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आभी जा...डा श्याम गुप्त का गीत .....


बसंत का पदार्पण होने को है , समस्त प्रकृति बसंतमय होती जारही है | बसंत -पंचमी ---यह ही वह दिवस है जब ....
---जब आदि-शक्ति  महा सरस्वती ने आदि स्वर देवी सरस्वती का रूप अवतरण करके ब्रह्मा के हृदयान्तर में प्रवेश किया और ब्रह्मा को पुरा-सृष्टि के सृजन का ज्ञान  हुआ ...
---जब ब्रह्मा सृष्टि सृजन करते करते थक गए एवं स्वयं को नर- नारी के रूप में विभक्त करके नारी सृष्टि का सृजन किया ...
---जब स्वतः स्वचालित मैथुनी-प्रज़नन की प्रक्रिया(automated sexual reproduction system)  के निश्चित क्रम संचालन हेतु स्वयंभू रूद्र ( भगवान शिव ) ने अर्धनारीश्वर-लिंग महेश्वर  रूप  प्रकट किया तथा शीला-अशीला , गौरी-श्यामा, रूपा-अरूपा , सौम्य-क्रूर, शांत-अशांत , राग-विराग ....आदि ११-११  भाव नारियां व भाव नर --भाव प्रकट हुए जो ब्रह्मा का मूल स्वयं भाव के नर-नारी  रूप (समस्त प्रकृति में --- मनुष्य में मनु-शतरूपा रूप ) में प्रविष्ट होकर प्रथम -काम स्फुरणा की उत्पत्ति हुई....
   " कर्पूर गौरं करुणावतारम संसार सारं, भुजगेन्द्र हारं, सदा बसंतम हृदयारविन्दे भवं भवानी सहितं नमामि ||"
----जब पुष्पधन्वा ने कामशर  से अपने स्वयं के उत्पत्तिकर्ता  भगवान शिव को काम पीड़ित करने के प्रयत्न में मानवीय/देवीय शरीर खोया और भष्म होकर अनंग नाम पाया .....और वह नर-नारी के ह्रदय में व्याप्त रह सके...
----जब समस्त प्रकृति  रागमयी होकर बसंतमय होजाती है , हरी-पीली साड़ी पहन कर धरती इठलाने लगती है ,जड़-जंगम, जन- जन , नर-नारी ,प्राणी , पशु-पक्षी, भी राग भाव से उद्वेलित होने लगते हैं ; संसार अनंगमय , रसोद्रेक  से  परिपूरित , रस-श्रृंगार के गीत गाने लगता है----सुनिए डा श्याम गुप्त का एक---रस श्रृंगार सिक्त गीत....

...आभी जा जानेजां ...

झूम कर गाये चन्चल हवा ,
बादियों में भरी मस्तियाँ |
झूमकर नाचतीं है फिजां ,
ख़ूबसूरत है सारा जहां |
आभी जा आभी जा जाने जां||

गान कल कल सुनाती नदी 
तेरी पदचाप की मस्त धुन |
मस्त भ्रमरों के स्वर गूंजते,
तेरे नूपुर की हो रुन- झुन  |
रंग, मन के हज़ारों लिए,
उड़ रहीं प्रीति की तितलियाँ |
आभी जा आभी जा जानेजां ||

रंगे बासंती आँचल को,
लहर-लहराती हैं क्यारियाँ |
प्रीति से धानी सारा जहां ,
अब तुझे और ढूंढूं कहाँ |
आभी जा आभी जा जानेजां ||

मुस्कुराती वो चिटखी कली ,
पुष्प बनने जो हंसकर चली |
दिल में उठता है मेरे धुंआ ,
एक तू ही नहीं जो यहाँ |
आभी जा आभी जा जानेजां ||

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