♦ अविनाश
कल जब मित्र अभिषेक श्रीवास्तव का एसएमएस आया कि आलोक तोमर नहीं रहे, मैं उदास हो गया। होली का रंग अचानक उतर गया। मैंने अभिषेक को कोई जवाब नहीं दिया। आमतौर पर इस औपचारिक उत्तर से अपने कर्तव्य को पूरा कर सकता था कि दुख हुआ। लेकिन जो दुख था, उसके लिए शब्द नहीं थे। वह अंदर की रुलाइयों में उतर रहे थे और बाहर पड़ोस के वे लोग मौजूद थे, जो आलोक तोमर को नहीं जानते थे।
मिलने के तमाम संयोगों के बावजूद आलोक तोमर से मैं नहीं मिला था। हमारी फोन पर कभी कभी बात होती थी। हम हमेशा एक दूसरे से नाराज रहे, लेकिन बात करते रहे। मोहल्ला लाइव के लिए जब भी उन्होंने कुछ भेजा, उनके परिचय से छेड़छाड़ करते हुए मैं लिखता था, लेखक अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में उनका भाषण लिखते थे। एक बार उन्होंने फोन किया और कहा कि यह सच तो है, लेकिन अब उस सूचना को परिचय में न ही दें तो बेहतर। मैं शर्मिंदा हुआ और मैंने तुरंत उस पंक्ति को हटाया।
हिंदी की कुछ साइट्स उनकी प्रिय वेबसाइट्स थी और मेरी अप्रिय। प्रभाष जोशी के वे घनघोर समर्थक थे। मोहल्ला लाइव पर जब प्रभाष जोशी के मूर्तिभंजन का अभियान चला, तो वे मैदान में अकेले योद्धा थे। उनसे लड़ने में मजा आता था। लगता था कि यह लड़ाई लंबे समय तक चलेगी। जब उन्हें कैंसर होने की सूचना मिली, तो एक झटका लगा। लेकिन उन्होंने इस अदा में अपने को हमारे सामने उपस्थित किया कि कैंसर बहुत छोटा मर्ज है। हम भी मानने लगे कि वे इस चक्रव्यूह से निकल आएंगे। मैंने जब सितंबर में सिनेमा पर दो दिनी बहसतलब में बुलाने के लिए उन्हें फोन किया, तो वही तारीख उनकी थेरेपी की तारीख थी।
कल से अजीब लग रहा है और लग रहा है कि अंदर कुछ अटक गया है। निकल नहीं पा रहा। आज फेसबुक पर दिलीप मंडल जी वॉलपोस्ट देखी, अलविदा आलोक तोमर। आपसे जो एक लंबी जोरदार बहस तय हुई थी, वो पेंडिंग रह गयी। मरने की कला कोई आपसे सीखे। अलविदा। वहीं से आलोक जी की वॉल पर गया। लगा कि वे हैं और लोग उनसे संवाद कर रहे हैं। फेसबुक पर उनके 4977 मित्र हैं। शोकसंदेशों की आघात-वर्षा से उनकी वॉल भरी हुई थी। मैंने कल से आज तक अपनी संवेदना नहीं प्रकट की थी और मुझे लगा कि सामान्य परिचय और असहमति के रिश्तों के बावजूद ऐसा नहीं करना कृतघ्नता है। मुझे खुद से घृणा हुई।
मेरे एक मित्र हैं, सुशील प्रियश्री। जब आलोक जी कौन बनेगा करोड़पति की पहली पहली कड़ियों के लिए सवाल बनाते थे, अमिताभ बच्चन के लिए संवाद लिखते थे, तो सुशील उनके सहयोगी थे। उस एक काम के बाद से बना उन दोनों का रिश्ता सुशील जी के संघर्ष के दिनों में ढाढ़स बंधाता रहा है। आलोक तोमर हमेशा सुशील जी की मदद करते रहे हैं। अभिषेक श्रीवास्तव हार्डकोर कम्युनिस्ट मिजाज वाले आदमी हैं और आलोक जी हार्डकोर प्रतिक्रियावादी मिजाज वाले आदमी। वे आलोक जी के साथ सीनियर इंडिया में थे। उसके बाद के तमाम दिनों में मैंने दोनों के शानदार रिश्ते देखे हैं। इन तमाम देखे हुए रिश्तों से समझ में आता है कि आलोक तोमर से जो एक बार जुड़ गया, उसके पीछे वे किस मजबूती से खड़े रहते थे।
मैं उनसे नहीं जुड़ा था, फिर भी उनके जाने की एक गहरी वेदना मेरे भीतर घुमड़ रही है। जो उनसे जुड़े थे, उनकी वेदना का पारावार क्या होगा – कहना कठिन है।
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आपका बहुत - बहुत शुक्रिया जो आप यहाँ आए और अपनी राय दी,हम आपसे आशा करते है की आप आगे भी अपनी राय से हमे अवगत कराते रहेंगे!!
--- संजय सेन सागर