“हजारों ख्वाहिशें ऐसी की हर ख्वाहिश पे दम निकले, बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले ”…
मिर्जा असादुल्लाह खान गालिब...ये वो नाम है जिसे पूरी दुनिया मिर्जा गालिब के नाम से जानती है। उर्दु शायरी का उनसे नायाब हीरा शायद ही कोई और होगा। उनकी इस शायरी के साथ सैकड़ो ऐसी शायरी हैं जिन्हे लोग आजतक याद करते हैं। खुद मिर्जा गालिब की उर्दु शायरी पर अनगिनत रिसर्च हो चुकी है और अब भी हो रही है।
आज, यानि मिर्जा गालिब की 211वी जन्मतिथि (27 दिसम्बर 1797)है, ये सभी जानते है। लेकिन मिर्जा गालिब की जिंदगी का एक हिस्सा ऐसा भी है जो कम ही लोगों को मालूम है।
मिर्जा गालिब के समय में अंग्रेजो ने दिल्ली पर अपना राज जमा लिया था लेकिन पुलिस व्यवस्था अभी भी मुगल कालीन थी। राजधानी दिल्ली में कोतवाल की ही हुकुमत चलती थी। उसका डंडा जिधर भी घूमता लोग डर के मारे अपने-अपने घरों में दुबक जाते थे। खुद मिर्जा गालिब भी मुगल सल्तनत के आखिरी राजकवि थे। आखिरी मुगल शासक बहादुर शाह जफर उनके ही समकालीन थे। लेकिन जिस तरह से अंग्रेजो ने बहादुर शाह जफर से दिल्ली की गद्दी छीन ली थी, उनके साथ मिर्जा गालिब सहित कई राजकवियो की नौकरी भी खत्म हो गई थी। मिर्जा उन-दिनों पुरानी दिल्ली के बल्लीमारन इलाके में रहते थे—उनकी इस हवेली को अब म्यूजियम में तब्दील कर दिया गया है। नौकरी छुटने के बाद मिर्जा की शानौ-शौकत कम हो गई। क्योंकि
मिर्जा नबाबी खानदान से ताल्लुक रखते थे और मुगल दरबार में उंचे ओहदे पर थे इसलिये उन्हे अपनी अय्याशियों पर लगाम लगाना बेहद मुश्किल था।
ये बात दीगर है कि मिर्जा की हवेलियो में आये-दिन पार्टियो हुआ करती थी। जाम से जाम टकराते और शेरो-शायरी का लंबा दौर चलता। जानकार बताते है कि मिर्जा को कोठो पर जाने का भी शौक था। कई वेश्याये उनकी अच्छी दोस्त थी। लेकिन दिल्ली के कोतवाल को मिर्जा की ये रंग-रेलियां नागवार गुजरती थी। वो उन्हे शांति भंग करने के आरोप में जेल में डाल देता। ये बात आजतक साफ नही हो पाई है कि क्या वाकई मिर्जा शांति भंग करते थे या फिर उनका कोतवाल से छत्तीस का आंकडा था।
उस वक्त कोतवाली वहां हुआ करती थी जहां आजकल शीशगंज गुरद्धारा है।
कोतवाली के ठीक पीछे ही जेल हुआ करती थी, जहां कैदियों को रखा जाता था। अब इस जगह शीशगंज गुरुद्धारे की पार्किंग है। मिर्जा को कई रातें इसी जेल में काटनी पडी थीं।
इसी जेल में औरंगजेब के आदेश पर सिखों के नवे गुरु, गुरु तेगबहादुर का शीश कलम कर दिया गया था। उनकी कुर्बानी को याद करते हुये बाद में सरकार ने कोतवाली को यहां से शिफ्ट कर नई जगह पहुंचा दिया और कोतवाली (और जेल) की जगह शीशगंज गुरुद्धारा बना दिया गया। गुरुद्धारे के ठीक सामने है भाई मति दास चौक। भाई मति दास गुरु तेगबहादुर के शिष्य थे। औरंगजेब ने उन्हे भी मुसलिम धर्म ना अपनाने के इल्जाम में मौत के घाट उतार दिया था।
