-डॉ. सत्यनारायण सोनी
सही मायने में तो मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाए जाने पर ही नि:शुल्क एवं अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम को लागू माना जाएगा।
नि:शुल्क एवं अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम 1 अप्रैल 2010 से देशभर में लागू हो चुका है। राजस्थान सरकार ने भी राज्य में इस अधिनियम को लागू करने के लिए अपनी प्रतिबद्धता जाहिर की है और राजस्थान प्रारम्भिक शिक्षा परिषद् के माध्यम से राज्य सरकार ने शिक्षाविदों, शिक्षक संघों, जनप्रतिनिधियों, स्वयंसेवी संस्थाओं के सुझाव आमंत्रित किए हैं। इससे पहले राज्य सरकार ने देश की स्कूली शिक्षा में अव्वल स्थान रखने वाले तमिलनाडु की तर्ज पर राज्य में बच्चों को शिक्षा देने की योजना भी बनाई। इसके लिए शिक्षा विभाग की टीम ने गत मई माह में बाकायदा तमिलनाडु का दौरा भी किया। यहां यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि तमिलनाडु में प्राथमिक शिक्षा का जो माध्यम है, क्या सरकार उसे भी राजस्थान में लागू करेगी? सही मायने में तो मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाए जाने पर ही इस अधिनियम को लागू माना जाएगा। आज कहने को तो प्रतिवर्ष प्रवेशोत्सव भी मनाया जाता है, मगर स्कूल की ओर कदम बढ़ाते वक्त बालकों में जो उत्साह होता है, वह पहले ही दिन ठंडा पड़ जाता है और बालकों के लिए स्कूल बोरियत भरे स्थान के अलावा और कुछ नहीं रहता। इसका सबसे बड़ा कारण शिक्षा का माध्यम है। राजस्थान में शिक्षा का माध्यम मातृभाषा नहीं होने से बच्चों को स्कूलों में अपने घर की भाषा नहीं मिलती और वहां के वातावरण में वह घर की-सी आत्मीयता महसूस नहीं करता। यही वजह है कि खासकर ग्रामीण अंचलों का बच्चा स्कूल जाने से आनाकानी करने लगता है।
गांधीजी ने कहा था- 'मेरी मातृभाषा में कितनी ही खामियां क्यों न हों, मैं उस से उसी तरह चिपटा रहूंगा, जिस तरह मां की छाती से। वही मुझे जीवन प्रदान करने वाला दूध दे सकती है।' प्रदेश की गांधीवादी सरकार अपनी मातृभाषा राजस्थानी की खूबियों को भले ही खामियां मानें, पर उसे गांधीजी के विचारों का सम्मान करना चाहिए। मां हमें जिस भाषा में दुलारती है, लोरियां सुनाती है, जिस भाषा के संस्कार पाकर हम पलते-बढ़ते हैं, वही हमारी मातृभाषा होती है और दुनियाभर के शिक्षाविद और शिक्षा कमेटियां प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा के माध्यम से ही दिए जाने की वकालत करती हैं। विश्वभर में प्राथमिक शिक्षा के मामले में मातृभाषा के माध्यम को ही अपनाया गया है। राजस्थान की सरकार ने वर्षों पहले अल्पसंख्यक समुदायों के लिए ऐसी व्यवस्था देकर सराहनीय कदम उठाया, मगर बहुसंख्यक राजस्थानी समुदाय के बालकों के लिए आज तक उसके पास कोई योजना नहीं है।
गांधीजी की यह बात भी काबिले गौर है- 'मेरा यह विश्वास है कि राष्ट्र के जो बालक अपनी मातृभाषा के बजाय दूसरी भाषा में शिक्षा प्राप्त करते हैं, वे आत्महत्या ही करते हैं।' अब सवाल यह उठता है कि हम कब तक अपने बालकों को आत्महत्या की ओर धकेलते रहेंगे? 