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सफ़र




घर से चले थे घर का पता साथ लेके हम !
चल पड़े थे काफिले संग  दूर तलख हम !
मिलते भी रहें राही बदल बदल के राह मै ,
रुकते भी गये अपने काफिले के संग हम !
अपनी अपनी मंजिल पर मुसाफिर ठहर गये ,
और दूर तलख सब किनारों मै खो गये !
मंजिल पर अब अकेले से हो गये थे हम !
राहें थी अलग -अलग कहीं खो गये थे हम !
फिर हाथ पकड़ कर किसी ने थाम तो लिया ,
पता तो था अलग सा पर आराम सा लगा !
अब दिल की खवाइशों को सुकूं सा मिला  !
जैसे  किसी नदी को सागर का पता मिला !
अब अपनी राह पर फिर चल पड़े हैं  हम !
अब तो सफ़र तन्हां ही तय करने लगे है हम !
क्युकी हम जान गये साथ न कोई आया था !
और जानतें हैं की साथ न अब कोई जायेगा !

Comments

  1. ......दिल को छू लेने वाली प्रस्तुती

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  2. बहुत ही सुंदर भावाभिव्यक्ति....

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आपका बहुत - बहुत शुक्रिया जो आप यहाँ आए और अपनी राय दी,हम आपसे आशा करते है की आप आगे भी अपनी राय से हमे अवगत कराते रहेंगे!!
--- संजय सेन सागर

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