। रोज सुबह जब वे बस से स्कूल जाते हुए सफाईकर्मियों को पैदल सड़क बुहारते देखतीं तो उनके दिमाग में खयाल आता कि क्या कोई ऐसी मशीन नहीं हो सकती जिससे सड़कों पर जल्दी और आसानी से सफाई की जा सके। उन्होंने आपस में बात की और उनके दिमाग में विचार आया कि साइकिल में झाड़ुएं इस तरह जोड़ दी जाएं जिससे साइकिल चलाते हुए सड़क से गुजरें तो सड़क अपने आप साफ होती चली जाए। चारों ने एक साइकिल ली और उसके पिछले हिस्से में बेलनाकार दो झाड़न लगा दिए। बस बन गई सड़क बुहारने वाली साइकिल। अब वे इसमें एक डस्टबिन जोड़ने पर काम कर रही हैं ताकि कूड़ा-कर्कट साथ ही साथ उसमें इकट्ठा होता जाए।
चारों की अभिव्यक्ति और प्रस्तुति बहुत अच्छी है। जब तक बात पूरी तरह समझ न लें, सवाल पूछती रहती हैं।’ - निमरन की मम्मी पूनम कांग
अभिषेक भगत: खाना बनाने की मशीन
भागलपुर के अभिषेक को घर में चाय बनानी पड़ती थी। यहीं से खाना बनाने वाली स्वाचालित मशीन का विचार उसके दिमाग में आया। उसकी मशीन में 12 बॉक्स हैं जो एक डिस्पले स्क्रीन से जुड़े हैं। इससे मनचाहे मसाले मिलाकर स्वादिष्ट खाना बनाया जा सकता है। वह रोबोटिक इंजीनियर बनना चाहता है। यह मशीन कोई भी दसवीं का छात्र बना सकता है।
निशा चौबे: फोल्डिंग सीट वाला बैग
ग्रेटर नोयडा में 12वीं की पढ़ाई कर रही निशा नानी से मिलने इंदौर जातीं तो यात्रा के दौरान सामान के पास खड़े होकर रेल का इंतजार उन्हें थकाऊ लगता। तभी उन्हें फोल्डिंग सीट वाला बैग बनाने का विचार सूझा। काम की तारीफ सुनकर अच्छा लगता है।
सभी नन्हे आविष्कारकों से इंटरव्यू प्रणति तिवारी ने किए हैं।
इन सभी नन्हे अविष्कारको को बधाई और शुभकामनाये |
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