64 बरस से लगातार मातृभाषा के बजाय अन्य माध्यम से शिक्षा ग्रहण करते रहने के बावजूद भी राजस्थान के लोग अपने मन से अपनी मां-भाषा को विलग नहीं कर पाए हैं तो कोई तो बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में जाने वाले बच्चे भी खेल-खेल में अगर कोई कविता की पंक्तियां गुनगुनाते हैं तो वह मां-भाषा में ही प्रस्फुटित होती है। राजस्थान के स्कूलों में भले ही पाठ्यपुस्तकों की भाषा राजस्थानी नहीं, मगर शिक्षकों को प्रत्येक विषय पढ़ाने के लिए आज भी मातृभाषा के ठेठ बोलचाल के शब्दों का ही प्रयोग करना पड़ता है। अंग्रेजी के एक शिक्षक ने अपने प्रयोगों के आधार पर पाया कि राजस्थान में अंग्रेजी भाषा का ज्ञान राजस्थानी माध्यम से बड़ी सुगमता और शीघ्रता से दिया जा सकता है। सैद्धांतिक रूप में न सही, हकीकत तो यही है कि राजस्थान में आज व्यावहारिक रूप में हिन्दी विषय का ज्ञान भी राजस्थानी माध्यम से ही करवाना पड़ता है। अपने शिक्षण में मातृभाषा का प्रयोग करने वाले शिक्षक बालकों के हृदय में स्थान बना लेते हैं और उन शिक्षकों से अर्जित ज्ञान बालक के मानस पटल पर स्थाई हो जाता है। हमें यह मानने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए कि 'एक दूणी-दूणी, दो दूणी च्यार' में जो आनन्द है वह 'दो एकम दो, दो दूनी चारÓ में कतई नहीं हो सकता।
राहुल सांकृत्यायन ने भी इसी बात को लेकर पुरजोर शब्दों में राजस्थानी की वकालत की थी। उन्होंने कहा- 'शिक्षा मातृभाषा के माध्यम से ही होनी चाहिए, यदि इस सिद्धांत को मान लिया जाए तो राजस्थान से निरक्षरता हटने में कितनी देर लगे। राजस्थान की जनता बहुत दिनों तक भेड़ों की तरह नहीं हांकी जा सकेगी। इसलिए सबसे पहली आवश्यकता है राजस्थानी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाया जाए।' राजस्थान के बालकों को राजस्थानी माध्यम से ही शिक्षा दी जानी चाहिए, तभी वह अधिक कारगर सिद्ध हो सकती है। राजस्थान में बसने वाले अन्य भाषी लोगों पर भी हम इसे थोपे जाने की वकालत नहीं करते। पंजाबी, सिंधी, उर्दू, हिन्दी और अंग्रेजी माध्यम के स्कूल तो चल ही रहे हैं। अन्य भाषी अल्पसंख्यकों को भी यह सुविधा मिले, मगर बहुसंख्यक राजस्थानी समुदाय की भावनाओं को कुचला न जाए।
लेखक राजस्थान शिक्षा विभाग में हिन्दी विषय के प्राध्यापक हैं।
पता- परलीका, वाया-गोगामेड़ी, जिला-हनुमानगढ़ (राजस्थान) 335504
दूरभाष : 09460102521
email-aapnibhasha@gmail.com
गांधीजी ने कहा था- 'मेरी मातृभाषा में कितनी ही खामियां क्यों न हों, मैं उस से उसी तरह चिपटा रहूंगा, जिस तरह मां की छाती से। वही मुझे जीवन प्रदान करने वाला दूध दे सकती है।' प्रदेश की गांधीवादी सरकार अपनी मातृभाषा राजस्थानी की खूबियों को भले ही खामियां मानें, पर उसे गांधीजी के विचारों का सम्मान करना चाहिए। मां हमें जिस भाषा में दुलारती है, लोरियां सुनाती है, जिस भाषा के संस्कार पाकर हम पलते-बढ़ते हैं, वही हमारी मातृभाषा होती है और दुनियाभर के शिक्षाविद और शिक्षा कमेटियां प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा के माध्यम से ही दिए जाने की वकालत करती हैं। विश्वभर में प्राथमिक शिक्षा के मामले में मातृभाषा के माध्यम को ही अपनाया गया है। राजस्थान की सरकार ने वर्षों पहले अल्पसंख्यक समुदायों के लिए ऐसी व्यवस्था देकर सराहनीय कदम उठाया, मगर बहुसंख्यक राजस्थानी समुदाय के बालकों के लिए आज तक उसके पास कोई योजना नहीं है।
