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जैसे को तैसा

बहुत खुश होते हैं मुझसे जलने वाले
    मेरा थोडा दुःख देखकर,
बहुत मित्र बनते हैं मुझसे जलने वाले
   मेरा कोई शत्रु देखकर,
हैं नादाँ वे सब,हैं अंजान वे सब,
नहीं जानते अब तक कुछ भी यहाँ
किसी के भी सुख से ,किसी के भी दुःख से
किसी को भी मिलता है सुख-दुःख कहाँ,
क्या मैंने जो खोया,क्या उनको मिल पाया,
क्या मैंने जो पाया,क्या उनका छिन पाया,
यही सब वे सोचें,
  यही सब वे जानें,
क्यों खुश हो रहे हैं वे मेरे बहाने,
क्यों ना इन क्षणों को कुछ करके बिताएँ
क्यों देते खुश होकर  मुझे तुम दुआएँ
नहीं चाहती मैं अब कुछ भी तुमसे,
भले मनाओ खुशियाँ भले करलो जलसे,
तुम सबकी असलियत जानी मैं जबसे ,
है दिल में तो चाहत मेरी यही तबसे,
जैसा तुमने किया है वैसा ही तुम सब पाओ,
इसलिए करती जाओ ऐसा ताकि ऐसा फल भी खाओ.
इंसानी फितरत ने इतना दुखी किया कि ये दर्द कविता के रूप में उभर आया और आपके सामने रख दिया.

Comments

  1. आपकी कविता आपके भावों को बखूबी बयाँ कर रहेँ हैं दोस्त काश इन्सान की भावनाओं को इन्सान कभी समझ पाता !
    दर्द के एहसास बयाँ करती रचना !

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आपका बहुत - बहुत शुक्रिया जो आप यहाँ आए और अपनी राय दी,हम आपसे आशा करते है की आप आगे भी अपनी राय से हमे अवगत कराते रहेंगे!!
--- संजय सेन सागर

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