खैर, मिर्जा गालिब का कोतवाली में आना-जाना लगा रहता था। लेकिन एक बार जब कोतवाल ने मिर्जा गालिब को उनके एक अपराध के लिये मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया, तो अंग्रेज मजिस्ट्रैट आग-बूबला हो गये।
मजिस्ट्रैट साहब का तर्क था कि क्या कोतवाल को पूरी दिल्ली में गिरफ्तार करने के लिये कोई नहीं मिलता है जो हरबार वो मिर्जा को लाकर अदालत में पेश कर देता है।
यहां पर कई इतिहासकार मानते है कि कोतवाल मिर्जा को जबरदस्ती फंसाता था—अगर कोई ये सोचता है कि आज की मार्डन पुलिस ही भोले-भाले लोगो को फंसा देती है तो ये जान लीजिये कि ये परंपरा बहुत पुरानी है। दिल्ली के पूर्व पुलिस कमिश्नर डा. के के पॉल ने अपनी ‘कॉफी-बुक’ में इस किस्से का जिक्र किया है। वैसे इतिहासकार इस बात से इंकार नहीं करते है कि मिर्जा को पीने-पिलाने का शौक नहीं था।
मिर्जा गालिब की यात्रा केवल कोतवाली तक ही सीमित नहीं थी। उन्हे कोर्ट-कचहरी का भी शौक था। शायद इसलिये कि अंग्रेज सरकार ने उनकी पुश्तैनी और मुगल सल्तनत से मिली जमीन-जायदाद जब्त कर ली थी। अपने हक की लड़ाई लड़ने के लिये वो कलकत्ता तक हो कर आये थे—उन दिनो भारत में अंग्रेज हुकुमत का हेड ऑफिस और सुप्रीम कोर्ट वही था। उनदिनों बताते हैं कि दिल्ली से कलकत्ता पहुंचने में करीब तीन महीने लगते थे। लंबी कानूनी लडाई से मिर्जा गालिब बुरी तरह टूट गये थे। उनकी जो भी बची हुई धन-दौलत थी वो सब खत्म हो चुकी थी। लेकिन घर में रंग-रेलियां और जाम से जाम टकराने के दौर कम नहीं हुये। नतीजा ये हुआ कि घर में आये-दिन कलह रहने लगी। घर मे लड़ाई-झगड़ा रोजमर्रा की बात हो गई। यही वजह है कि अपनी उम्र के आखिरी पडाव में मिर्जा पूरी तरह टूट चुके थे---गुलजार निर्देशित टी.वी सीरियल अगर आपने देखा हो तो इसका अंदाजा बखूबी लगाया जा सकता है।
इन कठिन परिस्थितियों में भी उन्होने अपनी शेरो-शायरी जारी रखी। और शायद यही वजह है कि उनकी शायरी में वो दर्द है जो वही बंया कर सकता है जिसने इतने दुख-दर्द करीब से महसूस किये हों।
लेकिन इन कठिन परिस्थितियों में भी उन्होने अपनी शेरो-शायरी जारी रखी। और शायद यही वजह है कि उनकी शायरी में वो दर्द है जो वही लिख सकता है जिसने इतने दुख-दर्द करीब से महसूस किये हों।
“फिर खुला है दर-ए-अदालत-ए-नाज़, गर्म बाज़ार-ए-फ़ौजदारी है। हो रहा है जहाँ में अँधेर, ज़ुल्फ़ की फिर सरिश्तादारी है। फिर दिया पारा-ए-जिगर ने सवाल, एक फ़रियाद-ओ-आह-ओ-ज़ारी है। फिर हुए हैं गवाह-ए-इश्क़ तलब, अश्क़बारी का हुक्मज़ारी है। दिल-ओ-मिज़श्माँ का जो मुक़दमा था, आज फिर उस की रूबक़ारी है। बेख़ूदी बेसबब नहीं 'ग़ालिब', कुछ तो है जिस की पर्दादारी है।”
Wah Wah Wah
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