गांधीजी की यह बात भी काबिले गौर है- 'मेरा यह विश्वास है कि राष्ट्र के जो बालक अपनी मातृभाषा के बजाय दूसरी भाषा में शिक्षा प्राप्त करते हैं, वे आत्महत्या ही करते हैं।' अब सवाल यह उठता है कि हम कब तक अपने बालकों को आत्महत्या की ओर धकेलते रहेंगे? 64 बरस से लगातार मातृभाषा के बजाय अन्य माध्यम से शिक्षा ग्रहण करते रहने के बावजूद भी राजस्थान के लोग अपने मन से अपनी मां-भाषा को विलग नहीं कर पाए हैं तो कोई तो बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में जाने वाले बच्चे भी खेल-खेल में अगर कोई कविता की पंक्तियां गुनगुनाते हैं तो वह मां-भाषा में ही प्रस्फुटित होती है। राजस्थान के स्कूलों में भले ही पाठ्यपुस्तकों की भाषा राजस्थानी नहीं, मगर शिक्षकों को प्रत्येक विषय पढ़ाने के लिए आज भी मातृभाषा के ठेठ बोलचाल के शब्दों का ही प्रयोग करना पड़ता है। अंग्रेजी के एक शिक्षक ने अपने प्रयोगों के आधार पर पाया कि राजस्थान में अंग्रेजी भाषा का ज्ञान राजस्थानी माध्यम से बड़ी सुगमता और शीघ्रता से दिया जा सकता है। सैद्धांतिक रूप में न सही, हकीकत तो यही है कि राजस्थान में आज व्यावहारिक रूप में हिन्दी विषय का ज्ञान भी राजस्थानी माध्यम से ही करवाना पड़ता है। अपने शिक्षण में मातृभाषा का प्रयोग करने वाले शिक्षक बालकों के हृदय में स्थान बना लेते हैं और उन शिक्षकों से अर्जित ज्ञान बालक के मानस पटल पर स्थाई हो जाता है। हमें यह मानने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए कि 'एक दूणी-दूणी, दो दूणी च्यार' में जो आनन्द है वह 'दो एकम दो, दो दूनी चारÓ में कतई नहीं हो सकता।
राहुल सांकृत्यायन ने भी इसी बात को लेकर पुरजोर शब्दों में राजस्थानी की वकालत की थी। उन्होंने कहा- 'शिक्षा मातृभाषा के माध्यम से ही होनी चाहिए, यदि इस सिद्धांत को मान लिया जाए तो राजस्थान से निरक्षरता हटने में कितनी देर लगे। राजस्थान की जनता बहुत दिनों तक भेड़ों की तरह नहीं हांकी जा सकेगी। इसलिए सबसे पहली आवश्यकता है राजस्थानी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाया जाए।' राजस्थान के बालकों को राजस्थानी माध्यम से ही शिक्षा दी जानी चाहिए, तभी वह अधिक कारगर सिद्ध हो सकती है। राजस्थान में बसने वाले अन्य भाषी लोगों पर भी हम इसे थोपे जाने की वकालत नहीं करते। पंजाबी, सिंधी, उर्दू, हिन्दी और अंग्रेजी माध्यम के स्कूल तो चल ही रहे हैं। अन्य भाषी अल्पसंख्यकों को भी यह सुविधा मिले, मगर बहुसंख्यक राजस्थानी समुदाय की भावनाओं को कुचला न जाए।
लेखक राजस्थान शिक्षा विभाग में हिन्दी विषय के प्राध्यापक हैं।
पता- परलीका, वाया-गोगामेड़ी, जिला-हनुमानगढ़ (राजस्थान) 335504
दूरभाष : 09460102521
email-aapnibhasha@gmail.com
आदरजोग सत्यनारायण जी रो ओ लेख सत्ता में बेथ्योदा वा राज्नेतावा ने एक सीख है के वाने राजस्थान रो पाठ्यकर्म पूरी तरय मायद भाषा राजस्थानी में सरू कर देव्नो चाईजे. पेली रा राज्नेतावा जीकी गलती करी उन ने सुधारण रो एक मोको है. बड़ा बड़ा महा पुरुषा देश रे सारु जीता भी jatan कार्य वे आपरी मायद भाषा में पढ़ ने करया हिंदी जीसी अध्किच्री भाषा रे पान नि करया. राजस्थानी लोग रे लारे रेवन रो सेसू लुन्ठो कारण वारि सिक्षा मायद भाषा में नी होव्नो है. आस रखा के सरकार रे काना आ बात पडली जय राजस्थान, जय राजस्थानी.
ReplyDeletewhatever said by Dr. S.N. Soni and Vinod ji was toatlly right. i personally believe that education must be given in mother tongue at primary level. many researces favour so. i hope very well for rajasthani also.
ReplyDeleteJ.K.Soni, IAS
LBSNAA, Mussoorie
www.jksoniprayas.com.co.in
शिक्षा विभाग हर पहलूयों को ध्यान में रखकर कौर्स बनाते है और भाषा का चयन करते है परंतू आप लोग हमेशा भाषा को अंतर बनाकर भेदभाव फ़ैलाने का कार्य करने लगते है ,जो इंसानियत के खिलाफ है.....
