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बोरों और कनस्तरों में बंद अनाज

इस बार जहां कुछ राज्यों में अनाज की पैदावार बहुत अच्छी हुई है। वहीं कई राज्य ऐसे भी हैं, जहां फसल अच्छी नहीं होने से खाद्यान्न की किल्लत की स्थिति पैदा हो गई है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि फसल का संरक्षण करने के हमारे तौर-तरीके पुराने और दकियानूसी हैं। हम आज भी लोहे के कनस्तरों टाट के बोरों और गोदामों का ही इस्तेमाल करते हैं। कनस्तरों में जंग लग जाता है और बोरे सड़-गल जाते हैं। नतीजा यह रहता है कि हमारा अनाज चूहों और कीड़ों-मकोड़ों का भोजन बन जाता है। हम वैक्यूम पोली सिस्टम (वीपीएस) जैसी आधुनिक स्टोरेज प्रणाली का उपयोग नहीं करते, जिसकी सहायता से अनाज को पांच से दस साल तक खुले में भी बिना किसी कवर के सुरक्षित रखा जा सकता है। अमेरिका, कनाडा, ब्राजील, चीन सहित यूरोप के लगभग सभी देश अनाज का स्टोरेज करने के लिए इसी प्रणाली का इस्तेमाल करते हैं। मुझे वीपीएस के बारे में अशोक चावला नाम के एक व्यक्ति द्वारा भेजे गए एक विस्तृत प्रस्ताव के माध्यम से पता चला। उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कृषि मंत्री शरद पवार को जो पत्र लिखा था, उसकी एक प्रति मुझे भी भिजवाई थी।
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ताकत की नुमाइश
हर बार गणतंत्र दिवस के दिन मेरे मन में यह सवाल उठता है कि क्या वाकई करोड़ों रुपए खर्च कर ऐसे चमक-दमक वाले आयोजन करना उचित है? साल-दर-साल इस तरह के समारोहों का आयोजन जारी रहता है। अधिकारी और नेता बदल जाते हैं, लेकिन नुमाइश की प्रणाली वही रहती है। इसके बावजूद गणतंत्र दिवस की सुबह मैं टीवी से चिपककर बैठा रहता हूं। मुझे लगता है हम भारतीयों की सोच में एक विरोधाभास है। हम चाहते हैं कि भारत को महात्मा गांधी के देश के रूप में जाना जाए। लेकिन साथ ही हम दुनिया के सामने अपने हथियारों की नुमाइश करना भी पसंद करते हैं। हम यह भी जता देना चाहते हैं कि हम अपने पर बुरी नजर डालने वालों का क्या हश्र करने में सक्षम हैं। लेकिन अपने बाहुबल का प्रदर्शन करने के बाद हमें बापू याद आते हैं। नुमाइश खत्म होने के बाद हम बापू के प्रिय भजन बजाने लग जाते हैं। वास्तव में सच्चाई तो यह है कि भारत अब गांधी का देश नहीं रह गया है। वह छल-कपट करने वाले पाखंडियों का देश बन गया है। आज हमारे देश में इसी तरह के लोग बहुतायत में हैं, जो छल-कपट करना जानते हैं।
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महंगाई का गणित
मैंने शहर देखा/मिला राजा और विदूषक से
मायूस मत होओ/मत सिकोड़ो नाक-भौं
कि जल्द ही कम हो जाएंगी जरूरी चीजों की कीमतें
चाहे सब्जी हो, या फल, या चाय
या हो ट्रेनों और बसों का किराया
चाहे हो टच्यूशन की फीस
या गुड़, दालें, घी
कीमतें बढ़ रही हैं जिस तेजी से
एक न एक दिन निश्चित ही वे
पहुंच जाएंगी एक ऐसे स्तर पर
जहां पहुंचकर खुश हो जाएंगे हमारे व्यापारीगण
लेकिन हम गरीब अपने लिए यही याद रखें
खाने से बढ़ता है वजन
लिहाजा क्यों हो निराश
हफ्ते में तीन दिन करें उपवास
और रहें चुस्त-दुरुस्त।
(सौजन्य : कुलदीप सलिल, दिल्ली)
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टिकट की हैसियत
एक बार मैं रोडवेज की बस से रोहतक से गुड़गांव तक यात्रा कर रहा था। खुल्ले पैसों की बात पर कंडक्टर का एक यात्री से झगड़ा हो गया। वह काफी क्षुब्ध था और गुस्से में बड़बड़ा रहा था। फिर उसने बुलंद आवाज में यह घोषणा कर दी : ‘मैं किसी भी रुस्तम की परवाह नहीं करता, फिर चाहे वह कई फैक्टरियों का मालिक ही क्यों न हो। मुझे किसी की भी परवाह नहीं, चाहे वह कारों की किसी कंपनी का मालिक ही क्यों न हो। मैं तो राज्य के मुख्यमंत्री तक को अपने सामने कुछ नहीं समझता तो ये क्या चीज हैं’। मुझसे रहा न गया। मैंने उससे कहा : ‘मेरे भाई, लगता है तुम बहुत बड़बोले किस्म के व्यक्ति हो। लेकिन क्या तुम मुझे बता सकते हो कि किस आधार पर तुम इतनी हिम्मत के साथ यह कह रहे हो कि तुम राज्य के मुख्यमंत्री तक को कुछ नहीं समझते?’

कंडक्टर ने बड़ी बेपरवाही से जवाब दिया : ‘मुख्यमंत्री की मेरे सामने भला क्या बिसात? मुख्यमंत्री पांच साल में बस ९क् टिकट बांटता है, जबकि मैं रोज 500 टिकट बांट देता हूं। तुम खुद अंदाजा लगा लो मैं कहां हूं और मुख्यमंत्री कहां हैं।’

मैं चुप हो गया। इसके बाद मैंने पूरी यात्रा के दौरान कंडक्टर से कोई सवाल नहीं पूछा।
(सौजन्य : रामनिवास मलिक, गुड़गांव)
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हंसना मना है
अमेरिका में चोरों को पकड़ने वाली मशीन ईजाद की गई। उसे परीक्षण के लिए विभिन्न देशों में ले जाया गया। अमेरिका में उस मशीन ने 30 मिनट में 20 चोर पकड़ लिए। ब्रिटेन में मशीन ने 30 मिनट में 50 से भी ज्यादा चोरों को पकड़ने में कामयाबी हासिल की। स्पेन में 65 चोर पकड़ाए तो घाना में यह आंकड़ा 600 तक पहुंच गया। लेकिन जब मशीन को परीक्षण के लिए भारत लाया गया तो एक भी चोर पकड़ में न आया। कारण? क्योंकि 15 मिनट बाद मशीन खुद चोरी चली गई!
(सौजन्य : विपिन बक्शी, दिल्ली)

खुशवंत सिंह
लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं

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