ReplyDeleteशिक्षा विभाग हर पहलूयों को ध्यान में रखकर कौर्स बनाते है और भाषा का चयन करते है परंतू आप लोग हमेशा भाषा को अंतर बनाकर भेदभाव फ़ैलाने का कार्य करने लगते है ,जो इंसानियत के खिलाफ है.....
ReplyDeleteसाहिबाजी, प्रणाम। पहला निवेदन तो यह है कि आप संयम न खोएं और इस विचार-मंच पर अपने तर्कसंगत विचार रखें। हम पर भेदभाव फैलाने का लांछन न लगाएं। क्योंकि कोई भी वाजिब मांग करने वाले कभी भेदभाव नहीं फैलाते। मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाए जाने का विचार शिक्षाविदों और शिक्षा कमेटियों का ही है। अनिवार्य शिक्षा अधिनियम की यह पहली शर्त भी है। राजस्थान के अलावा दुनियाभर में मातृभाषा के माध्यम को प्राथमिक स्तर पर लागू किया गया है।
ReplyDeleteराजस्थानी राजस्थान की प्रमुख भाषा है और इसे राजस्थान में ही लागू करने की मांग हम कर रहे हैं तो यह भेदभाव हो गया? यहां के स्कूलों में पंजाबी, मराठी, गुजराती, मलयालम, संस्कृत, तमिल, तेलुगु, उर्दू आदि भाषाएं पढ़ाई जाती हैं। हमने कब विरोध किया? राजस्थान में पंजाबी और उर्दू माध्यम के स्कूल भी चलते हैं। हमने कोई विरोध नहीं किया। हम अपनी भाषा की मांग करते हैं तो आपको एक वाजिब मांग का समर्थन करना चाहिए था या इसके विपक्ष में कोई तर्क देना चाहिए था। आशा है आप हमारी भावनाओं को समझेंगे और इस विचार के विपक्ष में कोई वजनी बात जरूर कहेंगे।
-डॉ. सत्यनारायण सोनी
बात राज्य की मांग की नहीं है बात है की हम राज्य स्तर की भाषाओं पर ध्यान देते है तो हिंदी को किस तरह सेसमृद्ध बनायेंगे...आज आप अपने राज्य के लिए मांग करेंगे कल कोई और खड़ा हो जायेगा,यही वजह है की हिंदी आज इस तरह की मुश्किलों में फसी हुई है..
ReplyDeleteख़ाली-पीली अहंकार क्यों ?
ReplyDeleteआदरणीय भाई पी.सी.गोदियाल जीने हकनामा ब्लॉग पर दूसरे ब्लोगर्स के कमेंट्स को उलटी दस्त की उपमा दी है जोकि सरासर अनुचित है और अहंकार का प्रतीक भी । अहंकार से और अशिष्ट व्यवहार से दोनों से ही रोकती है भारतीय संस्कृति जिसका झंडा लेकर चलने का दावा करते है, मुझे लगता है कि दावा सच नहीं है ।
मैं पुन: निवेदन करना चाहता हूँ कि प्रांतीय भाषाओँ की समृद्धि में ही हिंदी का हित निहित है... वे ही हिंदी को पोषित करती हैं.. अपनी जड़ों से कटकर कभी भी कोई फला-फूला नहीं... हिंदी को अपनी जड़ों से काटोगे तो वह भी ठूंठ होकर रह जाएगी... भाषाविदों के अध्ययन और अनुभव से उपजी उनकी राय का सम्मान करना चाहिए हमें..
ReplyDeleteपंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र सहित देश के सभी राज्यों में तो उनकी मातृभाषा में पढाई होती है...? 22 भाषाओँ को संविधान की 8 वीं अनुसूची में शामिल किए जाने से तो हिंदी की ताकत बढ़ी है और राजस्थानी शामिल हुई तो दुबली-पतली हो जाएगी..?
-डॉ. सत्यनारायण सोनी
दिल्ली सरकार ने पंजाबी और उर्दू को राज्य की दूसरी राजभाषा का दर्जा दे रखा है.. हरियाणा सरकार ने भी पंजाबी को दूसरी राजभाषा का दर्जा दिया है.... वहां तो हिंदी कमजोर नहीं हुई..? राजस्थान की प्रमुख भाषा राजस्थानी को राजस्थान में ही (हिंदी को प्रथम भाषा स्वीकारते हुए भी) जब हम दूसरी या तीसरी भाषा के रूप में मान्यता देने की बात करते हैं तो आप जैसे कुछ लोग विरोध पर उतर आते हैं... कैसा न्याय है यह...?
ReplyDelete-डॉ. सत्यनारायण सोनी